सेक्ख पटिपदा
~ सीखते श्रावक का शुरुवाती प्रगतिपथ ~
यहाँ कभी इस दुनिया में तथागत प्रकट होते है — अरहंत, सम्यक-सम्बुद्ध, विद्या व आचरण में संपन्न, सुयशस्वी, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देव व मनुष्य के गुरु, बोधिप्राप्त पवित्र भगवाँ। जो प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे देव मार ब्रह्म, श्रमण ब्राह्मण पीढियाँ, देव व मनुष्य से भरी इस दुनिया में घोषित करते है। जो ऐसा धर्म बताते है, जिसकी शुरुवात कल्याणकारी, मध्य कल्याणकारी, अंत कल्याणकारी हो; और अर्थ व विवरण के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित करते है।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ, या कुलपुत्र [या पुत्री] को तथागत पर श्रद्धा जाग पड़ती है। वह सोचता है —
सम्बाधो घरावासो रजोपथो, अब्भोकासो पब्बज्जा.
‘बंधनकारी है घरेलू जीवन, जैसे धूलभरा रास्ता! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करना आसान नहीं, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तब वह समय पाकर, छोटी बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।
प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्षनुसार 1 संयम से विनीत होकर, आर्यआचरण व जीवनशैली से समृद्ध होकर रहता है।
वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीखकर धारण करता है। अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है।
वह कल्याणमित्र साथी या सब्रह्मचारी के साथ जुड़ता है, जिससे उसे ऐसी बातें बिना कठिनाई के आसानी से सुनने मिले, जो सचमुच सादगीभरी हो, जो ह्रदय खोल दे—जैसे अल्प इच्छा की बातें, संतुष्टि की बातें, निर्लिप्त एकांतवास «पविवेक» की बातें, लोगों से न जुड़ने «असंसग्ग» की बातें, ऊर्जा जगाने की बातें, शील की बातें, समाधि की बातें, अन्तर्ज्ञान «पञ्ञा» की बातें, विमुक्ति की बातें, विमुक्ति ज्ञानदर्शन की बातें।
जिसकी शुरुवात कल्याणकारी, मध्य कल्याणकारी, अंत कल्याणकारी हो—ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ अर्थ व विवरण के साथ वह बार-बार सुनता है, याद रखता है, चर्चा करता है, संचित करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, एवं गहराई से समझकर सम्यकदृष्टि धारण करता है।
तब वह कायिक और वाचिक कुशल-कर्मों से युक्त हुए, जीविका परिशुद्ध रख, शीलसमृद्ध हो, इंद्रियद्वारों पर कड़ा पहरा देते हुए, स्मरणशील व सचेत होकर संतुष्ट जीवन जीता है।
«धम्मपद ३७५, ३७६»
• वह हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है—डंडा व शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला व दयावान, समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। • वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है—मात्र ‘सौपी चीज़ें’ ही उठाता व स्वीकारता, पावन जीवन जीता, चोरी-चुपके नहीं। • वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है—‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! • [गृहस्थों का कामेसु मिच्छाचार—कामुक मिथ्याचार छोड़कर वह उनसे संबंध नहीं बनाता, जो माता पिता, भाई बहन, रक्तसंबंधी रिश्तेदार, पड़ोसी, पालनकर्ता, आरक्षक-देवता या धर्म-विनय से संरक्षित हो; अथवा जिसका पति या जिसकी पत्नी हो, या जिसे अन्य पुरुष ने फूल से नवाज़ा2 हो। «अं.नि.१०:१७६»] • वह झूठ बोलना त्यागकर «मुसावादा» असत्यवचन से विरत रहता है। बल्कि वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ व भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। [गृहस्थों का ‘मुसावाद’—जब उसे नगरबैठक गुटबैठक रिश्तेदारों की सभा किसी संघ या न्यायालय में बुलाकर गवाही देने पूछा जाए, “आईये बताईये जनाब, आप क्या जानते है?” यदि वह नहीं जानता तो कहता है, “मैं नहीं जानता।” यदि वह जानता है तो कहता है, “मैं जानता हूँ।” यदि उसने नहीं देखा तो कहता है, “मैंने नहीं देखा।” यदि उसने देखा हो तो कहता है, “मैंने देखा।” इस तरह वह स्वयं के लाभ के लिए, या दूसरे के लाभ के लिए, या ईनाम की चाह में झूठ नहीं बोलता। «अं.नि.१०:१७६»] • वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर «पिसुणवाचा» फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता, साथ रहते लोगों को जोड़ता, एकता चाहता, आपसी भाईचारे में प्रसन्न व ख़ुश होता; ऐसे बोल बोलता है जिससे सामंजस्यता बढ़े। • वह तीखा बोलना त्यागकर «फरुसवाचा» कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे सुरीले बोल बोलता है—जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल व स्वीकार्य लगे। • वह बक़वास त्यागकर «सम्फप्पलापा» व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता, तथ्यात्मक बोलता, अर्थपूर्ण बोलता, धर्मानुकूल बोलता, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है—तर्क के साथ, नपेतुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। • वह «तिरच्छान कथा» तुच्छ बातों से परहेज़ करता है। जैसे—राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। इन सभी तुच्छ विषयों पर बात करने से वह परहेज़ करता है। • वह बीज व पौधों का जीवनाश करना त्यागता है। • वह दिन में एक-बार भोजन «एकभत्तिको» करता है—रात्रिभोज व विकालभोज 3 से विरत। • वह नृत्य गीत वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है। • वह मालाएँ गंध लेप, सुडौलता-लानेवाले और अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है। • वह ऊँचे व बड़े आसन व पलंग के उपयोग से विरत रहता है। • वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहता है। • वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी गाय घोड़ा खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है। • वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री «कयविक्कया»… भ्रामक तराज़ू नाप मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी ठगना ज़ाली काम छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है। 4 — इस तरह वह आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप जीने का आंतरिक सुख अनुभव करता है। वह शरीर ढकने के लिए चीवर, और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। जैसे पक्षी जहाँ जाए, पँखभर बोझ ले उड़े। उसी तरह वह शरीर ढकने के लिए चीवर, और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। जहाँ जाए, सभी मूल आवश्यकताएँ साथ ले जाता है। • वह आँखों से रूप देखकर न कोई रोचक छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ऐसी सूचक बात—जिससे यदि आँखइंद्रिय रक्षित या संयमित न रहती, तो उसे लालसा या निराशा इत्यादि पाप/अकुशल स्वभाव सताते। इस तरह संयम का अभ्यास करते वह अपने चक्षुइंद्रिय का बचाव करता है। • वह कानों से आवाज़ सुनकर न कोई रोचक छाप ग्रहण करता है, न ऐसी सूचक बात—जिससे यदि कानइंद्रिय रक्षित या संयमित न रहती, तो उसे लालसा या निराशा इत्यादि पाप/अकुशल स्वभाव सताते। इस तरह संयम का अभ्यास करते वह श्रोतइंद्रिय का बचाव करता है। • वह नाक से गंध सूँघकर न कोई रोचक छाप ग्रहण करता है, न ऐसी सूचक बात—जिससे यदि नाकइंद्रिय रक्षित या संयमित न रहती, तो उसे लालसा या निराशा इत्यादि पाप/अकुशल स्वभाव सताते। इस तरह संयम का अभ्यास करते वह घ्राणइंद्रिय का बचाव करता है। • वह जीभ से स्वाद चख़कर न कोई रोचक छाप ग्रहण करता है, न ऐसी सूचक बात—जिससे यदि जीभइंद्रिय रक्षित या संयमित न रहती, तो उसे लालसा या निराशा इत्यादि पाप/अकुशल स्वभाव सताते। इस तरह संयम का अभ्यास करते वह जिव्हाइंद्रिय का बचाव करता है। • वह शरीर से संस्पर्श महसूस कर न कोई रोचक छाप ग्रहण करता है, न ऐसी सूचक बात—जिससे यदि कायाइंद्रिय रक्षित या संयमित न रहती, तो उसे लालसा या निराशा इत्यादि पाप/अकुशल स्वभाव सताते। इस तरह संयम का अभ्यास करते वह कायइंद्रिय का बचाव करता है। • वह मन से बात सोचकर न कोई रोचक छाप ग्रहण करता है, न ऐसी सूचक बात—जिससे यदि मनइंद्रिय रक्षित या संयमित न रहती, तो उसे लालसा या निराशा इत्यादि पाप/अकुशल स्वभाव सताते। इस तरह संयम का अभ्यास करते वह मनइंद्रिय का बचाव करता है। — इस तरह वह इंद्रियों पर आर्यसंयम से संपन्न होकर निष्पाप जीने का आंतरिक सुख महसूस करता है। वह अपने भोजन की उचित मात्रा जानता है। उचित चिंतन करते हुए भिक्षान्न ग्रहण करता है—न मज़े के लिए, न मदहोशी के लिए, न सुडौलता के लिए, न ही सौंदर्य के लिए। बल्कि काया को मात्र टिकाने के लिए। उसकी [भूख] पीड़ाएँ समाप्त करने के लिए। ब्रह्मचर्य के लिए। [सोचते हुए] ‘पुरानी पीड़ा ख़त्म करूँगा! [अधिक खाकर] नई पीड़ा नहीं उत्पन्न करूँगा! मेरी जीवनयात्रा निर्दोष रहेगी, और राहत से रहूँगा!’ — इस तरह वह अपने भोजन की उचित मात्रा जानता है। वह जागरण के प्रति संकल्पबद्ध होता है। दिन भर बैठे या चलते हुए वह भीतर से ऐसे अकुशल स्वभावों को साफ़ करता रहता है, जो उसके चित्त को पकड़े हुए हो। • वह रात के प्रथम-पहर [शाम ६-१०] बैठे या चलते हुए भीतर से ऐसे अकुशल स्वभावों को साफ़ करता रहता है, जो उसके चित्त को पकड़े हुए हो। • वह रात के द्वितीय-पहर [रात १०-२] दायी करवट लेटकर सिंहशय्या धारण करता है—बाया पैर दाएं पैर पर रखकर, स्मरणशील व सचेत रह शीघ्र उठने का मन बनाता है। • वह रात के तृतीय-पहर [रात २-६] बैठे या चलते हुए भीतर से ऐसे अकुशल स्वभावों को साफ़ करता रहता है, जो उसके चित्त को पकड़े हुए हो। — इस तरह भिक्षु जागरण के प्रति संकल्पबद्ध होता है। वह आगे बढ़ते व लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते व नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते व पसारते सचेत होता है। वह संघाटी पात्र व चीवर धारण करते सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते सचेत होता है। वह पेशाब व शौच करते सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते सचेत होता है। «धम्मपद ३६२»
इस तरह वह आर्यशील-संग्रह से संपन्न, इंद्रियों से आर्यसंयमित, स्मरणशील व सचेत होकर एकांतवास ढूंढ़ता है—जैसे जंगल, पेड़-तले, पहाड़, संकरी-घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। वह भिक्षाटन से लौटकर भोजनपश्चात पालथी मारकर काया सीधी रख बैठता है, और स्मरणशीलता आगे लाता है। • वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा साफ़ करता है। • वह भीतर से दुर्भावना व द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है—समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना व द्वेष साफ़ करता है। • वह भीतर से सुस्ती व तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती व तंद्राविहीन चित्त से रहता है—उजाला देखनेवाला, स्मरणशील व सचेत। अपने चित्त से सुस्ती व तंद्रा साफ़ करता है। • वह भीतर से बेचैनी व पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी व पश्चाताप साफ़ करता है। • वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति बिना किसी संभ्रमता के। अपने चित्त से अनिश्चितता साफ़ करता है। — यह पाँच व्यवधान «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर «पामोज्जं जायति» प्रसन्नता जन्म लेती है। «पमुदितस्स पीति जायति» प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। «पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति» प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। «पस्सद्धकायो सुखं वेदेति» प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। «सुखिनो चित्तं समाधियति» सुखी होकर चित्त समाधिस्त हो जाता है। (१) अन्तर्ज्ञान «पञ्ञा» दुर्बल करने वाले पाँच व्यवधान हटाकर, वह काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त—सोच व विचार के साथ निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। तब वह निर्लिप्तता से जन्मे उस प्रफुल्लता व सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई हिस्सा निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुख से अव्याप्त न बचे।5 जैसे कोई दक्ष नाई कांसे के थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रख उसमें पानी डाल-डालकर इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह वह निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई हिस्सा निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुख से अव्याप्त न बचे। (२) फ़िर आगे सोच व विचार रुक जानेपर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहता है। तब वह समाधि से जन्मे उस प्रफुल्लता व सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई हिस्सा समाधि से जन्मे प्रफुल्लता व सुख से अव्याप्त न बचे। जैसे किसी झील के भीतर जलस्त्रोत फूटता हो। जिसके पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण दिशा से कोई अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब भीतर से मात्र शीतल जलस्त्रोत फूटकर झील को शीतल जल से सींचेगी, भिगोएगी, फैलेगी, पूर्णतः व्याप्त करेंगी। उसी तरह वह समाधि से जन्मे प्रफुल्लता व सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई हिस्सा समाधि से जन्मे प्रफुल्लता व सुख से अव्याप्त न बचे। (३) तब आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशील सचेतता के साथ तटस्थता धारणकर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ स्मरणशील सुखविहारी’ कहते है—वह उस तृतीय-झान में प्रवेश कर रहता है। तब वह प्रफुल्लतारहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई हिस्सा प्रफुल्लतारहित सुख से अव्याप्त न बचे। जैसे किसी तालाब में कोई कोई नीलकमल रक्तकमल या श्वेतकमल जल के भीतर ही जन्म लेते, जल के भीतर ही बढ़ते, जल के भीतर ही डूबे रहते, जल के भीतर ही पनपते है, बिना बाहर निकले। वह सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते, भिगोए जाते, फैलाए जाते, पूर्णतः व्याप्त किए जाते है। उसी तरह वह प्रफुल्लतारहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई हिस्सा प्रफुल्लतारहित सुख से अव्याप्त न बचे। (४) आगे वह सुख दर्द दोनों हटाकर, खुशी व परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता व स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है। तब वह काया में परिशुद्ध उजालेदार चित्त फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई हिस्सा परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न बचे। जैसे कोई पुरुष सफ़ेद उजला वस्त्र सिर से पैर तक ढ़ककर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई हिस्सा उस सफ़ेद उजले वस्त्र से अव्याप्त न बचे। उसी तरह वह काया में परिशुद्ध उजालेदार चित्त फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई हिस्सा परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न बचे। जैसे किसी मुर्गी के आठ दस या बारह अंडे हो—जिन्हें वह ठीक से ढके, ठीक से गर्म रखे, ठीक से सेये। तब भले ही मुर्गी को अभिलाषा हो, या न हो कि ‘काश मेरे चूज़े अपने नन्हें पंजे व चोंच से अंडे का आवरण तोड़कर सुरक्षित बाहर निकले!’ तब भी संभव है कि उसके चूज़े नन्हें पंजे व चोंच से अंडे का आवरण तोड़कर सुरक्षित निकल जाए। क्यों? क्योंकि मुर्गी अपने अंडे ठीक से ढकती है, ठीक से गर्म रखती है, ठीक से सेती है। उसी तरह जब भिक्षु आर्यआचरण धारण करें—अर्थात शीलसंपन्न होना, कल्याणमित्र से जुड़ना, बहुत धर्म सुनना, संतुष्ट जीना, इंद्रियद्वारों पर कड़ा पहरा देना, भोजन की उचित मात्रा जानना, जागरण के प्रति संकल्पबद्ध रहना, स्मरणशील व सचेत रहना, पाँच व्यवधान हटाते रहना, चार झान लगाना, ताकि जब चाहे चित्त ऊँचा उठाकर सुखविहार कर पाए—तब वह ‘सीखते-व्यक्ति का प्रगतिपथ’ «सेक्ख पटिपदा» धारक कहलाता है; जिसके अंडे सड़े नहीं। जो अभी अविद्या का आवरण तोड़कर बाहर निकलने में, संबोधि पाने में, योगबंधन से सर्वोपरि राहत पाने में सक्षम है। तब ऐसे [चतुर्थ झान प्राप्त] समाधिस्त परिशुद्ध उजालेदार बेदाग़ निर्मल मृदुल, काम करने योग्य, ठहरे व अविचल चित्त को वह ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है—‘मेरी यह रूपयुक्त काया—चार महाभूत से बनी, माता पिता द्वारा जन्मी, दालचावल द्वारा पोषित—अनित्य रगड़ छेदन विघटन विध्वंस—स्वभाव की है। और मेरी यह चैतन्यता इसका आधार लेकर बँध गई है।’ जैसे उच्च गुणवत्तावाला कोई सुंदर मणि हो—अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ पारदर्शी निर्मल, सभी पहलुओं में समृद्ध, और उसके बीच से नीला पीला लाल सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष उसे हाथ में लेकर देखें—‘यह उच्च गुणवत्तावाला सुंदर मणि है—अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ पारदर्शी निर्मल, सभी पहलुओं से समृद्ध, और जिसके बीच से नीला पीला लाल सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’ उसी तरह भिक्षु को पता चलता है कि ‘यह मेरी रूपयुक्त काया—चार महाभूत से बनी, माता पिता द्वारा जन्मी, दालचावल द्वारा पोषित—अनित्य रगड़ छेदन विघटन विध्वंस—स्वभाव की है। और मेरी यह चैतन्यता इसका आधार लेकर बँध गई है।’ — इस तरह वह अविद्या का आवरण तोड़कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते है। ऐसा भिक्षु विद्यासम्पन्न कहलाता है। तब ऐसे समाधिस्त परिशुद्ध उजालेदार बेदाग़ निर्मल मृदुल, काम करने योग्य, ठहरे व अविचल चित्त को वह मनोमय काया निर्माण करने की ओर झुकाता है। तो वह इस काया से दूसरी काया निर्मित करता है—रूपयुक्त, मन से रची, सभी अंगप्रत्यंगों से युक्त; हीन-इंद्रियोंवाली नहीं। जैसे कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा ‘यह मूँज है, वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, सरकंडा दूसरी। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा ‘यह म्यान है, वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, तलवार दूसरी। किंतु म्यान से तलवार निकाली गई है।’ जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा ‘यह साँप है, वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, पिटारा दूसरी। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’ उसी तरह भिक्षु इस काया से दूसरी काया निर्मित करता है—रूपयुक्त, मन से रची, सभी अंगप्रत्यंगों से युक्त; हीन-इंद्रियोंवाली नहीं। इस तरह वह अविद्या का आवरण तोड़कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते है। ऐसा भिक्षु विद्यासम्पन्न कहलाता है। तब ऐसे समाधिस्त परिशुद्ध उजालेदार बेदाग़ निर्मल मृदुल, काम करने योग्य, ठहरे व अविचल चित्त को वह विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तो वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है—एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। वह प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार, और पर्वतों के आरपार बिना टकराए चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल की सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से वह ब्रह्मलोक तक असर डालता है। जैसे कोई दक्ष कुम्हार अच्छी तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ ले। जैसे कोई दक्ष दंतकार अच्छे तैयार हाथीदाँत से जो कलाकृति चाहे, रच ले। जैसे कोई दक्ष सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच ले। उसी तरह वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है। इस तरह वह अविद्या का आवरण तोड़कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते है। ऐसा भिक्षु विद्यासम्पन्न कहलाता है। तब ऐसे समाधिस्त परिशुद्ध उजालेदार बेदाग़ निर्मल मृदुल, काम करने योग्य, ठहरे व अविचल चित्त को वह दिव्य श्रोतधातु की ओर झुकाता है। तो वह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्य श्रोतधातु से दोनों आवाज़ें सुनता है—दिव्य भी, मनुष्यों की भी; दूर की हो, या समीप की। जैसे कोई पुरुष रास्ते से यात्रा करते हुए नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुने। तब उसे लगेगा, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है, वह ढोल की आवाज़ है, यह शंखनाद है, और वह मंजीरे की आवाज़ है।’ उसी तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्य श्रोतधातु से वह दोनों आवाज़ें सुनता है—दिव्य भी, मनुष्यों की भी; दूर की हो, या समीप की। इस तरह वह अविद्या का आवरण तोड़कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते है। ऐसा भिक्षु विद्यासम्पन्न कहलाता है। तब ऐसे समाधिस्त परिशुद्ध उजालेदार बेदाग़ निर्मल मृदुल, काम करने योग्य, ठहरे व अविचल चित्त को वह अन्य सत्वों का मानस पता करने की ओर झुकाता है। तब वह दुसरे सत्वों के, अन्य लोगों के मानस को अपना मानस फैलाकर पता कर लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’ जैसे कोई युवती या युवक सजने के शौकीन हो, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या साफ़ जलपात्र में देखें—तब धब्बा हो तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो तो पता चलता है ‘धब्बा नहीं है।’ उसी तरह भिक्षु दुसरे सत्वों के, अन्य लोगों के मानस को अपना मानस फैलाकर पता कर लेता है। इस तरह वह अविद्या का आवरण तोड़कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते है। ऐसा भिक्षु विद्यासम्पन्न कहलाता है। तब ऐसे समाधिस्त परिशुद्ध उजालेदार बेदाग़ निर्मल मृदुल, काम करने योग्य, ठहरे व अविचल चित्त को वह पूर्वजन्मों का स्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे नाना प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है—जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस, बीस, तीस, चालीस, पचास, सौ, हज़ार, लाख, कल्प, कई कल्पों का ब्रह्मांडिय-विस्तार «संवट्टकप्प», कई कल्पों की ब्रह्मांडिय-सिकुड़न «विवट्टकप्प», कई कल्पों का ब्रह्मांडिय विस्तार व सिकुड़न—‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ यूँ नानाप्रकार के पूर्वजन्म शैली व विवरण के साथ वह स्मरण करता है। जैसे कोई पुरुष अपने गाँव से दूसरे गाँव जाए। दूसरे गाँव से तीसरे। और तीसरे गाँव से अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा ‘मैं अपने गाँव से इस गाँव गया। वहाँ ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर इस गाँव से मैं उस गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।’ उसी तरह उसे नानाप्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है। इस तरह वह अविद्या का आवरण तोड़कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते है। ऐसा भिक्षु विद्यासम्पन्न कहलाता है। तब ऐसे समाधिस्त परिशुद्ध उजालेदार बेदाग़ निर्मल मृदुल, काम करने योग्य, ठहरे व अविचल चित्त को वह सत्वों की गति-ज्ञान «चुतूपपात ञाण» की ओर झुकाता है। तब उसे विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत व पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि वह कर्मानुसार ही कैसे हीन या उच्च, सुंदर या कुरूप, भाग्यशाली या अभाग़े है। जिन सत्वों ने काया वचन मन से दुराचरण किया—आर्यजनों का अपमान, मिथ्यादृष्टि धारण, व मिथ्यादृष्टि प्रभाव में दुष्कृत्य—वह काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न हुए। किंतु जिन सत्वों ने काया वचन मन से सदाचरण किया—आर्यजनों का आदर, सम्यकदृष्टि धारण, व सम्यकदृष्टि प्रभाव में सुकृत्य—वह काया छूटने पर मृत्युपरांत सुगति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत व पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि वह कर्मानुसार ही कैसे हीन या उच्च, सुंदर या कुरूप, भाग्यशाली या अभाग़े है। जैसे किसी चौराहे पर इमारत हो। इमारत के ऊपर खड़ा कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे दिखेंगे। तब उसे लगेगा—‘वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे है। वहाँ कुछ लोग निकल रहे है। वहाँ रास्ते पर कुछ लोग चल रहे है। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे है।’ उसी तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे सत्वों की मौत व पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। इस तरह वह अविद्या का आवरण तोड़कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते है। ऐसा भिक्षु विद्यासम्पन्न कहलाता है। तब आगे ऐसे समाधिस्त परिशुद्ध उजालेदार बेदाग़ निर्मल मृदुल, काम करने योग्य, ठहरे व अविचल चित्त को वह बहाव-थामने के ज्ञान की ओर झुकाता है। तब ‘ऐसा दुःख होता है’—उसे मूलस्वरूप पता चलता है। ‘ऐसी दुःख उत्पत्ति होती है’ … ‘ऐसा दुःख निरोध होता है’ … ‘यह दुःख निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है’—उसे मूलस्वरूप पता चलता है। ‘ऐसा बहाव होता है’… ‘ऐसी बहाव उत्पत्ति होती है’ … ‘ऐसा बहाव निरोध होता है’ … ‘ऐसा बहाव निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है’—उसे मूलस्वरूप पता चलता है। इस तरह पता चलने से, इस तरह देखने से उसका चित्त कामुक-बहाव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-बहाव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है—‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है—‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ जैसे किसी पहाड़ के ऊपर सरोवर हो—स्वच्छ पारदर्शी व निर्मल। कोई तट पर खड़ा अच्छी आँखोंवाला पुरुष उसमें देखें, तो उसे सीप घोघा बजरी व जलजंतु, मछलियों का झुंड तैरता या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह झील स्वच्छ पारदर्शी व निर्मल है। यहाँ सीप घोघा बजरी व जलजंतु, मछलियों का झुंड तैरता या खड़ा है।’ उसी तरह ‘ऐसा दुःख होता है’… ‘यह दुःख निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है’… ‘ऐसा बहाव होता है।’… ‘ऐसा बहाव निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है’—उसे मूलस्वरूप पता चलता है। इस तरह वह अविद्या का आवरण तोड़कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते है। ऐसा भिक्षु विद्यासम्पन्न कहलाता है। कुल इस तरह वह भिक्षु विद्यासंपन्न कहलाता है, आचरणसंपन्न कहलाता है, विद्याआचरणसंपन्न कहलाता है। «दी.नि.२ + मा.नि.५३»
पातिमोक्ख भिक्खुओं के २२७ और भिक्खुनीओं के ३११ नियम होते हैं—वही शील और सम्यकजीविका हैं। ↩︎ अर्थात, जिस स्त्री का किसी से प्रेमसंबंध हो, अथवा सगाई हुई हो। कामुक-मिथ्याचार से विरती को मोटामोटी संक्षिप्त में कहे, तो विवाह-पूर्व या विवाह-बाहरी संबंध से विरत रहना। ↩︎ सौर्य दोपहर - अर्थात मध्यान्ह, लगभग दोपहर १२ बजे के पश्चात, किंतु वर्षभर समय में बदलाव आते हैं। ↩︎ भिक्षुओं की सम्यकजीविका: इन शीलों के अलावा २२७ पातिमोक्ष नियम, हज़ारों दुष्कृत्य-नियमावली, विशिष्ठ संघों के भीतरी नियम, आपसी आचार-गोचरशील, और अन्य आर्यआचरण भी होता है, जिसका आदर्श भगवान बुद्ध ने अनेक सुत्तों में रखा। सम्यक-जीविका पर अधिक विवरण के लिए विनयपिटक के साथ-साथ दी.नि.२ सामञ्ञफलसुत्त के अंतर्गत चूळसील, मज्झिमसील, महासील भी पढ़ें। ↩︎ यहाँ गौर करें कि ध्यान-साधना के प्रारंभिक चरणों में, कुशल-धर्मों (जैसे निर्लिप्तता या एकाग्रता) से उत्पन्न प्रीति व सुख को अनित्य-स्वभाव या तटस्थ-भाव से देखकर, उन्हें हटाना नहीं होता, बल्कि सक्रिय-रूप से उन्हें बढ़ाकर, शरीर में सर्वत्र फैलाकर व्याप्त करना होता है, ताकि चित्त झान-समाधि और सुख में पुर्णतः डूब जाए। यदि ऐसा न किया जाए, बल्कि उसके विपरीत भयभीत होकर, समय से पूर्व ही तटस्थ-भाव रखा जाएं, तो प्रथम या द्वितीय-झान समाधि कभी विकसित ही नहीं हो पाएगी। आगे की समाधि-अवस्थाओं का कहना ही क्या। सूक्क-विपस्सना (सूखी-विपश्यना) या खणिक-समाधि इत्यादि अन्य समाधि-अवस्थाओं का जिक्र प्राचीन ‘पालि पञ्चनिकाय’ में कही नहीं मिलता। वहाँ भगवान द्वारा उल्लेखित सम्यकसमाधि ‘चार-झान’ ही होते हैं, जिसे विकसित करने का विवरण यहाँ दिया गया है। ↩︎
वचन संयमित, उत्तम तरह से संयमित;
भीतर से प्रसन्न, समाहित संतुष्ट अकेला
— उसे कहते है भिक्षु!
विद्या व आचरण संपन्न व्यक्ति देवमनुष्यों में श्रेष्ठ होता है।
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