नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

करणीयमेत्त सुत्त

जो व्यक्ति शांति और मुक्ति चाहता है, उसे अपने चित्त से कैसे आचरण करना चाहिए, भगवान इसमें बताते हैं। इसमें सभी जीवों के प्रति असीमित सद्भावना विकसित करने की सीख दी गई है। यह सुत्त मन की अशांति, द्वेष और भय को दूर कर सौहार्द और आंतरिक शांति को बढ़ाता है। इसका पाठ अदृश्य सत्वों से सुरक्षा और विश्वकल्याण के लिए भी किया जाता है।

📢 करणीयमेत्त सुत्तपाठ

Sutra

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स।
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स।
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स।

करणीयमत्थ कुसलेन, यन्तं सन्तं पदं अभिसमेच्च।
सक्को उजू च सूजू च, सुवचो चस्स मुदु अनतिमानी।

सन्तुस्सको च सुभरो च, अप्पकिच्चो च सल्लहुकवुत्ति।
सन्तिन्द्रियो च निपको च, अप्पगब्भो कुलेसु अननुगिद्धो।

न च खुद्दं समाचरे किञ्चि, येन विञ्ञूं परें उपवदेय्युं।
सुखिनो वा खेमिनो होन्तु, सब्बे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता।

ये केचि पाणभूतत्थि, तसा वा थावरा वा अनवसेसा।
दीघा वा ये महन्ता वा, मज्झिमा रस्सकाणुकथूला।

दिट्ठा वा ये वा अदिट्ठा, ये च दूरे वसन्ति अविदूरे।
भूता वा सम्भवेसी वा, सब्बे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता।

न परो परं निकुब्बेथ, नातिमञ्ञे थ कत्थचि नं किञ्चि।
ब्यारोसना पटिघसञ्ञा, नाञ्ञमञ्ञस्स दुक्खमिच्छेय्य।

माता यथा नियं पुत्तं, आयुसा एकपुत्त मनुरक्खे।
एवम्पि सब्ब-भुतेसु, मानसं भावये अपरिमाणं।

मेत्तञ्च सब्ब-लोकस्मिं, मानसं भावये अपरिमाणं।
उद्धं अधो च तिरियञ्च, असम्बाधं अवेरं असपत्तं।

तिट्ठं चरं निसिन्नो वा, सयानो वा यावतस्स विगतमिद्धो।
एतं सतिं अधिट्ठेय्य, ब्रह्ममेतं विहारं इधमाहु।

दिट्ठिं च अनुपगम्म, सीलवा दस्सनेन सम्पन्नो।
कामेसु विनेय्य गेधं, न हि जातु गब्भ सेय्यं पुनरेती’ति।

( सूत्र समाप्त )


( ऐच्छिक सत्यक्रिया और अनुमोदन:
एतेन सच्चवज्जेन सोत्थि ते होतु सब्बदा!
एतेन सच्चवज्जेन सब्ब दुक्खा, सब्ब भया,
सब्ब रोगा, सब्ब अन्तरायो, सब्ब उपद्दवा विनस्सतु!
एतेन सच्चवज्जेन होतु नो जयमङ्गलं! )

Hindi

उन भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को नमन है।
उन भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को नमन है।
उन भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को नमन है।

सक्षम, सीधा एवं स्पष्टवादी हो।
आज्ञाधारक और सौम्य रहें।
अहंकारी न हो।
संतुष्ट एवं सहज पालनयोग्य रहें।
कम ज़िम्मेदारियाँ,
कम रख-रखाव रखें।
शान्तइंद्रियों के साथ
निपुण एवं विनम्र रहें।
[दायक] कुलपरिवारों के प्रति
लालची न रहें।
कदापि ऐसा कृत्य न करें,
जिसे देख बुद्धिमान लोग निंदा करें।

[कामना करें:]
‘सभी सत्व
राहतपूर्ण एवं सुरक्षित होकर
सुखी होएँ!
जो भी प्राणियों का अस्तित्व हो
— दुर्बल या बलवान,
लंबे विशाल मध्यम
छोटे सूक्ष्म या स्थूल,
दृश्य या अदृश्य,
समीप या दूर,
जन्में या जन्म-संभावित —
सभी सत्व सुखी होएँ!
न कोई किसी से धोखाधड़ी करें,
न कही किसी की घृणा करें!
न क्रोधित होकर या चिढ़कर
किसी के प्रति दुःखकामना करें!’

जैसे कोई माता
इकलौते संतान की रक्षा करती है
— उसी तरह सभी सत्वों के प्रति
‘असीम मानस’ की साधना करें!
समस्त दुनिया के प्रति
‘सद्भावनापूर्ण असीम मानस’ की साधना करें!
— ऊपर, नीचे, सभी ओर
बिना बाधा, बिना बैर,
बिना दुर्भावना के
खड़े, चलते,
बैठते, लेटते
जब तक आलस्य न छूटे —

मात्र इसी नज़रिए पर
अधिष्ठान बनाए रखने को
इसी जीवन में
‘ब्रह्मविहार’ करना कहते है।
ऐसा शीलवान
— मिथ्यादृष्टि में न पड़ा,
सम्यकदर्शन-संपन्न,
कामुकता हटाकर
पुनः गर्भ में नहीं पड़ेगा।

( सूत्र समाप्त )


( ऐच्छिक सत्यक्रिया और अनुमोदन:
इस सत्यवचन से सबका भला हो!
इस सत्यवचन से सभी दुःख, सभी ख़तरे,
सभी रोग, सभी बाधाएँ, सभी उपद्रव नष्ट हो!
इस सत्यवचन से सभी का जयमंगल हो! )


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