नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय चार

वीरियारम्भ

~ ऊर्जा का संचार ~



कुशल अकुशल —

अकुशल [स्वभाव] त्याग दो, भिक्षुओं! अकुशल त्याग सकते है। यदि अकुशल न त्याग सकते, तो मैं तुम्हें न कहता ‘अकुशल त्याग दो!’ चूँकि अकुशल त्याग सकते है, इसलिए मैं तुम्हें कहता हूँ ‘अकुशल त्याग दो!’

यदि अकुशल त्यागना अहितकर या कष्टपूर्ण होता, तो मैं तुम्हें न कहता ‘अकुशल त्याग दो!’ चूँकि अकुशल त्यागना हितकर व सुखदायी होता है, इसलिए मैं तुम्हें कहता हूँ ‘अकुशल त्याग दो!’

कुशल [स्वभाव] बढ़ाओ, भिक्षुओं! कुशल बढ़ा सकते है। यदि कुशल न बढ़ा सकते, तो मैं तुम्हें न कहता ‘कुशल बढ़ाओ!’ चूँकि कुशल बढ़ा सकते है, इसलिए मैं तुम्हें कहता हूँ ‘कुशल बढ़ाओ!’

यदि कुशल बढ़ाना अहितकर या कष्टपूर्ण होता, तो मैं तुम्हें न कहता ‘कुशल बढ़ाओ!’ चूँकि कुशल बढ़ाना हितकर व सुखदायी होता है, इसलिए मैं तुम्हें कहता हूँ ‘कुशल बढ़ाओ!’

«अं.नि.२:१९»


[भिक्षुओं की आपसी धर्मचर्चा में भन्ते सारिपुत्त उपमा देकर बताते है:]

कल्पना करो मित्रों कि किसी दुकान से एक काँसे का बर्तन लाया जाए—धूल मल से सना हुआ, जिसे उसका मालिक न उपयोग करें, न ही स्वच्छ; बल्कि कचरे में डाल दे। क्या वह काँसे का बर्तन अंततः अधिक गंदा व मैला न होगा?

“ज़रूर होगा, मित्र।”

उसी तरह यदि भीतर से कलंकित व्यक्ति को जैसे हो वैसे सही पता न चले कि—‘मैं भीतर से कलंकित हूँ’, तब उससे आशा नहीं की जा सकती कि वह कलंक «अङगण» मिटाने के लिए कोई चाह प्रयास या परिश्रम करेंगा। बल्कि वह ‘राग द्वेष मोह’ से कंलकित रह, मैले चित्त के साथ ही मरेगा। [=दुर्गति]


• अब कल्पना करो कि किसी दुकान से एक काँसे का बर्तन लाया जाए—धूल मल से सना हुआ, जिसे उसका मालिक उपयोग भी करें, स्वच्छ भी; कचरे में न डाल दे। क्या वह काँसे का बर्तन समय के साथ स्वच्छ व शुद्ध न होगा?

“ज़रूर होगा, मित्र।”

उसी तरह यदि भीतर से कलंकित व्यक्ति को जैसे हो वैसे सही पता चले कि—‘मैं भीतर से कलंकित हूँ’, तब जाकर उससे आशा की जा सकती कि वह कलंक मिटाने के लिए कोई चाह प्रयास या परिश्रम करेंगा। वह राग द्वेष मोह से निष्कलंक «अनङगण» होकर, निर्मल चित्त के साथ मरेगा। [=सुगति]


• अब कल्पना करो कि किसी दुकान से एक काँसे का बर्तन लाया जाए—पूर्णतः स्वच्छ व शुद्ध! किंतु जिसे उसका मालिक न उपयोग करें, न ही स्वच्छ; बल्कि कचरे में डाल दे। क्या वह काँसे का बर्तन समय के साथ अधिक गंदा व मैला न होगा?

“ज़रूर होगा, मित्र।”

उसी तरह यदि भीतर से निष्कलंक व्यक्ति को जैसे हो वैसे सही पता न चले कि—‘मैं भीतर से निष्कलंक हूँ’ तब उससे आशा की जा सकती है कि वह काया के आकर्षक पहलू «सुभ निमित्त» पर गौर करेंगा। जब वह आकर्षक पहलू पर गौर करेंगा, तब राग उसके चित्त को दूषित व बर्बाद कर देगा। तब वह ‘राग द्वेष मोह’ से कंलकित होकर, मैले चित्त के साथ मरेगा। [=दुर्गति]


• अब कल्पना करो कि किसी दुकान से एक काँसे का बर्तन लाया जाए—पूर्णतः स्वच्छ व शुद्ध! जिसे उसका मालिक उपयोग भी करें, स्वच्छ भी; कचरे में न डाल दे। क्या वह काँसे का बर्तन समय के साथ अधिक स्वच्छ व शुद्ध न होगा?

“ज़रूर होगा, मित्र।”

उसी तरह यदि भीतर से निष्कलंक व्यक्ति को जैसे हो वैसे सही पता चले कि—‘मैं भीतर से निष्कलंक हूँ’, तब उससे आशा की जा सकती है कि वह काया के आकर्षक पहलू पर गौर नहीं करेंगा। जब वह आकर्षक पहलू पर गौर नहीं करेंगा, तब उसके चित्त को राग दूषित व बर्बाद नहीं कर पाएगा। तब वह राग द्वेष मोह से निष्कलंक रह, निर्मल चित्त के साथ मरेगा। [=सुगति]

इस कारण, इस परिस्थिति से भीतर से कलंकित दो व्यक्तियों में पहला हीन माना जाएगा, दूसरा श्रेष्ठ। तथा भीतर से निष्कलंक दो व्यक्तियों में पहला हीन माना जाएगा, दूसरा श्रेष्ठ।


“मित्र, यह शब्द ‘कलंक कलंक «अङगण»’ का अर्थ क्या है?”

कलंक का अर्थ है ‘पाप/अकुशल इच्छाओं के साथ सहवास’।

«मा.नि.५»


सचित्तपरियोदपणं

जो भिक्षु दूसरों का चित्त पता करने में कुशल न हो, तो उसे सीखना चाहिए—‘कोई बात नहीं, मैं स्वयं का चित्त पता करने में कुशल बनूँगा!’

और कैसे कोई भिक्षु स्वयं का चित्त पता करने में कुशल बनता है?

कल्पना करो कि कोई युवक या युवती सजने के शौकीन हो; अपना चेहरा साफ़ चमकीले दर्पण या जलपात्र में देखें—यदि उसे मैल या दाग दिखे, तो वे उसे साफ़ करने का प्रयास करेंगे। यदि मल या दाग न दिखे, तो प्रसन्न हो जाएंगे। उनका संकल्प जो पूरा हुआ—‘कितनी भाग्यशाली हूँ मैं! कितनी स्वच्छ हूँ मैं!’

उसी तरह भिक्षु का कुशल स्वभावों के प्रति इस तरह किया आत्मपरीक्षण महाफ़लदायी होता है—‘क्या मैं अक़्सर लालसापूर्ण होता हूँ? या दुर्भावनापूर्ण विचारों के साथ होता हूँ? या सुस्ती व तंद्रा के वशीभूत होता हूँ? या बेचैन होता हूँ? संभ्रमित होता हूँ या अनिश्चितता के परे? या गुस्से में होता हूँ? या गंदे विचारों के साथ होता हूँ? क्या मेरी काया उत्तेजित होती है? या आलस्यपूर्ण होता हूँ? या असमाधिस्त होता हूँ?’

यदि आत्मपरीक्षण करने पर भिक्षु को पता चले—‘हाँ! मैं अक़्सर लालसापूर्ण होता हूँ। या दुर्भावनापूर्ण विचारों के साथ होता हूँ। या सुस्ती व तंद्रा के वशीभूत होता हूँ। या बेचैन होता हूँ। या संभ्रमित होता हूँ। या गुस्से में होता हूँ। या गंदे विचारों के साथ होता हूँ। या मेरी काया उत्तेजित होती है। या आलसी होता हूँ। या असमाधिस्त होता हूँ।’—तब वह पाप/अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए भिक्षु को अत्याधिक चाह प्रयास उत्साह ज़िद लगन स्मरणशीलता सचेतता व ज़ोर लगाना चाहिए।

जैसे किसी आदमी की पगड़ी या सिर में आग लग जाए, तो वह किस तत्परता के साथ अत्याधिक चाह प्रयास उत्साह ज़िद लगन स्मरणशीलता सचेतता व ज़ोर लगाकर आग बुझायेगा। उसी तरह वह पाप/अकुशल स्वभाव को छोड़ने के लिए भिक्षु को अत्याधिक चाह प्रयास उत्साह ज़िद लगन स्मरणशीलता सचेतता व ज़ोर लगाना चाहिए।

किंतु आत्मपरीक्षण करने पर यदि भिक्षु को पता चले—‘मैं अक़्सर लालसापूर्ण नहीं होता। दुर्भावनापूर्ण विचारों के साथ नहीं होता। सुस्ती व तंद्रा के वशीभूत नहीं होता। बेचैन नहीं होता। संभ्रमित नहीं, बल्कि अनिश्चितता के परे होता हूँ। गुस्से में नहीं होता। गंदे विचारों के साथ नहीं होता। मेरी काया उत्तेजित नहीं होती। आलसी नहीं, बल्कि जगे ऊर्जा के साथ होता हूँ। समाधिस्त होता हूँ।’—तब उसका कर्तव्य है कि बहाव थामने के लिए वह कुशल स्वभावों को अधिक ऊँचा उठाकर स्थिर करने का प्रयास करें।

«अं.नि.१०:५१»


नीवरण

यह पाँच व्यवधान व रुकावटें होती है, जो चित्त वशीभूत करती है, और अन्तर्ज्ञान दुर्बल। कौन सी पाँच? कामेच्छा एक व्यवधान व रुकावट है, जो चित्त वशीभूत करती है, और अन्तर्ज्ञान दुर्बल। दुर्भावना… सुस्ती व तंद्रा… बेचैनी व पश्चाताप… अनिश्चितता एक व्यवधान व रुकावट है, जो चित्त वशीभूत करती है, और अन्तर्ज्ञान दुर्बल।

कल्पना करो कि पहाड़ से उतरती कोई नदी हो—तेज़ प्रवाह के साथ सब कुछ दूर तक बहानेवाली। कोई पुरुष आए, और उस नदी के दोनों तट खोदकर भिन्न दिशा में जलप्रवाह खोल दे। तब नदी की मुख्यधारा विच्छिन्न होगी। उसके मुख्यबहाव में व्यवधान आएगा। उसका प्रवाह तेज़ न बचेगा। बहाव में सब कुछ दूर तक न बहेगा।

उसी तरह कोई व्यक्ति यह ‘पाँच व्यवधान’ जब तक हटा न लें, तब तक संभव नहीं कि वह अपने कल्याण की बात जान पाए, या दूसरे के कल्याण की बात जान पाए, या आपसी कल्याण की बात जान पाए, या वाकई कोई मनुष्योत्तर-अवस्था प्राप्त करें—कोई विशेष आर्य ज्ञानदर्शन…

अब कल्पना करो कि पहाड़ से उतरती कोई नदी हो—तेज़ प्रवाह के साथ सब कुछ दूर तक बहानेवाली। कोई पुरुष आए, और उस नदी तट की भिन्न दिशाओं में निकलती जलधाराएँ रोक दे। तब नदी की मुख्यधारा विच्छिन्न न होगी। उसके मुख्यबहाव में व्यवधान न होगा। तब उसका प्रवाह तेज़ होगा। बहाव में सब कुछ दूर तक बहेगा।

उसी तरह जब व्यक्ति ‘पाँच व्यवधान’ हटा ले, तब संभव है कि वह अपने कल्याण की बात जान पाए, या दूसरे के कल्याण की बात जान पाए, या आपसी कल्याण की बात जान पाए, या वाकई कोई मनुष्योत्तर-अवस्था प्राप्त करें—कोई विशेष आर्य ज्ञानदर्शन…।

«अं.नि.५:५१»


स्वर्ण जब इन पाँच अशुद्धियों से भ्रष्ट होता है, तब वह मृदु, काम करने योग्य और चमकीला नहीं रहता। बल्कि भंगुर होता है। और उसपर काम नहीं किया जा सकता। कौन-सी पाँच? लौह तांबा टिन सीसा और चांदी… परंतु स्वर्ण जब इन पाँच अशुद्धियों से भ्रष्ट नहीं होता, तब वह मृदु, काम करने योग्य व चमकीला होता है। तब वह भंगुर नहीं होता। और उसपर काम किया जा सकता है।

उसी तरह चित्त जब इन पाँच अशुद्धियों से भ्रष्ट होता है, तब वह मृदु, काम करने योग्य व चमकीला नहीं रहता। वह भंगुर होता है। और उसपर काम नहीं किया जा सकता। कौन-सी पाँच? कामेच्छा, दुर्भावना, सुस्ती व तंद्रा, बेचैनी व पश्चाताप, और अनिश्चितता… परंतु चित्त जब इन पाँच अशुद्धियों से भ्रष्ट नहीं होता, तब वह मृदु, काम करने योग्य व चमकीला होता है। तब वह भंगुर नहीं होता, और उसपर काम किया जा सकता है।

«अं.नि.५:२३»


(१) कल्पना करो कि किसी जल भरे बर्तन में लाख हल्दी नील या लालिमा घोली हो। तब कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष या स्त्री आए, और उसमें चेहरा निहारे। वह न अपना चेहरा जान पाएगी, न जैसा हो वैसा देख पाएगी।

उसी तरह जब कोई पुरुष या स्त्री कामेच्छा से ग्रस्त, कामेच्छा से वशीभूत [रंगे] चित्त के साथ रहते हो, उससे निकलने का जैसा मार्ग «निस्सरण» हो, वैसा न जानते हो—तब वह न स्वयं का कल्याण जान पाते है, न दूसरे का। न आपसी कल्याण जान पाते है, न जैसा हो वैसा देख पाते है।

(२) अब कल्पना करो कि कोई जल भरा बर्तन अग्नि में बुलबुले छोड़ते हुए उबल रहा हो। तब कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष या स्त्री आए, और उसमें चेहरा निहारे। वह न अपना चेहरा जान पाएगी, न जैसा हो वैसा देख पाएगी।

उसी तरह जब कोई पुरुष या स्त्री दुर्भावना से ग्रस्त, दुर्भावना से वशीभूत [उबलते] चित्त के साथ रहते हो, उससे निकलने का जैसा मार्ग हो, वैसा न जानते हो—तब वह न स्वयं का कल्याण जान पाते है, न दूसरे का। न आपसी कल्याण जान पाते है, न जैसा हो वैसा देख पाते है।

(३) अब कल्पना करो कि कोई जल भरा बर्तन काई व शैवाल से ढ़का हो। तब कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष या स्त्री आए, और उसमें चेहरा निहारे। वह न अपना चेहरा जान पाएगी, न जैसा हो वैसा देख पाएगी।

उसी तरह जब कोई पुरुष या स्त्री सुस्ती व तंद्रा से ग्रस्त, सुस्ती व तंद्रा से वशीभूत [ढ़के] चित्त के साथ रहते हो, उससे निकलने का जैसा मार्ग हो, वैसा न जानते हो—तब वह न स्वयं का कल्याण जान पाते है, न दूसरे का। न आपसी कल्याण जान पाते है, न जैसा हो वैसा देख पाते है।

(४) अब कल्पना करो कि किसी जल भरे बर्तन में हवा की तेज़ उदीप्त लहरे उठ रही हो। तब कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष या स्त्री आए, और उसमें चेहरा निहारे। वह न अपना चेहरा जान पाएगी, न जैसा हो वैसा देख पाएगी।

उसी तरह जब कोई पुरुष या स्त्री बेचैनी व पश्चाताप से ग्रस्त, बेचैनी व पश्चाताप से वशीभूत [उदीप्त] चित्त के साथ रहते हो, उससे निकलने का जैसा मार्ग हो, वैसा न जानते हो—तब वह न स्वयं का कल्याण जान पाते है, न दूसरे का। न आपसी कल्याण जान पाते है, न जैसा हो वैसा देख पाते है।

(५) अब कल्पना करो कि कोई जल भरा बर्तन हिचकोला खाते, मटमैले जल के साथ अँधेरे में रखा हो। तब कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष या स्त्री आए, और उसमें चेहरा निहारे। वह न अपना चेहरा जान पाएगी, न जैसा हो वैसा देख पाएगी।

उसी तरह जब कोई पुरुष या स्त्री अनिश्चितता से ग्रस्त, अनिश्चितता से वशीभूत [हिचकोला खाते] चित्त के साथ रहते हो, उससे निकलने का जैसा मार्ग हो, वैसा न जानते हो—तब वह न स्वयं का कल्याण जान पाते है, न दूसरे का। न आपसी कल्याण जान पाते है, न जैसा हो वैसा देख पाते है।

«सं.नि.४६:५५»


• [कामेच्छा:] कल्पना करो कि कोई पुरुष कर्ज़ लेकर व्यवसाय में निवेश करें, तथा तत्पश्चात यश प्राप्त करें। तब वह कर्ज़ चुकाए, और पत्नी के लिए अतिरिक्त भी बचाए। उस कारणवश वह प्रसन्न होकर सुख महसूस करेंगा।

• [दुर्भावना:] अब कल्पना करो कि कोई पुरुष बीमार पड़े, पीड़ाभरे गंभीर रोग के साथ। न भोजन का लुत्फ़ उठा पाए, न काया में कोई बल रहे। तत्पश्चात वह रोग़मुक्त हो। तब भोजन का लुत्फ़ उठा पाए, काया में बल भी रहे। उस कारणवश वह प्रसन्न होकर सुख महसूस करेंगा।

• [सुस्ती व तंद्रा:] अब कल्पना करो कि कोई पुरुष कैद हो। तत्पश्चात वह कैद से छूट जाए—सही सलामत, संपत्ति की बिना हानि हुए। उस कारणवश वह प्रसन्न होकर सुख महसूस करेंगा।

• [बेचैनी व पश्चाताप:] अब कल्पना करो कि कोई पुरुष गुलाम हो—दूसरों के अधीन, स्वयं के नहीं। जहाँ जाना चाहे, न जा सके। तत्पश्चात वह गुलामी से छूट जाए—तब स्वयं के अधीन हो, दूसरों के नहीं। जहाँ जाना चाहे, जा सके। उस कारणवश वह प्रसन्न होकर सुख महसूस करेंगा।

• [अनिश्चितता:] अब कल्पना करो कि कोई पुरुष माल-रुपये लेकर वीरान जगह से यात्रा कर रहा हो। तत्पश्चात वह उस वीरान जगह से निकल जाए—सही सलामत, संपत्ति की बिना हानि हुए। उस कारणवश वह प्रसन्न होकर सुख महसूस करेंगा।

उसी तरह जब तक पाँच व्यवधान चित्त से नहीं छूटते, तब तक भिक्षु उन्हें कर्ज़, रोग, कैद, गुलामी, और वीरान जगह से यात्रा की तरह देखता है।

किंतु जब पाँच व्यवधान छूट जाए, तब भिक्षु उन्हें कर्ज़मुक्ति, रोग़मुक्ति, कैदमुक्ति, स्वतंत्रता, और सुरक्षित स्थल की तरह देखता है।

«मा.नि.३९»


नीवरण आहार

• अनुत्पन्न कामेच्छा उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई कामेच्छा बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? काया का आकर्षक पहलू होता है—उसपर अनुचित रूप से गौर करना «अयोनिसो मनसिकार» आहार बनता है—अनुत्पन्न कामेच्छा उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई कामेच्छा बढ़ाकर अत्याधिक करने का।

• अनुत्पन्न दुर्भावना उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई दुर्भावना बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? विरोधी पक्ष «पटिघ निमित्त» होता है—उसपर अनुचित रूप से गौर करना…।

• अनुत्पन्न सुस्ती व तंद्रा उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई सुस्ती व तंद्रा बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? बोरियत थकान उबासियाँ, भोजन पश्चात तंद्रा, और मानस में आलस्य होता है—उनपर अनुचित रूप से गौर करना…।

• अनुत्पन्न बेचैनी व पश्चाताप उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई बेचैनी व पश्चाताप बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? मानस में व्याकुलता होती है—उसपर अनुचित रूप से गौर करना…।

• अनुत्पन्न अनिश्चितता उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई अनिश्चितता बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? ऐसी बातें होती है जो अनिश्चितता पनपने का आधार बनती है—उनपर अनुचित रूप से गौर करना आहार बनता है—अनुत्पन्न कामेच्छा उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई कामेच्छा बढ़ाकर अत्याधिक करने का।


नीवरण अनाहार

• अनुत्पन्न कामेच्छा उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई कामेच्छा बढ़ाकर अत्याधिक करने का अनाहार [=उपवास] क्या है? काया का अनाकर्षक पहलू «असुभ निमित्त» होता है—उसपर उचित रूप से गौर करना «योनिसो मनसिकार» अनाहार है—अनुत्पन्न कामेच्छा उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई कामेच्छा बढ़ाकर अत्याधिक करने का।

• अनुत्पन्न दुर्भावना उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई दुर्भावना बढ़ाकर अत्याधिक करने का अनाहार क्या है? मेत्ता चेतोविमुक्ति होती है—उसपर उचित रूप से गौर करना…।

• अनुत्पन्न सुस्ती व तंद्रा उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई सुस्ती व तंद्रा बढ़ाकर अत्याधिक करने का अनाहार क्या है? ऊर्जा-संचार, प्रयास व उद्यमशीलता का सामर्थ्य होता है—उसपर उचित रूप से गौर करना…।

• अनुत्पन्न बेचैनी व पश्चाताप उत्पन्न करने का, एवं उत्पन्न हुई बेचैनी व पश्चाताप बढ़ाकर अत्याधिक करने का अनाहार क्या है? भीतर से शान्त-चित्तता होती है—उसपर उचित रूप से गौर करना…।

• अनुत्पन्न अनिश्चितता उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई अनिश्चितता बढ़ाकर अत्याधिक करने का अनाहार क्या है? ऐसी बातें होती है जो कुशल व अकुशल, दोषपूर्ण व निर्दोष, स्थूल व सूक्ष्म, अंधेरे पक्ष व उजले पक्ष की होती है—उसपर उचित रूप से गौर करना अनाहार है—अनुत्पन्न कामेच्छा उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुई कामेच्छा बढ़ाकर अत्याधिक करने का।

«सं.नि.४६:५१»


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