तिरोकुट्ट सुत्त यह दर्शाता है कि प्रेतलोक के प्राणी अपने जीवित परिजनों से दान और पुण्य की अपेक्षा रखते हैं। इसमें बताया गया है कि वे अदृश्य रूप से घर के आसपास मंडराते हैं, लेकिन यदि उनके नाम पर श्रमणों और ब्राह्मणों को अन्न, जल और दान अर्पित किया जाए, तो वे परोक्ष रूप से इसका लाभ पाते हैं। इससे वे तृप्त और प्रसन्न होते हैं, और कई बार मुक्त भी हो सकते हैं।
इस सुत्त का पाठ पिंडदान और पूर्वजों की स्मृति में किए जाने वाले पुण्य कार्यों के दौरान किया जाता है। यह न केवल मृत पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और करुणा प्रकट करने का एक माध्यम है, बल्कि यह भी सिखाता है कि दान और पुण्य केवल इस लोक तक सीमित नहीं हैं, बल्कि परलोक में भी कल्याणकारी होते हैं, जिससे जीवित और मृत — दोनों लाभान्वित होते हैं।
अदासि मे अकासि मे, ञातिमित्ता सखा च मे
पेतानं दक्खिणं दज्जा, पुब्बे कतमनुस्सरं,
न हि रुण्णं वा सोको वा, या चञ्ञा परिदेवना।
न तं पेतानमत्थाय, एवं तिट्ठन्ति ञातयो,
अयञ्च खो दक्खिणा दिन्ना, सङघम्हि सुप्पतिट्ठिता,
दीघरत्तं हितायस्स, ठानसो उपकप्पति।
सो ञातिधम्मो च अयं निदस्सितो,
पेतान पूजा च कता उळारा।
बलञ्च भिक्खूनमनुप्पदिन्नं, तुम्हेहि पुञ्ञं पसुतं अनप्पकन्ति।