नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्त

यह वह महान सुत्त है, जिसे बुद्ध ने संबोधि प्राप्ति के बाद प्रथम पाँच भिक्षुओं को सुनाया, जिससे संसार में धम्मचक्क प्रवर्तित हुआ। इसमें मध्यम मार्ग, चार आर्यसत्य और आर्य अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया गया है, जो अज्ञान को दूर कर सम्यक दृष्टि और प्रज्ञा को प्रोत्साहित करता है। कहा जाता है कि यह देवताओं का प्रियतम सुत्त है। आज भी इसका पाठ सत्य की अनुभूति और बोधिसुख के स्पंदन के लिए किया जाता है।

📢 धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्तपाठ

Sutra

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स।
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स।
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स।

एवं मे सुतं‌ — एकं समयं भगवा बाराणसियं विहरति इसिपतने मिगदाये। तत्र खो भगवा पञ्चवग्गिये भिक्खू आमन्तेसि।

“द्वेमे, भिक्खवे, अन्ता पब्बजितेन न सेवितब्बा। यो चायं कामेसु कामसुखल्लिकानुयोगो हीनो गम्मो पोथुज्जनिको अनरियो अनत्थसंहितो, यो चायं अत्तकिलमथानुयोगो दुक्खो अनरियो अनत्थसंहितो।

एते खो, भिक्खवे, उभो अन्ते अनुपगम्म, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा, चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति।

कतमा च सा, भिक्खवे, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा, चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति? अयमेव अरियो अट्ठङगिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि, सम्मासङकप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्मााजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति, सम्मासमाधि। अयं खो सा, भिक्खवे, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा, चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति।

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं। जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, ब्याधिपि दुक्खो, मरणम्पि दुक्खं, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं। संखित्तेन, पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खा।

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं। यायं तण्हा पोनोब्भविका नन्दिरागसहगता तत्रतत्राभिनन्दिनी, सेय्यथिदं – कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा।

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधं अरियसच्चं। यो तस्सा येव तण्हाय असेसविरागनिरोधो, चागो, पटिनिस्सग्गो, मुत्ति, अनालयो।

इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं। अयमेव अरियो अट्ठङगिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि, सम्मासङकप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्मााजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति, सम्मासमाधि।

इदं दुक्खं अरियसच्चन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि , आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खं अरियसच्चं परिञ्ञेय्यन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खं अरियसच्चं परिञ्ञातन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।

इदं दुक्खसमुदयं अरियसच्चन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खसमुदयं अरियसच्चं पहातब्बन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खसमुदयं अरियसच्चं पहीनन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।

इदं दुक्खनिरोधं अरियसच्चन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खनिरोधं अरियसच्चं सच्छिकातब्बन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खनिरोधं अरियसच्चं सच्छिकतन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।

इदं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं भावेतब्बन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं भावितन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।

यावकीवञ्च मे, भिक्खवे, इमेसु चतूसु अरियसच्चेसु एवं तिपरिवट्टं द्वादसाकारं यथाभूतं ञाणदस्सनं न सुविसुद्धं अहोसि, नेव तावाहं, भिक्खवे, सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धोति पच्चञ्ञासिं। यतो च खो मे, भिक्खवे, इमेसु चतूसु अरियसच्चेसु एवं तिपरिवट्टं द्वादसाकारं यथाभूतं ञाणदस्सनं सुविसुद्धं अहोसि, अथाहं, भिक्खवे, सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धोति पच्चञ्ञासिं।

ञाणञ्च पन मे दस्सनं उदपादि – अकुप्पा मे विमुत्ति, अयमन्तिमा जाति, नत्थि दानि पुनब्भवो”ति।” इदमवोच भगवा अत्तमना पञ्चवग्गिया भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।

इमस्मिञ्च पन वेय्याकरणस्मिं भञ्ञमाने आयस्मतो कोण्डञ्ञस्स विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – “यं किञ्चि समुदयधम्मं सब्बं तं निरोधधम्म”न्ति।

पवत्तिते च पन भगवता धम्मचक्के, भुम्मा देवा सद्दमनुस्सावेसुं – “एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं, अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि”न्ति।”

भुम्मानं देवानं सद्दं सुत्वा चातुमहाराजिका देवा सद्दमनुस्सावेसुं – “एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि”न्ति।

चातुमहाराजिकानं देवानं सद्दं सुत्वा तावतिंसा देवासद्दमनुस्सावेसुं – “एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि”न्ति।

तावतिंसानं देवानं सद्दं सुत्वा यामा देवासद्दमनुस्सावेसुं – “एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि”न्ति।

यामानं देवानं सद्दं सुत्वा तुसिता देवासद्दमनुस्सावेसुं – “एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि”न्ति।

तुसितानं देवानं सद्दं सुत्वा निम्मानरती देवा सद्दमनुस्सावेसुं – “एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि”न्ति।

निम्मानरतीनं देवानं सद्दं सुत्वा परनिम्मितवसवत्ती देवा सद्दमनुस्सावेसुं – “एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि”न्ति।

परनिम्मितवसवत्तीनं देवानं सद्दं सुत्वा ब्रह्मकायिका देवा सद्दमनुस्सावेसुं – “एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि”न्ति।

इतिह, तेन खणेन, तेन लयेन तेन मुहुत्तेन याव ब्रह्मलोका सद्दो अब्भुग्गच्छि। अयञ्च दससहस्सिलोकधातु संकम्पि सम्पकम्पि सम्पवेधि; अप्पमाणो च उळारो ओभासो लोके पातुरहोसि, अतिक्कम्म देवानं देवानुभावं।

अथ खो भगवा इमं उदानं उदानेसि – “अञ्ञासि वत, भो कोण्डञ्ञो, अञ्ञासि वत भो कोण्डञ्ञो”ति।” इति हिदं आयस्मतो कोण्डञ्ञस्स ‘अञ्ञासिकोण्डञ्ञो’ त्वेव नामं अहोसि’ति।


( सूत्र समाप्त )


( ऐच्छिक सत्यक्रिया और अनुमोदन:
एतेन सच्चवज्जेन सोत्थि ते होतु सब्बदा!
एतेन सच्चवज्जेन सब्ब दुक्खा, सब्ब भया,
सब्ब रोगा, सब्ब अन्तरायो, सब्ब उपद्दवा विनस्सतु!
एतेन सच्चवज्जेन होतु नो जयमङ्गलं! )

Hindi

उन भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को नमन है।
उन भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को नमन है।
उन भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को नमन है।

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान वाराणसी में ऋषिपतन मृगवन में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को संबोधित किया।

“दो छोर हैं, भिक्षुओं, जिन्हें प्रवज्जित ने ग्रहण नहीं करना चाहिए। कौन-से दो? ये कामुकता के मारे कामसुख से जुड़ने का जो हीन, देहाती, जन-साधारण, अनार्य, और अनर्थकारी छोर है। और, ये आत्मपीड़ा से जुड़ने का जो दुखदायी, अनार्य, और अनर्थकारी छोर है।

ये दोनों ही छोर टालकर, भिक्षुओं, तथागत ने मध्यम-मार्ग के द्वारा संबोधि प्राप्त की, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है। और, ये मध्यम-मार्ग क्या है, जिसके द्वारा तथागत ने संबोधि प्राप्त की, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है?

बस, यही आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि। ये ही मध्यम-मार्ग है, जिसके द्वारा तथागत ने संबोधि प्राप्त की, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है।

और, भिक्षुओं, यह दुःख आर्यसत्य है। जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, बीमारी दुःख है, मौत दुःख है। अप्रिय से जुड़ाव दुःख है, प्रिय से अलगाव दुःख है। इच्छापूर्ति न होना दुःख है। संक्षिप्त में, पाँच उपादानस्कंध (=आसक्ति संग्रह) दुःख हैं।

और, भिक्षुओं, यह दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य है — यह तृष्णा, जो पुनः पुनः बनाती है, मज़ा और दिलचस्पी के साथ आती है, यहाँ-वहाँ लुत्फ़ उठाती है। अर्थात काम तृष्णा, भव तृष्णा, और विभव तृष्णा।

और, भिक्षुओं, यह दुःख का अन्त आर्यसत्य है — उस तृष्णा का अशेष विराग होना, निरोध होना, त्याग दिया जाना, संन्यास लिया जाना, मुक्ति होना, आश्रय छूट जाना।

और, भिक्षुओं, यह दुःख का अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य है — बस यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि।

‘यह दुःख आर्यसत्य है।’ इस पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ। ‘इस दुःख आर्यसत्य को पूर्णतः (अंतिम छोर तक) पता करना है’… ‘इस दुःख आर्यसत्य को पूर्णतः जान लिया गया’ — ये पहले कभी न सुने धर्मों के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।

‘यह दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य है’… ‘इस दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य को पूर्णतः त्याग देना है’… ‘इस दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य को पूर्णतः त्याग दिया गया’ — ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।

‘यह दुःख का अन्त आर्यसत्य है’… ‘इस दुःख के अन्त आर्यसत्य का साक्षात्कार करना है’… ‘इस दुःख के अन्त आर्यसत्य का साक्षात्कार कर लिया गया।’ — ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।

‘यह दुःख का अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य है’… ‘इस दुःख के अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य की साधना करना है’… ‘इस दुःख के अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य की साधना कर ली गई।’ — ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।

जब तक, भिक्षुओं, मैंने इन चार आर्यसत्यों को तीन चरणों में बारह प्रकारों से अपने ज्ञान-दर्शन को शुद्ध नहीं किया, तब तक मैंने इस लोक में, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरा हुआ है, सर्वोत्तर सम्यक-सम्बोधि का दावा नहीं किया। किन्तु, जब मैंने इन चार आर्यसत्यों को तीन चरणों में बारह प्रकारों से अपने ज्ञान-दर्शन को शुद्ध कर लिया, तब तक मैंने इस लोक में, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरा हुआ है, सर्वोत्तर सम्यक-सम्बोधि का दावा किया। और तब मुझे ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ, “मेरी विमुक्ति अचल है, यह मेरा अंतिम जन्म है, अब आगे पुनरुत्पत्ति नहीं है!”

भगवान ने ऐसा कहा। प्रसन्न होकर, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान के उपदेश का अभिनन्दन किया।

और जब यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा था, तब आयुष्मान कोण्डञ्ञ को धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

जब भगवान ने धर्मचक्र प्रवर्तित किया, तब भूमि देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण, या ब्राह्मण, या देवता, या मार, या ब्रह्म, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”

भूमि देवताओं की घोषणाएँ सुनकर चार महाराज देवताओं ने आवेश में आकर घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण, या ब्राह्मण, या देवता, या मार, या ब्रह्म, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”

चार महाराज देवताओं की घोषणाएँ सुनकर तैतीस देवताओं ने आवेश में आकर घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण से, या ब्राह्मण से, या देवता से, या मार से, या ब्रह्म से, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”

तैतीस देवताओं की घोषणाएँ सुनकर याम देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी… याम देवताओं की घोषणाएँ सुनकर तुषित देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी… तुषित देवताओं की घोषणाएँ सुनकर निर्माणरति देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी… निर्माणरति देवताओं की घोषणाएँ सुनकर परनिर्मित वशवर्ती देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी… परनिर्मित वशवर्ती देवताओं की घोषणाएँ सुनकर ब्रह्म कायिक देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण से, या ब्राह्मण से, या देवता से, या मार से, या ब्रह्म से, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”

उसी क्षण, उसी पल, उसी मुहूर्त में यह ख़बर ब्रह्मलोक तक फैल गयी। तब दस हजार ब्रह्मांड कंपित हुए, प्रकंपित हुए, थरथराएँ। और, एक असीम और शानदार उजाला इस लोक में प्रकट हुआ, जो देवताओं की शक्तिशाली प्रभा से आगे निकल गया।

तब भगवान यह उदात्त बोल पड़े, “कोण्डञ्ञ समझ गया! कोण्डञ्ञ वाकई समझ गया!” तब से आयुष्मान कोण्डञ्ञ का नाम ‘कोण्डञ्ञ समझ गया’ पड़ा।

( सूत्र समाप्त )


( ऐच्छिक सत्यक्रिया और अनुमोदन:
इस सत्यवचन से सबका भला हो!
इस सत्यवचन से सभी दुःख, सभी ख़तरे,
सभी रोग, सभी बाधाएँ, सभी उपद्रव नष्ट हो!
इस सत्यवचन से सभी का जयमंगल हो! )


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