धार्मिक साधना केवल आंतरिक संघर्ष नहीं, बल्कि अदृश्य शक्तियों से टकराव भी है। जब कोई सत्य की ओर बढ़ता है, तो कुछ बाधाएँ उसका मार्ग रोकने लगती हैं—अचानक उत्पन्न भय, असहनीय वासनाएँ, तीव्र क्रोध, या ध्यान में अवरोध। हर परंपरा में आत्मरक्षा के लिए विशेष मंत्र रहे हैं, और बौद्ध संघ में यह भूमिका आटानाटिय सुत्त निभाता है।
यह रक्षासूत्र यक्षराज कुबेर ने बुद्ध को अर्पित किया, यह कहते हुए कि अनेक अदृश्य शक्तियाँ धर्म के विरोध में हैं और साधकों को बाधित कर सकती हैं। इस सुत्त में बुद्ध, धम्म और संघ की महिमा के साथ महायक्षों और देवताओं के नाम हैं, जिनके स्मरण से नकारात्मक शक्तियाँ अनुशासित होती हैं। फिर भी, कुछ असभ्य सत्व होते हैं, जिन्हें नियंत्रित करने के लिए महायक्षों को पुकारना पड़ता है, जैसे प्रहरी या रक्षक। गृहस्थ और साधक इसे सुरक्षा, शांति और बाधाओं से मुक्ति के लिए पढ़ सकते हैं।
एवं मे सुतं — एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते।
अथ खो चत्तारो महाराजा महतिया च यक्खसेनाय महतिया च गन्धब्बसेनाय महतिया च कुम्भण्डसेनाय महतिया च नागसेनाय चतुद्दिसं रक्खं ठपेत्वा चतुद्दिसं गुम्बं ठपेत्वा चतुद्दिसं ओवरणं ठपेत्वा अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णा केवलकप्पं गिज्झकूटं पब्बतं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङकमिंसु; उपसङकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु।
तेपि खो यक्खा अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु।
एकमन्तं निसिन्नो खो वेस्सवणो महाराजा भगवन्तं एतदवोच –
“सन्ति हि, भन्ते, उळारा यक्खा भगवतो अप्पसन्ना। सन्ति हि, भन्ते, उळारा यक्खा भगवतो पसन्ना। सन्ति हि, भन्ते, मज्झिमा यक्खा भगवतो अप्पसन्ना। सन्ति हि, भन्ते, मज्झिमा यक्खा भगवतो पसन्ना। सन्ति हि, भन्ते, नीचा यक्खा भगवतो अप्पसन्ना। सन्ति हि, भन्ते, नीचा यक्खा भगवतो पसन्ना। येभुय्येन खो पन, भन्ते, यक्खा अप्पसन्नायेव भगवतो। तं किस्स हेतु?
भगवा हि, भन्ते, पाणातिपाता वेरमणिया धम्मं देसेति, अदिन्नादाना वेरमणिया धम्मं देसेति, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणिया धम्मं देसेति, मुसावादा वेरमणिया धम्मं देसेति, सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना वेरमणिया धम्मं देसेति। येभुय्येन खो पन, भन्ते, यक्खा अप्पटिविरतायेव पाणातिपाता, अप्पटिविरता अदिन्नादाना, अप्पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा, अप्पटिविरता मुसावादा, अप्पटिविरता सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना। तेसं तं होति अप्पियं अमनापं।
सन्ति हि, भन्ते, भगवतो सावका अरञ्ञवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवन्ति अप्पसद्दानि अप्पनिग्घोसानि विजनवातानि मनुस्सराहस्सेय्यकानि पटिसल्लानसारुप्पानि। तत्थ सन्ति उळारा यक्खा निवासिनो, ये इमस्मिं भगवतो पावचने अप्पसन्ना। तेसं पसादाय उग्गण्हातु, भन्ते, भगवा आटानाटियं रक्खं भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराया”ति।”
अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन।
अथ खो वेस्सवणो महाराजा भगवतो अधिवासनं विदित्वा तायं वेलायं इमं आटानाटियं रक्खं अभासि –
अयं खो सा, मारिस, आटानाटिया रक्खा भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराय।
यस्स कस्सचि, मारिस, भिक्खुस्स वा भिक्खुनिया वा उपासकस्स वा उपासिकाय वा अयं आटानाटिया रक्खा सुग्गहिता भविस्सति समत्ता परियापुटा।
तं चे अमनुस्सो
• यक्खो वा यक्खिनी वा यक्खपोतको वा यक्खपोतिका वा यक्खमहामत्तो वा यक्खपारिसज्जो वा यक्खपचारो वा,
• गन्धब्बो वा गन्धब्बी वा गन्धब्बपोतको वा गन्धब्बपोतिका वा गन्धब्बमहामत्तो वा गन्धब्बपारिसज्जो वा गन्धब्बपचारो वा,
• कुम्भण्डो वा कुम्भण्डी वा कुम्भण्डपोतको वा कुम्भण्डपोतिका वा कुम्भण्डमहामत्तो वा कुम्भण्डपारिसज्जो वा कुम्भण्डपचारो वा,
• नागो वा नागी वा नागपोतको वा नागपोतिका वा नागमहामत्तो वा नागपारिसज्जो वा नागपचारो वा, पदुट्ठचित्तो भिक्खुं वा भिक्खुनिं वा उपासकं वा उपासिकं वा गच्छन्तं वा अनुगच्छेय्य, ठितं वा उपतिट्ठेय्य, निसिन्नं वा उपनिसीदेय्य, निपन्नं वा उपनिपज्जेय्य।
न मे सो, मारिस, अमनुस्सो लभेय्य गामेसु वा निगमेसु वा सक्कारं वा गरुकारं वा। न मे सो, मारिस, अमनुस्सो लभेय्य आळकमन्दाय नाम राजधानिया वत्थुं वा वासं वा। न मे सो, मारिस, अमनुस्सो लभेय्य यक्खानं समितिं गन्तुं। अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा अनावय्हम्पि नं करेय्युं अविवय्हं। अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा अत्ताहिपि परिपुण्णाहि परिभासाहि परिभासेय्युं। अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा रित्तंपिस्स पत्तं सीसे निक्कुज्जेय्युं। अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा सत्तधापिस्स मुद्धं फालेय्युं।
सन्ति हि, मारिस, अमनुस्सा चण्डा रुद्धा रभसा, ते नेव महाराजानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं पुरिसकानं आदियन्ति। ते खो ते, मारिस, अमनुस्सा महाराजानं अवरुद्धा नाम वुच्चन्ति।
सेय्यथापि, मारिस, रञ्ञो मागधस्स विजिते महाचोरा। ते नेव रञ्ञो मागधस्स आदियन्ति, न रञ्ञो मागधस्स पुरिसकानं आदियन्ति, न रञ्ञो मागधस्स पुरिसकानं पुरिसकानं आदियन्ति। ते खो ते, मारिस, महाचोरा रञ्ञो मागधस्स अवरुद्धा नाम वुच्चन्ति।
एवमेव खो, मारिस, सन्ति अमनुस्सा चण्डा रुद्धा रभसा, ते नेव महाराजानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं पुरिसकानं आदियन्ति। ते खो ते, मारिस, अमनुस्सा महाराजानं अवरुद्धा नाम वुच्चन्ति।
यो हि कोचि, मारिस, अमनुस्सो
• यक्खो वा यक्खिनी वा यक्खपोतको वा यक्खपोतिका वा यक्खमहामत्तो वा यक्खपारिसज्जो वा यक्खपचारो वा,
• गन्धब्बो वा गन्धब्बी वा गन्धब्बपोतको वा गन्धब्बपोतिका वा गन्धब्बमहामत्तो वा गन्धब्बपारिसज्जो वा गन्धब्बपचारो वा,
• कुम्भण्डो वा कुम्भण्डी वा कुम्भण्डपोतको वा कुम्भण्डपोतिका वा कुम्भण्डमहामत्तो वा कुम्भण्डपारिसज्जो वा कुम्भण्डपचारो वा,
• नागो वा नागी वा नागपोतको वा नागपोतिका वा नागमहामत्तो वा नागपारिसज्जो वा नागपचारो वा पदुट्ठचित्तो भिक्खुं वा भिक्खुनिं वा उपासकं वा उपासिकं वा गच्छन्तं वा अनुगच्छेय्य, ठितं वा उपतिट्ठेय्य, निसिन्नं वा उपनिसीदेय्य, निपन्नं वा उपनिपज्जेय्य।
इमेसं यक्खानं महायक्खानं सेनापतीनं महासेनापतीनं उज्झापेतब्बं विक्कन्दितब्बं विरवितब्बं – ‘अयं यक्खो गण्हाति, अयं यक्खो आविसति, अयं यक्खो हेठेति, अयं यक्खो विहेठेति, अयं यक्खो हिंसति, अयं यक्खो विहिंसति, अयं यक्खो न मुञ्चती’ति।
कतमेसं यक्खानं महायक्खानं सेनापतीनं महासेनापतीनं?
इमेसं यक्खानं महायक्खानं सेनापतीनं महासेनापतीनं उज्झापेतब्बं विक्कन्दितब्बं विरवितब्बं – ‘अयं यक्खो गण्हाति, अयं यक्खो आविसति, अयं यक्खो हेठेति, अयं यक्खो विहेठेति, अयं यक्खो हिंसति, अयं यक्खो विहिंसति, अयं यक्खो न मुञ्चती’ति।
अयं खो सा, मारिस, आटानाटिया रक्खा भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराय। हन्द च दानि मयं, मारिस, गच्छाम बहुकिच्चा मयं बहुकरणीयाति।”
“यस्सदानि तुम्हे महाराजानो कालं मञ्ञथाति।”
अथ खो चत्तारो महाराजा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु। तेपि खो यक्खा उट्ठायासना अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु। अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु। अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु। अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु। अप्पेकच्चे तुण्हीभूता तत्थेवन्तरधायिंसूति।
अथ खो भगवा तस्सा रत्तिया अच्चयेन भिक्खू आमन्तेसि –
“उग्गण्हाथ, भिक्खवे, आटानाटियं रक्खं।
परियापुणाथ, भिक्खवे, आटानाटियं रक्खं।
धारेथ, भिक्खवे, आटानाटियं रक्खं।
अत्थसंहिता, भिक्खवे, आटानाटिया रक्खा भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहारायाति।”
इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।
एतेन सच्चवज्जेन सोत्थि ते होतु सब्बदा!
एतेन सच्चवज्जेन सब्ब दुक्खा, सब्ब भया,
सब्ब रोगा, सब्ब अन्तरायो, सब्ब उपद्दवा विनस्सतु!
एतेन सच्चवज्जेन होतु नो जयमङ्गलं! )
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के गृद्धकूट पर्वत पर विहार कर रहे थे। तब चारों देव महाराज यक्षों की विराट सेना लेकर, गंधब्बों की विराट सेना लेकर, कुंभण्डों की विराट सेना लेकर, और नागों की विराट सेना लेकर, चारों दिशाओं में रक्षकों को तैनात कर, चारों दिशाओं में टुकड़ियों को तैनात कर, चारों दिशाओं को घेरकर, अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण गृद्धकूट पर्वत को रौशन करते हुए भगवान के पास गए, और अभिवादन कर भगवान की एक-ओर बैठ गए।
[उनके पीछे] कुछ यक्षों ने भगवान को अभिवादन किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ने भगवान से नम्रतापूर्ण वार्तालाप किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ने हाथ जोड़कर अंजलिबद्ध वंदन किया, और एक-ओर बैठ गए। किसी ने भगवान को अपना नाम-गोत्र बताया, और एक-ओर बैठ गए। और कोई चुपचाप ही एक-ओर बैठ गए।
एक ओर बैठकर [यक्षों के] महाराज वेस्सवण [=वैष्णव, कुबेर] ने भगवान से कहा, “भंते, ऐसे कई बड़े [=ऊँचे-स्तर के, शक्तिशाली] यक्ष हैं, जिन्हें भगवान पर आस्था नहीं हैं। किन्तु, ऐसे कई बड़े यक्ष हैं, जिन्हें भगवान पर आस्था हैं। ऐसे कई मध्यम [स्तर के] यक्ष हैं, जिन्हें भगवान पर आस्था नहीं हैं। किन्तु, ऐसे कई मध्यम यक्ष हैं, जिन्हें भगवान पर आस्था हैं। और, ऐसे कई नीच [=निम्न स्तर के] यक्ष हैं, जिन्हें भगवान पर आस्था नहीं हैं। किन्तु, ऐसे कई नीच यक्ष हैं, जिन्हें भगवान पर आस्था हैं। भंते, ज़्यादातर यक्षों को भगवान पर आस्था नहीं हैं। ऐसा क्यों?
क्योंकि, भंते, भगवान जीवहत्या से विरत होने का धर्म बताते हैं, चुराने से विरत होने का धर्म बताते हैं, व्यभिचार से विरत होने का धर्म बताते हैं, झूठ बोलने से विरत होने का धर्म बताते हैं, शराब, मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत होने का धर्म बताते हैं। किन्तु, भंते, ज़्यादातर यक्ष जीवहत्या से विरत नहीं होते, चुराने से विरत नहीं होते, व्यभिचार से विरत नहीं होते, झूठ बोलने से विरत नहीं होते, शराब, मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत नहीं होते हैं। तब उनके लिए ऐसा [सुनना] अप्रिय और नापसंद होता हैं।
भंते, भगवान के श्रावक भीड़ से दूर, मानव-बस्ती से दूर, शोर-शराबे से दूर, जंगल या निर्जन वन में शान्त एकान्तवास लेते हैं। वहाँ ऐसे बड़े यक्ष वास करते हैं, जिन्हें भगवान के प्रवचन पर आस्था नहीं हैं। तो, भंते, भगवान उन भिक्षु, भिक्षुणियों, उपासक, उपासिकाओं की रक्षा के लिए, बचाव के लिए, सुरक्षा के लिए, राहत से विहार करने के लिए “आटानाटिय रक्षामंत्र” से उन्हें विश्वास प्रदान करे।”
भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी।
तब, भगवान की स्वीकृति जान कर, वेस्सवण महाराज ने आटानाटिय रक्षामंत्र का पठन किया:
“यही “आटानाटिय रक्षामंत्र” है, महाशय, भिक्षु, भिक्षुणियों, उपासक, उपासिकाओं की रक्षा के लिए, बचाव के लिए, सुरक्षा के लिए, राहत से विहार करने के लिए। इसी आटानाटिय रक्षामंत्र को भिक्षु, भिक्षुणियों, उपासक, उपासिकाओं ने अच्छे से ग्रहण करना चाहिए और पूरी तरह याद करना चाहिए।
कोई भी अमनुष्य, चाहे वह यक्ष, यक्षिणी, यक्ष पुत्र, यक्ष पुत्री, यक्ष महामंत्री, यक्ष सभासद, या यक्ष सेवक हो; अथवा गंधब्ब, गंधब्बी, गंधब्ब पुत्र, गंधब्ब पुत्री, गंधब्ब महामंत्री, गंधब्ब सभासद, या गंधब्ब सेवक हो; अथवा कुंभण्ड, कुंभण्डी, कुंभण्ड पुत्र, कुंभण्ड पुत्री, कुंभण्ड महामंत्री, कुंभण्ड सभासद, या कुंभण्ड सेवक हो; अथवा नाग, नागिन, नाग पुत्र, नाग पुत्री, नाग महामंत्री, नाग सभासद, या नाग सेवक हो — यदि वह दूषित चित्त से किसी भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, या उपासिका के चलते हुए, खड़े रहते, बैठते, या लेटे हुए, उनके पास आएगा, तो वह अमनुष्य गाँव या निगम में आदर-सत्कार नहीं पाएगा। न ही वह अमनुष्य मेरी आळकमन्दा राजधानी में आधार या निवास पाएगा। न ही वह अमनुष्य यक्षों की बैठक में जा पाएगा। ऊपर से, महाशय, बाकी अमनुष्य उसके साथ आवाह-विवाह नहीं करेंगे। ऊपर से, बाकी अमनुष्य उसे निजी तौर पर अच्छे से गाली-गलौच करेंगे। ऊपर से, बाकी अमनुष्य उसके सिर को खाली बर्तन से ढ़क देंगे। और ऊपर से, बाकी अमनुष्य उसके सिर को सात टुकड़ों में फाड़ देंगे।
ऐसे अमनुष्य हैं, महाशय, जो चण्ड, क्रूर, और हिंसक स्वभाव के हैं । वे न तो महाराजाओं की आज्ञा मानते हैं, न महाराजाओं के अधिकारियों की आज्ञा मानते हैं, और न महाराजाओं के अधिकारियों के अधिकारियों की बात ही मानते हैं। महाशय, उन अमनुष्यों को महाराजाओं के बागी कहा जाता हैं। जैसे मगध के राज्य में डाकू होते हैं, जो न मगधराज की आज्ञा मानते हैं, न मगधराज के अधिकारियों की आज्ञा मानते हैं, और न मगधराज के अधिकारियों के अधिकारियों की बात ही मानते हैं। उन डाकुओं को मगधराज के बागी कहा जाता हैं। ठीक उसी तरह, महाशय, ऐसे अमनुष्य हैं, जो चण्ड, क्रूर, और हिंसक स्वभाव के हैं… [जिन्हें] बागी कहा जाता हैं।
यदि कोई भी अमनुष्य, चाहे वह यक्ष, यक्षिणी… गंधब्ब, गंधब्बी… कुंभण्ड, कुंभण्डी… या नाग, नागिन हो — दूषित चित्त से किसी भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, या उपासिका के चलते हुए, खड़े रहते, बैठते, या लेटे हुए, उनके पास आए, तो पुकार कर, चीख कर, चिल्ला कर यक्षों, महायक्षों, सेनापतियों और महासेनापतियों को बुलाएँ, “ये यक्ष मुझे पकड़ता है… ये यक्ष मेरे भीतर प्रवेश करता है… ये यक्ष मुझे सताता है… ये यक्ष मुझे परेशान करता है… ये यक्ष मेरे पर हिंसा करता है… ये यक्ष मुझे आघात करता है… ये यक्ष मुझे छोड़ता नहीं है!”
कौन से यक्षों, महायक्षों, सेनापतियों और महासेनापतियों को बुलाएँ?
इन यक्षों, महायक्षों, सेनापतियों और महासेनापतियों को पुकार कर, चीख कर, चिल्ला कर बुलाएँ, “ये यक्ष मुझे पकड़ता है… ये यक्ष मेरे भीतर प्रवेश करता है… ये यक्ष मुझे सताता है… ये यक्ष मुझे परेशान करता है… ये यक्ष मेरे पर हिंसा करता है… ये यक्ष मुझे आघात करता है… ये यक्ष मुझे छोड़ता नहीं है!”
महाशय, यही आटानाटिय रक्षामंत्र भिक्षु, भिक्षुणियों, उपासक, उपासिकाओं की रक्षा के लिए, बचाव के लिए, सुरक्षा के लिए, राहत से विहार करने के लिए है।
तब ठीक है, महाशय! तब आपकी अनुमति चाहता हूँ। बहुत कर्तव्य हैं हमारे। बहुत जिम्मेदारियाँ हैं।”
“तब, महाराजाओं, जिसका उचित समय समझें!”
तब चारों महाराज देवता आसन से उठ, भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा करते हुए विलुप्त हुए। उनके पीछे कुछ यक्षों ने भगवान को अभिवादन किया, और प्रदक्षिणा करते हुए विलुप्त हुए। कुछ ने भगवान से नम्रतापूर्ण वार्तालाप कर विलुप्त हुए। कुछ ने भगवान को हाथ जोड़कर अंजलिबद्ध वंदन कर विलुप्त हुए। किसी ने भगवान को अपना नाम-गोत्र बताकर विलुप्त हुए। और कोई चुपचाप ही विलुप्त हुए।
तब भगवान ने रात बीतने पर भिक्षुओं को आमंत्रित किया, [और सब कुछ ज्यों-का-त्यों सुना दिया], “भिक्षुओं, आटानाटिय रक्षामंत्र को अच्छे से ग्रहण करो। आटानाटिय रक्षामंत्र को अच्छे से याद करो। आटानाटिय रक्षामंत्र को अच्छे से धारण करो। यह आटानाटिय रक्षामंत्र भिक्षु, भिक्षुणियों, उपासक, उपासिकाओं की रक्षा के लिए, बचाव के लिए, सुरक्षा के लिए, राहत से विहार करने के लिए है।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
इस सत्यवचन से सबका भला हो!
इस सत्यवचन से सभी दुःख, सभी ख़तरे,
सभी रोग, सभी बाधाएँ, सभी उपद्रव नष्ट हो!
इस सत्यवचन से सभी का जयमंगल हो! )