नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय दो

कम्म

~ कर्म का ‘आर्य’ वर्णन ~



विपाक —

सभी सत्व अपने कर्मों के कर्ता «कम्मस्सको» हैं। अपने कर्मों के वारिस «कम्मदायादो» हैं। अपने कर्मों से योनि «कम्मयोनि» पाते हैं। अपने कर्मों द्वारा संबंधी «कम्मबन्धु» हैं। अपने कर्मों पर निर्भर «कम्मप्पटिसरणो» हैं। वह जो भी कर्म करेंगे — कल्याणकारी या पापपूर्ण — उसी के वारिस बनेंगे।


(१) ऐसा होता है कि कोई स्त्री या पुरुष हत्यारे होते है—निर्दयी, रक्त से सने हाथ, हिंसक, क्रूर, जीवों के प्रति निष्ठुर। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक «अपाय», दुर्गति, नीचे यातनालोक «विनिपात», नरक «निरय» में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, अल्प-आयु के होते हैं।

— यह [जीवहत्या] अल्पायु की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ «पटिपदा» है।


किंतु कोई स्त्री या पुरुष हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है—डंडा व शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला व दयावान, समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग «सग्ग» में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, दीर्घ-आयु के होते हैं।

— यह [जीवहत्या से विरत रहना] दीर्घायु की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।


(२) कोई स्त्री या पुरुष ‘हाथ पत्थर डंडा या चाकू’ से प्राणी को चोट पहुँचाने का आदी होता है। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, बड़े रोगी होते हैं।

— यह [चोट पहुँचाना] बड़ा रोगी बनने की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।

किंतु कोई स्त्री या पुरुष ‘हाथ पत्थर डंडा या चाकू’ से प्राणी को चोट पहुँचाने का आदी नहीं होता। वे ऐसे [अहिंसात्मक] कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, निरोगी होते हैं।

— यह [चोट पहुँचाना] निरोग की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।


(३) कोई स्त्री या पुरुष गुस्सैल, नाराज़ी भरे स्वभाव के होते हैं—हल्की आलोचना पर भी कुपित, विरोधी व नाराज़ हो जाते है, और खीज, द्वेष व कड़वाहट प्रकट करते हैं। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, कुरूप होते हैं।

— यह [गुस्सा, नाराज़ी] कुरूपता की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।

किंतु कोई स्त्री या पुरुष गुस्सैल, नाराज़ी भरे स्वभाव के नहीं होते—भारी आलोचना होने पर भी कुपित, विरोधी व नाराज़ नहीं होते, या खीज, द्वेष व कड़वाहट प्रकट नहीं करते। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, ख़ूबसूरत होते हैं।

— यह [गुस्सा या नाराज़ न होना] सुन्दरता की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।


(४) कोई स्त्री या पुरुष ईर्ष्यालु स्वभाव के होते हैं—दुसरे को मिलता लाभ सत्कार, आदर सम्मान, वंदन पूजन से जलते हैं, कुढ़ते हैं, ईर्ष्या करते हैं। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, प्रभावहीन होते हैं।

— यह [ईर्ष्यालु स्वभाव] प्रभावहीनता की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।

किंतु कोई स्त्री या पुरुष ईर्ष्यालु स्वभाव के नहीं होते—दुसरे को मिलता लाभ सत्कार, आदर सम्मान, वंदन पूजन से जलते नहीं, कुढ़ते नहीं, ईर्ष्या नहीं करते। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, प्रभावशाली होते हैं।

— यह [ईर्ष्यालु न होना] प्रभावशाली बनने की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।


(५) कोई स्त्री या पुरुष दान नहीं करते—श्रमण या ब्राह्मणों को भोजन पान, वस्त्र वाहन, मालाएँ इत्रगंध लेप, बिस्तर निवास दीपक नहीं देते। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, दरिद्र होते हैं।

— यह [दान न करना] दरिद्रता की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।

किंतु कोई स्त्री या पुरुष दान करते हैं—श्रमण या ब्राह्मणों को भोजन पान, वस्त्र वाहन, मालाएँ इत्रगंध लेप, बिस्तर निवास दीपक देते हैं। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, महासंपत्तिशाली होते हैं।

— यह [दान देना] बड़ी संपत्ति की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।


(६) कोई स्त्री या पुरुष अकड़ू व घमंडी होते हैं—वंदनीय लोगों को वंदन नहीं करते; जिनकी उपस्थिति में खड़े हुआ जाए, उनकी उपस्थिति में खड़े नहीं होते; आसन देने योग्य को आसन नहीं देते; रास्ता छोड़ने योग्य के लिए रास्ता नहीं छोड़ते; सत्कारयोग्य, आदरणीय, सम्माननीय या पूजनीय लोगों का सत्कार आदर सम्मान या पूजा नहीं करते। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, नीच कुल में जन्म पाते हैं।

— यह [अकड व घमंड] नीच कुल में जन्म की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।

किंतु कोई स्त्री या पुरुष अकड़ू व घमंडी नहीं होते—वंदनीय लोगों को वंदन करते; जिनकी उपस्थिति में खड़े हुआ जाए, उनकी उपस्थिति में खड़े होते; आसन देने योग्य को आसन देते; रास्ता छोड़ने योग्य के लिए रास्ता छोड़ते; सत्कारयोग्य, आदरणीय, सम्माननीय या पूजनीय लोगों का सत्कार आदर सम्मान या पूजा करते हैं। वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, ऊँचे कुल में जन्म पाते हैं।

— यह [अकड़ व घमंड न होना] ऊँचे कुल में जन्म की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।


(७) कोई स्त्री या पुरुष जाकर श्रमण या ब्राह्मण को नहीं पूछते—“भन्ते! क्या कुशल होता है? क्या अकुशल होता है? क्या दोषपूर्ण होता है? क्या निर्दोषता होती है? क्या [स्वभाव] विकसित करना चाहिए? क्या विकसित नहीं करना चाहिए? किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन हानि व दुःख की ओर ले जाएँगे? और किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन हित व सुख की ओर ले जाएँगे?” वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, दुर्बुद्धि पाते हैं।

— यह [ज्ञानीजनों को न पूछना] दुर्बुद्धि की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।

किंतु कोई स्त्री या पुरुष जाकर श्रमण या ब्राह्मण को पूछते हैं—“भन्ते! क्या कुशल होता है? क्या अकुशल होता है? क्या दोषपूर्ण होता है? क्या निर्दोषता होती है? क्या [स्वभाव] विकसित करना चाहिए? क्या विकसित नहीं करना चाहिए? किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन हानि व दुःख की ओर ले जाएँगे? और किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन हित व सुख की ओर ले जाएँगे?” वे ऐसे कर्म कर, उपक्रम कर, काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। यदि वे वहाँ न उत्पन्न होकर मनुष्यता में लौटे, तब जहाँ कही पुनर्जन्म हो, सदबुद्धि पाते हैं।

— यह [ज्ञानीजनों को पूछना] सदबुद्धि की ओर ले जानेवाला प्रगतिपथ है।

«मा.नि.१३५»


स्वभाव के पूर्व मन आता है।
मन मालिक है, मन निर्माणकर्ता।

दुष्ट मन से बोलने या करने पर
दुःख ऐसे पीछे पड़ता है
— जैसे बैलगाड़ी के चक्के,
खिंचते बैल के पीछे पड़े।

प्रसन्न मन से बोलने या करने पर
सुख ऐसे साथ चलता है
— जैसे साया, जो साथ न छोड़े।

«धम्मपद १+२»


• भिक्षुओं, जीवहत्या में लिप्त होना, [स्वभाव] विकसित करना, बार-बार करना—नरक ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। जीवहत्या के तमाम [घोर] परिणामों में सबसे हल्का परिणाम, जब मनुष्य-अवस्था में मिले, तब अल्प आयु मिलती है।

चोरी में लिप्त होना, [स्वभाव] विकसित करना, बार-बार करना—नरक ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। चोरी के तमाम [घोर] परिणामों में सबसे हल्का परिणाम, जब मनुष्य-अवस्था में मिले, तब धन-संपत्ति की हानि होती है।

व्यभिचार में लिप्त होना, [स्वभाव] विकसित करना, बार-बार करना—नरक ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। व्यभिचार के तमाम [घोर] परिणामों में सबसे हल्का परिणाम, जब मनुष्य-अवस्था में मिले, तब प्रतिद्वंदिता व बदलाखोरी मिलती है।

झूठ बोलने में लिप्त होना, [स्वभाव] विकसित करना, बार-बार करना—नरक ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। झूठ बोलने के तमाम [घोर] परिणामों में सबसे हल्का परिणाम, जब मनुष्य-अवस्था में मिले, तब मिथ्यारोपण होता है।

फूट डालनेवाले वचन में लिप्त होना, [स्वभाव] विकसित करना, बार-बार करना—नरक ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। फूट डालनेवाले वचन के तमाम [घोर] परिणामों में सबसे हल्का परिणाम, जब मनुष्य-अवस्था में मिले, तब मित्रता टूटती है।

कटु वचन में लिप्त होना, [स्वभाव] विकसित करना, बार-बार करना—नरक ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। कटु वचन के तमाम [घोर] परिणामों में सबसे हल्का परिणाम, जब मनुष्य-अवस्था में मिले, तब नापसंद आवाज़े सुनने मिलती है।

व्यर्थ वचन में लिप्त होना, [स्वभाव] विकसित करना, बार-बार करना—नरक ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। व्यर्थ वचन के तमाम [घोर] परिणामों में सबसे हल्का परिणाम, जब मनुष्य-अवस्था में मिले, तब ह्रदय में न जानेवाली बातें सुनने मिलती है।

कच्ची-पक्की शराब पीने में लिप्त होना, [स्वभाव] विकसित करना, बार-बार करना—नरक ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। शराब पीने के तमाम [घोर] परिणामों में सबसे हल्का परिणाम भी, जब मनुष्य-अवस्था में मिले, तब मन विक्षिप्त [=पागल या मतिमंद] होता है।

«अं.नि.८:४०»


पच्छभूमिक

भगवान, पश्चिमवर्ती इलाके में ब्राह्मण रहते हैं—कमंडलधारी, शैवालमाला पहननेवाले, जलशुद्धि करनेवाले, अग्निपूजा करनेवाले। वे मृत व्यक्ति को उठाकर, निर्देश देकर स्वर्ग तक भेज देते हैं। तब ‘भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ तो ऐसी व्यवस्था निश्चित ही कर सकते होंगे कि—‘संपूर्ण दुनिया’ काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न हो जाए?

अच्छा गृहस्थ, तब मैं तुमसे प्रश्न पूछता हूँ; जैसे ठीक लगे वैसे उत्तर दो। तुम्हें क्या लगता है? ऐसा कोई व्यक्ति हो—जो जीवहत्या, चोरी व व्यभिचार करें; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु व व्यर्थ बातें करें; लालची, दुर्भावनापूर्ण विचार व मिथ्यादृष्टि धारण करें [=दस अकुशल]। तब लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा हो, प्रार्थना व प्रशंसा कर, अंजलिबद्ध हो उसकी परिक्रमा करें [कहते हुए] ‘यह व्यक्ति काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न हो जाए!’ तुम्हें क्या लगता है? क्या लोगों की बड़ी भीड़ के प्रार्थना व प्रशंसा कर अंजलिबद्ध हो परिक्रमा करने से, वह पापी स्वर्ग में उत्पन्न हो जाएगा?

“नहीं, भन्ते!”

कल्पना करो कि कोई पुरुष एक बड़ी चट्टान को गहरे तालाब में डाल दे। तब लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा हो, प्रार्थना व प्रशंसा कर, अंजलिबद्ध हो उसकी परिक्रमा करें [कहते हुए] ‘हे चट्टान, उठो! हे चट्टान, तरंगते हुए ऊपर आओ! हे चट्टान, तैरते हुए किनारे लगो!’ तुम्हें क्या लगता है? क्या लोगों की बड़ी भीड़ के प्रार्थना व प्रशंसा कर अंजलिबद्ध हो परिक्रमा करने से, वह बड़ी चट्टान उठेगी, तरंगते हुए ऊपर आएगी, या तैरते हुए किनारे लगेगी?

“नहीं, भन्ते!”

उसी तरह ऐसा कोई व्यक्ति हो—जो जीवहत्या, चोरी… [दस अकुशल] करें। तब भले ही लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा हो, प्रार्थना व प्रशंसा कर, अंजलिबद्ध हो उसकी परिक्रमा करें [कहते हुए] ‘यह व्यक्ति मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न हो जाए!’ तब भी वह पापी काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में ही उत्पन्न होगा!

किंतु, ऐसा कोई व्यक्ति हो—जो जीवहत्या, चोरी व व्यभिचार से विरत रहे; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु व व्यर्थ बातों से विरत रहे; न लालची, न दुर्भावनापूर्ण विचार, बल्कि सम्यकदृष्टि धारण करें [=दस कुशल]। तब लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा हो, प्रार्थना करते व कोसते हुए, उसकी परिक्रमा करें [कहते हुए] ‘यह व्यक्ति मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न हो जाए!’ तुम्हें क्या लगता है? क्या लोगों के बड़ी भीड़ के प्रार्थना कर, कोसते हुए, परिक्रमा करने से वह पुण्यशाली नरक में उत्पन्न हो जाएगा?

“नहीं, भन्ते!”

कल्पना करो कि कोई पुरुष घी-कुंभ या तेल-कुंभ [=मिट्टी का कलश] को गहरे तालाब में डाल दे, जो भीतर जाकर टूट जाए। कुंभ के ठीकरें नीचे जाए, जबकि घी या तेल ऊपर उठे। तब लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा हो, प्रार्थना करते व कोसते हुए, उसकी परिक्रमा करें [कहते हुए] ‘हे घी तेल, डुब जाओ! हे घी तेल, नीचे चले जाओ! हे घी तेल, भीतर तल पर लगो!’ तुम्हें क्या लगता है? क्या बड़ी भीड़ के प्रार्थना कर कोसते हुए, परिक्रमा करने पर वह घी या तेल गहरे तालाब में डूब जाएगा, नीचे चले जाएगा, भीतर तल पर लगेगा?

“नहीं, भन्ते!”

उसी तरह ऐसा कोई व्यक्ति हो—जो जीवहत्या से विरत, चोरी से विरत… [दस कुशल] करें। तब भले ही लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा हो, प्रार्थना करते व कोसते हुए, उसकी परिक्रमा करें [कहते हुए] ‘यह व्यक्ति मृत्युपरांत दुर्गति, नरक में उत्पन्न हो जाए!’ तब भी वह पुण्यशाली काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में ही उत्पन्न होगा।

«सं.नि.४२:६»


भिक्षुओं, चार तरह के व्यक्ति होते हैं —

(१) ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति जीवहत्या, चोरी व व्यभिचार करता है; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु व व्यर्थ बातें करता है; लालची, दुर्भावनापूर्ण विचार व मिथ्यादृष्टि धारण [=दस अकुशल] करता है। वह काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न होता है।

(२) किंतु ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति जीवहत्या, चोरी… [=दस अकुशल] करता है, वह काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होता है।

(३) ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति जीवहत्या, चोरी व व्यभिचार से विरत रहता है; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु व व्यर्थ बातों से विरत रहता है; न लालची, न दुर्भावनापूर्ण विचार, बल्कि सम्यकदृष्टि धारण [=दस कुशल] करता है। वह काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होता है।

(४) किंतु ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति जीवहत्या से विरत, चोरी से विरत… [=दस कुशल] करता है, वह काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न होता है।

जो [दूसरा] व्यक्ति जीवहत्या, चोरी… [दस अकुशल] करता है, किंतु मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होता है—या तो उसने [दस अकुशल के] पूर्व ‘कल्याणकारी’ कृत्य किए होंगे, या पश्चात ‘कल्याणकारी’ कृत्य किए होंगे, या मृत्यु के समय सम्यकदृष्टी प्राप्त कर धारण कर ली होगी। उस कारण वह मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होता है। और जहाँ तक [दस अकुशल] के कड़वे परिणाम «विपाक» की बात है, वह—या तो उसे अभी यहीं [तुरंत] मिलेगा, या [इसी जन्म में] पश्चात उपजेगा, या तत्पश्चात [अगले जन्म] मिलेगा।

और जो [चतुर्थ] व्यक्ति जीवहत्या से विरत, चोरी से विरत… [दस कुशल] करता है, किंतु मृत्युपरांत दुर्गति, नरक में उत्पन्न होता है—या तो उसने [दस कुशल के] पूर्व ‘पापपूर्ण’ कृत्य किए होंगे, या पश्चात ‘पापपूर्ण’ कृत्य किए होंगे, या मृत्यु के समय मिथ्यादृष्टी में पड़कर, धारण कर ली होगी। उस कारण वह मृत्युपरांत दुर्गति, नरक में उत्पन्न होता है। और जहाँ तक [दस कुशल] के मीठे फ़ल की बात है, वह—या तो उसे अभी यहीं [तुरंत] मिलेगा, या [इसी जन्म में] पश्चात उपजेगा, या तत्पश्चात [अगले जन्म] मिलेगा।

«मा.नि.१३६»


निब्बेधिक —

कर्म पता करना चाहिए। कर्म का सिलसिला क्यों चल पड़ता है, पता करना चाहिए। कर्मों की विविधता पता करनी चाहिए। कर्मों का परिणाम पता करना चाहिए। कर्म का निरोध पता करना चाहिए। कर्म निरोध कराने वाला प्रगतिपथ पता करना चाहिए।

• कर्म क्या है? मैं कहता हूँ भिक्षुओं, इरादा «चेतना» ही कर्म है। इरादतन ही कोई काया वचन व मन से कर्म करता है।

• कर्म का सिलसिला क्यों चल पड़ता है? [इंद्रिय] संपर्क से कर्म का सिलसिला चल पड़ता है।

• कर्मों की विविधता क्या है? कुछ कर्म नरक में महसूस किए जानेवाले होते है। तो कुछ कर्म पशुयोनि में… तो कुछ कर्म प्रेतलोक में… तो कुछ कर्म मनुष्यलोक में… तो कुछ कर्म देवलोक में महसूस किए जानेवाले होते है।

• कर्मों का परिणाम «विपाक» क्या है? मैं कहता हूँ, कर्मों के परिणाम तीन प्रकार के है—जो अभी यहीं [तुरंत] दिख पड़े, या जो [इसी जन्म में] पश्चात उपजे, या तत्पश्चात [अगले जन्म] उत्पन्न हो।

• और कर्म का निरोध क्या है? [इंद्रिय] संपर्क निरोध होने से कर्म का निरोध होता है।

• और कर्म निरोध कराने वाला प्रगतिपथ क्या है? बस यही आर्य अष्टांगिक मार्ग ही कर्म निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है।

जब कोई भिक्षु इस तरह जैसे कर्म हो, वैसे सही पता करता है, कर्म का सिलसिला क्यों चल पड़ता है, सही पता करता है, कर्मों की विविधता सही पता करता है, कर्मों का परिणाम सही पता करता है, कर्म निरोध सही पता करता है, और कर्म निरोध करानेवाला प्रगतिपथ सही पता करता है—तब उसे पता चलता है कि कर्म निरोध करना ही ब्रह्मचर्य का असली मक़सद 1 है।

«अं.नि.६:६३»


यदि कोई कहे कि ‘कोई जैसा कर्म करें, ठीक वैसा ही भुगतता है’—तब ब्रह्मचर्य संभव नहीं, और दुःखों का सम्यक निरोध होने का कोई अवसर नहीं। परंतु यदि कोई कहे कि ‘कोई इस-इस तरह महसूस होने वाले कर्म करें, तो वैसा-वैसा परिणाम महसूस करता है’—तब ब्रह्मचर्य संभव है, और दुःखों का सम्यक निरोध होने का अवसर है।

ऐसा होता है कि कभी किसी व्यक्ति का किया छोटा-सा पापकर्म उसे नरक ले जाता है।

ऐसा भी होता है कि उसी तरह का छोटा-सा पापकर्म किसी अन्य को अभी यहीं, मुश्किल से क्षणभर महसूस होकर गुज़र जाता है। किस व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे नरक ले जाता है?

— ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति काया में अविकसित 2 होता है, शील में अविकसित 3 होता है, अन्तर्ज्ञान में अविकसित होता है—संकुचित, छोटे मनवाला व्यक्ति, जो पीड़ित रहता हो। ऐसे व्यक्ति द्वारा किया छोटा-सा पापकर्म भी उसे नरक ले जाता है।


और किस व्यक्ति का किया छोटा-सा पापकर्म अभी यहीं, मुश्किल से क्षणभर महसूस होकर गुज़र जाता है?

— ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति काया में विकसित 4 होता है, शील में विकसित 5 होता है, अन्तर्ज्ञान में भावित होता है—असंकुचित मनवाला व्यक्ति, जो विस्तृत विशालकाय अपरिमित मानस से रहता हो। ऐसे व्यक्ति द्वारा किया छोटा-सा पापकर्म अभी यहीं, मुश्किल से क्षणभर महसूस होकर गुज़र जाता है।

कल्पना करो कि कोई पुरुष एक नमक का ढेला ‘जल भरे प्याले’ में डाल दे। तुम्हें क्या लगता है? क्या उस वजह से प्याले का जल अत्यंत नमकीन होकर पीने के अयोग्य बनेगा?

“हाँ, भन्ते।”

अब कल्पना करो कि कोई पुरुष एक नमक का ढेला ‘गंगा नदी’ में डाल दे। तुम्हें क्या लगता है? क्या उस वजह से गंगा का जल अत्यंत नमकीन होकर पीने के अयोग्य बनेगा?

“नहीं, भन्ते।”

उसी तरह ऐसा होता है कि कभी एक व्यक्ति का किया छोटा-सा पापकर्म उसे नरक ले जाता है। जबकि दूसरे का किया छोटा-सा पापकर्म अभी यहीं, मुश्किल से क्षणभर महसूस होकर गुज़र जाता है।

«अं.नि.३:९९»


भिक्षुओं, पुण्य करने की जितनी भूमियाँ हैं, वह ‘मैत्री-चेतोविमुक्ति’ का सोलहवाँ हिस्सा भी नहीं। ‘मैत्री’ सभी पुण्यों पर हावी हो अधिक चमकती है, उजाला करती है, चकाचौंध करती है।

जैसे सभी टिमटिमाते तारों की चमक ‘चंद्रमा’ की चमक का सोलहवाँ हिस्सा भी नहीं। ‘चंद्रमा’ तमाम तारों पर हावी हो अधिक चमकता है, उजाला करता है, चकाचौंध करता है। उसी तरह, पुण्य करने की जितनी भी भूमियाँ हैं, सभी ‘मैत्री-चेतोविमुक्ति’ का सोलहवाँ हिस्सा भी नहीं है। ‘मैत्री’ सभी पुण्यों पर हावी हो अधिक चमकती है, उजाला करती है, चकाचौंध करती है।

«इतिवुत्तक २७»


पुराना कर्म क्या है?

आँख को पुराने कर्म के तौर पर देखना चाहिए—रचित, इरादतन, महसूस करनेयोग्य। कान को… नाक को… जीभ को… काया को… मन को पुराने कर्म के तौर पर देखना चाहिए—रचित, इरादतन, महसूस करनेयोग्य। यही पुराने कर्म कहलाते हैं।

नया कर्म क्या है?

कोई जो कर्म ‘काया वचन व मन’ से करता है, वह उसके नए कर्म होते है। यही नए कर्म कहलाते हैं।

कर्म निरोध क्या होता है?

कायिक कर्म, वाचिक कर्म व मनोकर्म का निरोध करने से जो ‘विमुक्ति’ स्पर्श होती है, वह कर्म निरोध होता है। यही कर्म निरोध कहलाते हैं।

कर्म निरोध कराने वाला प्रगतिपथ क्या है?

बस यही—‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ ही कर्म निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है।

«सं.नि.३५:१४५»


चार तरह के कर्म भिक्षुओं, मेरे द्वारा समझे, बोध किए, और घोषित किए गए है। कौन से चार?

एक काला कर्म होता है, काले फ़ल वाला। एक सफ़ेद कर्म होता है, सफ़ेद फ़ल वाला। एक काला-सफेद कर्म होता है, काले-सफ़ेद फ़ल वाला। एक न काला न सफ़ेद कर्म होता है, न काले न सफ़ेद फ़ल वाला—जो कर्मों का अंत करता है।


काला कर्म क्या होता है, जिसका फ़ल काला होता है?

ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति हानिकारक कायिक-रचना रचता है… हानिकारक वाचिक-रचना रचता है… हानिकारक मानसिक-रचना रचता है… जैसे कोई व्यक्ति प्राणिहत्या, चोरी, व्यभिचार, झूठ, लापरवाही जगानेवाला नशा-पता करता है। तब वह हानिकारक लोक में उत्पन्न होता है। वहाँ हानिकारक संस्पर्शों से स्पर्शित किया जाता है… और [आगे] मात्र दर्द पीड़ा महसूस करता है। जैसे नरक के सत्व।

— यह काला कर्म होता है, जिसका फ़ल काला होता है।


सफ़ेद कर्म क्या होता है, जिसका फ़ल सफ़ेद होता है?

ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति हानिरहित कायिक-रचना रचता है… हानिरहित वाचिक-रचना रचता है… हानिरहित मानसिक-रचना रचता है… जैसे कोई व्यक्ति न प्राणिहत्या, न चोरी, न व्यभिचार, न झूठ, न लापरवाही जगानेवाला नशा-पता करता है। तब वह हानिरहित लोक में उत्पन्न होता है। वहाँ हानिरहित संस्पर्शों से स्पर्शित किया जाता है… और [आगे] मात्र सुख महसूस करता है। जैसे आभास्वर देव।

— यह सफ़ेद कर्म होता है, जिसका फ़ल सफ़ेद होता है।


काला व सफ़ेद कर्म क्या होता है, जिसके फ़ल काले व सफ़ेद होते है?

ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति हानिकारक व हानिरहित [दोनों] कायिक-रचनाएँ रचता है… हानिकारक व हानिरहित वाचिक-रचनाएँ रचता है… हानिकारक व हानिरहित मानसिक-रचनाएँ रचता है। तब वह हानिकारक व हानिरहित लोक में उत्पन्न होता है। वहाँ हानिकारक व हानिरहित [दोनों] संस्पर्शों से स्पर्शित किया जाता है… और हानिकारक व हानिरहित [दोनों] संवेदनाओं को महसूस करता है—दर्द में घुला-मिला सुख। जैसे मनुष्य, कुछ देवता, और कुछ निचले लोक के सत्व।

— यह काला व सफ़ेद कर्म होता है, जिसके फ़ल काले व सफ़ेद होते है।


• और न काला न सफ़ेद कर्म क्या होता है, जिसका फ़ल न काला न सफ़ेद होता है, जो कर्मों का अंत करता हो?

काले फ़ल वाले काले कर्म को वही त्यागने की चेतना, सफ़ेद फ़ल वाले सफ़ेद कर्म को वही त्यागने की चेतना, काले व सफ़ेद फ़लों वाले काले व सफेद कर्म को वही त्यागने की चेतना!

— उसे कहते है न काला न सफ़ेद कर्म, जिसका फ़ल न काला न सफ़ेद होता है, जो कर्मों का अंत करता है। अर्थात सम्यकदृष्टि, सम्यकसंकल्प, सम्यकवचन, सम्यककार्य, सम्यकजीविका, सम्यकमेहनत, सम्यकस्मृति व सम्यकसमाधि 6। या स्मृति संबोधिअंग, स्वभाव-जाँच संबोधिअंग, ऊर्जा संबोधिअंग, प्रफुल्लता संबोधिअंग, प्रशान्ति संबोधिअंग, समाधि संबोधिअंग व तटस्थता संबोधिअंग 7

«अं.नि.४:२३२ + ४:२३४ + ४:२३७ + ४:२३८»


इध तथागतो लोके उपन्नो अरहं सम्मासम्बुद्धो!

यहाँ विश्व में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध उत्पन्न हुए है!

धम्मो च देसितो निय्यानिको उपसमिको
परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो!

और वह धर्म-देशना दे चुके—जो तारता है, परमशान्ति प्रदान करता है,
निर्वाण के परे ले जाता है, संबोधि दिलाता है, जिसे सुगत ने घोषित किया है।

मयनतं धम्मं सुत्वा एवं जानाम —
जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, मरणम्पि दुक्खं,
सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सउपायासापि दुक्खा,
अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो,
यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं,
सङखित्तेन पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खा!

वह सुना हुआ धर्म हम इस तरह जानते है—
कि जन्म कष्टपूर्ण है, बुढ़ापा कष्टपूर्ण है, मौत कष्टपूर्ण है;
शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा कष्टपूर्ण है;
अप्रिय से जुड़ाव कष्टपूर्ण है, प्रिय से अलगाव कष्टपूर्ण है,
इच्छापूर्ति न होना कष्टपूर्ण है;
संक्षिप्त में, पाँच आधार-संग्रह कष्टपूर्ण है।

ते मयं ओतिण्णाम्ह जातिया जरामरणेन,
सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि,
दुक्खो’तिण्णा दुक्खपरेता,
“अप्पेव नामिमस्स केवलस्स दुक्खक्खंदस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथाति!”

हम सभी घिरे है—जन्म बुढ़ापा व मौत से,
शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा से!
दुःख से घिरे, दुःख से वशीभूत हुए
हम आख़िरकार चाहते है कि "इस दुःख-संग्रह का अंत पता चले!"

चिरपरिनिब्बुतम्पि तं भगवन्तं उद्दिस्स अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं,
सद्धा अगारस्मा अनगारीयं पब्बजिता,
तस्मिं भगवति ब्रह्मचरियं चराम!
भिक्खुनं सिक्खासाजीवसमापन्ना!
तं नो ब्रह्मचरियं, इमस्स केवलस्स दुक्खक्खंधस्स अन्तकिरियाय संवत्ततु।

हम चिरकालपूर्व परिनिवृत उन भगवान अरहंत सम्यक-संबुद्ध को
उद्देश्य कर श्रद्धापूर्वक घर से बेघर हो प्रवज्यित हुए है,
और उन भगवान का ब्रह्मचर्य धारण करते है
—भिक्षुओं के शिक्षापद व जीविका से समृद्ध होकर!
इस ब्रह्मचर्य से हमारे दुःख-संग्रह का अंत हो जाए।

चिरपरिनिब्बुतम्पि तं भगवन्तं सरणं गता,
धम्मञ्च भिक्खुसङघञ्च!
तस्स भगवतो सासनं यथासति यथाबलं मनसिकोरोम, अनुपटिपज्जाम।
सा सा नो पटिपत्ति,
इमस्स केवलस्स दुक्खक्खंधस्स अन्तकिरियाय संवत्ततु!

हम उन चिरकालपूर्व परिनिवृत भगवान की शरण गए है,
साथ ही धर्म एवं भिक्षुसंघ के!
उन भगवान के निर्देश का हम
यथास्मरण यथाशक्ति मनन करते है,
और अभ्यासमार्ग पर चलते है।
उस धर्माभ्यास से हमारे दुःख-संग्रह का अंत हो जाए!

📋 सूची | अध्याय तीन »


  1. आजकल बौद्धदर्शन में ऐसा प्रचलित हो चूका है कि जो भी दुःख-दर्द महसूस होता है, वह सभी पुराने कर्म-संस्कार के कारण होता है। और यदि शुद्ध उपेक्खा विकसित की जाएं, तो नये कर्म-संस्कार नहीं बनेंगे, बल्कि पुराने उखड़ते चले जाएँगे। हालाँकि यह सिद्धांत बौद्ध नहीं, जैन है, जिसका खंडन भगवान ने मा.नि.१०१ देवदह सुत्त में किया। उस सुत्त में बुद्ध ने कर्म-सिद्धांत पर खुलासा करते हुए कहा कि कोई भी नया संस्कार बनाते हुए पुराने नहीं उखड़तें। बल्कि जो दुःख-दर्द महसूस होता है, उसके लिए पूर्व-कर्म के साथ-साथ वर्तमान-कर्म मिल-जुलकर ज़िम्मेदार होते हैं।

    उदा. जैसे घंटों ज़बरदस्ती बैठकर पीड़ा-भरी साधना किया जाए, तो पीड़ा महसूस होगी। स्पष्टतः उस पीड़ा का कारण पूर्व कर्म-संस्कारों के बजाय, (ज़बरदस्ती बैठने का) वर्तमान-कर्म अधिक ज़िम्मेदार है। क्योंकि जब साधना रोक कर उठा जाए, तो पीड़ा भी रुकती है। भगवान ने इस साधना को स्व-पीड़ा की अति बताते हुए सेवन न करने कहा। दूसरी अति कामुकता है, और इन दोनों अतियों को पुर्णतः टालना है। उपेक्खा [या तटस्थता] भी एक कर्म-संस्कार ही होता है, जो कुछ परिस्थियों में कुशल, जबकि कुछ में अकुशल होता है। केवल सम्यक-समाधि की झान-साधना करने पर ही ऐसी चित्त-स्थिति उत्पन्न होती है, कि सूक्ष्म चेतनाओं और तृष्णाओं का भी पता चले। तब उन्हें भी त्यागा जा सके। इसलिए सम्यक-समाधि से ही अंततः कर्म-निरोध मुमकिन हो पाता है। ↩︎

  2. अर्थात, सुख जिसके चित्त को वशीभूत करके रहती हो «मा.नि.३६» ↩︎

  3. अर्थात, दर्द जिसके चित्त को वशीभूत करके रहती हो «मा.नि.३६» ↩︎

  4. अर्थात, सुख जिसके चित्त को वशीभूत कर के रह सके मा.नि.३६» ↩︎

  5. अर्थात, दर्द जिसके चित्त को वशीभूत कर के रह सके «मा.नि.३६» ↩︎

  6. अध्याय ७ के अंतर्गत आर्य अष्टांगिक मार्ग देखें ↩︎

  7. अध्याय ९ के अंतर्गत संबोधि-अंग देखें ↩︎