कामच्छन्दप्पहान
~ कामुकता का संपूर्ण परित्याग ~
यह तीन उपमाएँ, जो पूर्व कभी न सुनी गयी थी, अचानक मेरे आगे प्रकट हुई।
कल्पना करो कि एक गीली, रसदार लकड़ी, जल में पड़ी हो, और एक पुरुष माचिस की तीली लेकर आए [सोचते हुए] ‘मैं अग्नि जलाऊंगा। मैं गर्मी प्रकट करूँगा।’ तो तुम्हें क्या लगता हैं? क्या वह पुरुष माचिस की तीली से वह जल में पड़ी गीली, रसदार लकड़ी जला पाएगा, गर्मी प्रकट कर पाएगा?
“नहीं भन्ते। क्योंकि वह लकड़ी गीली व रसदार है, और सिवाय जल में भी पड़ी हुई है। अंततः वह पुरुष मात्र थकान व निराशा के अलावा कुछ हासिल न कर पाएगा।”
उसी तरह किसी श्रमण या ब्राह्मण के साथ होता है—जो ‘काया व चित्त’ से कामुकता से निर्लिप्त न रहता हो, और जिसके भीतर कामुकता के प्रति चाह, मोहकता, आवेग और ताप का परित्याग या रोकथाम न हुआ हो—तब भले ही वह [संबोधि के लिए] खूब प्रयास करते हुए, ‘दर्दभरी पीड़ादायक भेदक’ वेदनाएँ महसूस करें, किंतु ज्ञान दर्शन और सर्वोत्तर सम्बोधि नहीं प्राप्त कर सकेगा। यह प्रथम उपमा, जो पूर्व कभी न सुनी गयी थी, अचानक मेरे आगे प्रकट हुई।
तब दूसरी उपमा, जो पूर्व कभी न सुनी गयी थी, अचानक मेरे आगे प्रकट हुई। कल्पना करो कि एक गीली, रसदार लकड़ी, जल से दूर, भूमि पर पड़ी हो, और एक पुरुष माचिस की तीली लेकर आए [सोचते हुए] ‘मैं अग्नि जलाऊंगा। मैं गर्मी प्रकट करूँगा।’ तो तुम्हें क्या लगता हैं? क्या वह पुरुष माचिस की तीली से जल से दूर, भूमि पर पड़ी वह गीली, रसदार लकड़ी जला पाएगा, गर्मी प्रकट कर पाएगा?
“नहीं भन्ते। क्योंकि वह लकड़ी गीली व रसदार है, भले ही वह जल से दूर, भूमि पर पड़ी हो। अंततः वह पुरुष मात्र थकान व निराशा के अलावा कुछ हासिल न कर पाएगा।”
उसी तरह किसी श्रमण या ब्राह्मण के साथ होता है—जो मात्र काया से कामुकता से निर्लिप्त रहता हो, किंतु जिसके भीतर कामुकता के प्रति चाह, मोहकता, आवेग और ताप का परित्याग व रोकथाम न हुआ हो—तब भले ही वह [संबोधि के लिए] खूब प्रयास करते हुए, ‘दर्दभरी पीड़ादायक भेदक’ वेदनाएँ महसूस करें, किंतु ज्ञान दर्शन और सर्वोत्तर सम्बोधि नहीं प्राप्त कर सकेगा। यह द्वितीय उपमा, जो पूर्व कभी न सुनी गयी थी, अचानक मेरे आगे प्रकट हुई।
तब तीसरी उपमा, जो पूर्व कभी न सुनी गयी थी, अचानक मेरे आगे प्रकट हुई। कल्पना करो कि एक सुखी, रसविहीन लकड़ी, जल से दूर, भूमि पर पड़ी हो, और एक पुरुष माचिस की तीली लेकर आए [सोचते हुए] ‘मैं अग्नि जलाऊंगा। मैं गर्मी प्रकट करूँगा।’ तो तुम्हें क्या लगता हैं? क्या वह पुरुष माचिस की तीली से जल से दूर, भूमि पर पड़ी वह सुखी, रसविहीन लकड़ी जला पाएगा, गर्मी प्रकट कर पाएगा?
“हाँ भन्ते। क्योंकि वह लकड़ी सुखी व रसविहीन है, और जल से दूर, भूमि पर भी पड़ी है।”
उसी तरह किसी श्रमण या ब्राह्मण के साथ होता है—जो ‘काया व चित्त’ से कामुकता से निर्लिप्त भी रहता हो, तथा जिसके भीतर कामुकता के प्रति चाह, मोहकता, आवेग और ताप का परित्याग और रोकथाम भी हुआ हो—अब भले ही वह [संबोधि के लिए] प्रयास करते हुए ‘दर्दभरी पीड़ादायक भेदक’ वेदनाएँ न भी महसूस करें, किंतु ज्ञान दर्शन और सर्वोत्तर सम्बोधि प्राप्त कर सकेगा। यह तृतीय उपमा, जो पूर्व कभी न सुनी गयी थी, अचानक मेरे आगे प्रकट हुई।
«मा.नि.३६»
संयोग-विसंयोग — गौर से सुनो भिक्षुओं, मैं तुम्हें बंधन एवं बंधनविहीनता का धर्मस्वभाव बताता हूँ— कोई बंधन में कैसे पड़ता है? कोई स्त्री अपने स्त्री-इंद्रियों पर गौर करती है—स्त्री-अदा, स्त्री-ढंग, स्त्री-चालचलन, स्त्री-चाहत, स्त्री-आवाज़, स्त्री-सजावट। तब वह उत्तेजित होती है, उसमें लिप्त होने लगती है। भीतर उत्तेजित व लिप्त होकर वह बाहर पुरुष-इंद्रियों पर गौर करती है—पुरुष-अदा, पुरुष-ढंग, पुरुष-चाहत, पुरुष-आवाज़, पुरुष-सजावट। तब वह बाहर से उत्तेजित होती है, लिप्त होने लगती है। उत्तेजित व लिप्त होकर वह बाहर बंधना चाहती है, बंधन से उत्पन्न सुख व ख़ुशी «सुख सोमनस्स» पाना चाहती है। अपने स्त्रीत्व में उलझी स्त्री, लिप्त होकर पुरुष-बंधन में पड़ती है। इस तरह कोई स्त्री स्त्रीत्व लाँघ नहीं पाती। कोई पुरुष अपने पुरुष-इंद्रियों पर गौर करता है—अपनी पुरुष-अदा, पुरुष-ढंग, पुरुष-चालचलन, पुरुष-चाहत, पुरुष-आवाज़, पुरुष-सजावट। तब वह उत्तेजित होता है, उसमें लिप्त होने लगता है। भीतर उत्तेजित व लिप्त होकर वह बाहर स्त्री-इंद्रियों पर गौर करता है—स्त्री-अदा, स्त्री-ढंग, स्त्री-चालचलन, स्त्री-चाहत, स्त्री-आवाज़, स्त्री-सजावट। तब वह बाहर से उत्तेजित होता है, लिप्त होने लगता है। उत्तेजित व लिप्त होकर वह बाहर बंधना चाहता है, बंधन से उत्पन्न सुख व ख़ुशी पाना चाहता है। अपने पुरुषत्व में उलझा पुरुष, लिप्त होकर स्त्री-बंधन में पड़ता है। इस तरह कोई पुरुष पुरुषत्व लाँघ नहीं पाता। — इस तरह कोई बंधन में पड़ता है। कोई बंधन कैसे तोड़ता है? कोई स्त्री अपने स्त्री-इंद्रियों पर [अनुचित तरह से] गौर नहीं करती—स्त्री-अदा, स्त्री-ढंग, स्त्री-चालचलन, स्त्री-चाहत, स्त्री-आवाज़, स्त्री-सजावट। तब वह उत्तेजित नहीं होती, लिप्त नहीं होने लगती। भीतर उत्तेजित व लिप्त न होनेपर वह बाहर पुरुष-इंद्रियों पर ध्यान नहीं देती—पुरुष-अदा, पुरुष-ढंग, पुरुष-चाहत, पुरुष-आवाज़, पुरुष-सजावट। तब वह बाहर से उत्तेजित नहीं होती, लिप्त नहीं होने लगती। उत्तेजित व लिप्त न होनेपर वह बाहर बंधना नहीं चाहती, बंधन से उत्पन्न सुख व ख़ुशी पाना भी नहीं चाहती। अपने स्त्रीत्व में न उलझी स्त्री, लिप्त न होनेपर पुरुष-बंधन में नहीं पड़ती। इस तरह कोई स्त्री स्त्रीत्व लाँघती है। कोई पुरुष अपने पुरुष-इंद्रियों पर [अनुचित तरह से] गौर नहीं करता—अपनी पुरुष-अदा, पुरुष-ढंग, पुरुष-चालचलन, पुरुष-चाहत, पुरुष-आवाज़, पुरुष-सजावट। तब वह उत्तेजित नहीं होता, लिप्त नहीं होने लगता। भीतर उत्तेजित व लिप्त न होनेपर वह बाहर स्त्री-इंद्रियों पर ध्यान नहीं देता—स्त्री-अदा, स्त्री-ढंग, स्त्री-चालचलन, स्त्री-चाहत, स्त्री-आवाज़, स्त्री-सजावट। तब वह बाहर से उत्तेजित नहीं होता, लिप्त होने नहीं लगता। उत्तेजित व लिप्त न होनेपर वह बाहर बंधना नहीं चाहता, बंधन से उत्पन्न सुख व ख़ुशी पाना भी नहीं चाहता। अपने पुरुषत्व में न उलझा पुरुष, लिप्त न होनेपर स्त्री-बंधन में नहीं पड़ता। इस तरह कोई पुरुष पुरुषत्व लाँघता है। — इस तरह कोई बंधन तोड़ता है। और यही बंधन एवं बंधनविहीनता का धर्मस्वभाव है। «अं.नि.७:४८»
सात काम उपमाएँ (१) कल्पना करो कि कोई दुर्बल, भूखा कुत्ता कसाईखाने की ओर आए। तब कोई कसाई उसके आगे हड्डियों की लड़ी उछाले—पूर्णतः कुरेदी हुई, माँसविहीन, रक्तसनी। तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह कुत्ता उस पूर्णतः कुरेदी हुई, माँसविहीन, रक्तसनी हड्डियों की लड़ी चबाकर अपनी दुर्बलता व भूख मिटा सकता है? “नहीं, भन्ते। क्योंकि हड्डियों की लड़ी पूर्णतः कुरेदी हुई, माँसविहीन, रक्तसनी है। कुत्ते को थकान व परेशानी के अलावा कुछ हासिल न होगा।” उसी तरह भिक्षुओं, कोई भिक्षु इस मुद्दे पर चिंतन करता है—‘भगवान ने कामुकता की तुलना ‘हड्डियों की लड़ी’ से की है, जो बड़ी कष्टप्रद है! बड़ी निराशाजनक है! जिसके दुष्परिणाम अधिक है!’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखकर ‘विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता’ 1 टालते हुए, वह ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ 2 की साधना करता है, जहाँ दुनिया के सभी प्रलोभन व आधार बिना शेष बचे विलीन हो जाते है। (२) अब कल्पना करो कि कोई गिद्ध बाज़ या चील माँस का टुकड़ा दबोचकर उड़े, किंतु अन्य गिद्ध बाज़ या चील उसके पीछे पड़ जाए। उसे चोंच से नोच-खसोट करें, पंजों से छीना-झपटी करें। तो तुम्हें क्या लगता है? यदि वह गिद्ध बाज़ या चील, माँस का टुकड़ा तुरंत न गिरा दे, तो क्या उस कारणवश उसकी मौत होगी, या मौत जैसी पीड़ा? “ज़रूर होगी, भन्ते!” उसी तरह कोई भिक्षु इस मुद्दे पर चिंतन करता है—‘भगवान ने कामुकता की तुलना ‘माँस के टुकड़े’ से की है, जो बड़ी कष्टप्रद है! बड़ी निराशाजनक है! जिसके दुष्परिणाम अधिक है!’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखकर ‘विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता’ टालते हुए, वह ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ की साधना करता है, जहाँ दुनिया के सभी प्रलोभन व आधार बिना शेष बचे विलीन हो जाते है। (३) अब कल्पना करो कि कोई पुरुष घास की मशाल लेकर आँधी के आगे खड़ा हो जाए। तो तुम्हें क्या लगता है? यदि वह घास की मशाल तुरंत न गिरा दे, तो क्या उस कारणवश उसकी मौत होगी, या मौत जैसी पीड़ा? “ज़रूर होगी, भन्ते!” उसी तरह कोई भिक्षु इस मुद्दे पर चिंतन करता है—‘भगवान ने कामुकता की तुलना ‘घास के मशाल’ से की है, जो बड़ी कष्टप्रद है! बड़ी निराशाजनक है! जिसके दुष्परिणाम अधिक है!’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखकर ‘विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता’ टालते हुए, वह ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ की साधना करता है, जहाँ दुनिया के सभी प्रलोभन व आधार बिना शेष बचे विलीन हो जाते है। (४) अब कल्पना करो कि एक अंगारे भरा गड्ढा हो—पुरुष की लंबाई से गहरा, न लपटे न धुँवा फेकते अंगारों से धधकता हुआ। तब एक पुरुष आए, जिसे प्राण प्यारे हो, मौत से नफ़रत। जिसे सुख की चाह हो, दर्द से घृणा। तब दो बलवान पुरुष आए, और उसकी बाँह पकड़कर घसीटते हुए उसे अंगारेभरे गड्ढे तक लाए। तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पुरुष काया ऐसे-तैसे मरोड़ेगा? “ज़रूर, भन्ते। क्योंकि उसे लगेगा—‘यदि मैं इस अंगारेभरे गड्ढे में गिर जाऊ, तो उस कारणवश मेरी मौत होगी, या मौत जैसी पीड़ा।’” उसी तरह कोई भिक्षु इस मुद्दे पर चिंतन करता है—‘भगवान ने कामुकता की तुलना अंगारेभरे गड्ढे से की है, जो बड़ी कष्टप्रद है! बड़ी निराशाजनक है! जिसके दुष्परिणाम अधिक है!’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखकर ‘विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता’ टालते हुए, वह ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ की साधना करता है, जहाँ दुनिया के सभी प्रलोभन व आधार बिना शेष बचे विलीन हो जाते है। (५) अब कल्पना करो कि कोई पुरुष स्वप्न में ख़ुशनुमा बगीचे, ख़ुशनुमा वन, ख़ुशनुमा परिसर, ख़ुशनुमा झील देखें। किंतु उठने पर कुछ भी नहीं। उसी तरह कोई भिक्षु इस मुद्दे पर चिंतन करता है—‘भगवान ने कामुकता की तुलना स्वप्न से की है, जो बड़ी कष्टप्रद है! बड़ी निराशाजनक है! जिसके दुष्परिणाम अधिक है!’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखकर ‘विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता’ टालते हुए, वह ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ की साधना करता है, जहाँ दुनिया के सभी प्रलोभन व आधार बिना शेष बचे विलीन हो जाते है। (६) अब कल्पना करो कि कोई पुरुष उधार वस्तुएँ ले—मर्दाना रथ, मूल्यवान रत्न व कर्ण आभूषण। उधार वस्तुएँ ले पहनकर वह बाज़ार जाए, जहाँ लोग देखकर कहने लगे—‘कितना धनी होगा यह पुरुष! इस तरह धनी लोग संपत्ति का भोगविलास करते है।’ किंतु तब उधार वस्तुओं के असली स्वामी आए, और उसे जहाँ कही देखें, अपनी-अपनी वस्तुएँ छीन ले। तो तुम्हें क्या लगता है? क्या उस पुरुष की नाराज़ी उचित होगी? “नहीं, भन्ते। क्योंकि स्वामी अपनी-अपनी वस्तुएँ ले ही जाते है।” उसी तरह कोई भिक्षु इस मुद्दे पर चिंतन करता है—‘भगवान ने कामुकता की तुलना उधार वस्तुओँ से की है, जो बड़ी कष्टप्रद है! बड़ी निराशाजनक है! जिसके दुष्परिणाम अधिक है!’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखकर ‘विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता’ टालते हुए, वह ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ की साधना करता है, जहाँ दुनिया के सभी प्रलोभन व आधार बिना शेष बचे विलीन हो जाते है। (७) अब कल्पना करो किसी गाँव या नगर के समीप घना जंगल हो। वहाँ एक ख़ूब स्वादिष्ट फ़लों से लदा पेड़ हो, जिसका कोई फ़ल नीचे न गिरा हो। तब एक पुरुष फ़लों की चाह में, फ़लों को ढूँढते हुए घने जंगल जाए। वहाँ उसे वह ख़ूब स्वादिष्ट फ़लों से लदा पेड़ दिखाई दे, जिसका कोई फ़ल नीचे न गिरा हो। तब वह सोचे—‘यह ख़ूब स्वादिष्ट फ़लों से लदा पेड़ है, किंतु कोई फ़ल नीचे नहीं गिरा है। परंतु मुझे पेड़ पर चढ़ना आता है। क्यों न मैं पेड़ पर चढ़ जाऊँ, चाहे जितने फ़ल खाऊँ, और वस्त्र भरकर फ़ल इकट्ठा करूँ?’ तब वह उस पेड़ पर चढ़े, चाहे जितने फ़ल खाए, और वस्त्र भरकर फ़ल इकट्ठा करने लगे। तभी दूसरा पुरुष फ़लों की चाह में, फ़लों को ढूँढते हुए उसी घने जंगल आए। वहाँ उसे वह ख़ूब स्वादिष्ट फ़लों से लदा पेड़ दिखाई दे, जिसका कोई फ़ल नीचे न गिरा हो। तब वह सोचे—‘यह ख़ूब स्वादिष्ट फ़लों से लदा पेड़ है, किंतु कोई फ़ल नीचे नहीं गिरा है। अब मुझे पेड़ पर चढ़ना नहीं आता। क्यों न मैं पेड़ ही काट दूँ। तब चाहे जितने फ़ल खाऊँ, और वस्त्र भरकर फ़ल इकट्ठा करूँ?’ तब वह उस पेड़ को काटने लगे। तो तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? यदि पेड़ पर चढ़ा हुआ प्रथम पुरुष तुरंत नीचे न आए, तो गिरते पेड़ से उसका शरीर कुचल न जाएगा, जिस कारणवश उसकी मौत न होगी, या मौत-जैसी पीड़ा? “ज़रूर होगी, भन्ते।” उसी तरह कोई भिक्षु इस मुद्दे पर चिंतन करता है—‘भगवान ने कामुकता की तुलना पेड़ के फ़लों से की है, जो बड़ी कष्टप्रद है! बड़ी निराशाजनक है! जिसके दुष्परिणाम अधिक है!’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखकर ‘विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता’ टालते हुए, वह ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ की साधना करता है, जहाँ दुनिया के सभी प्रलोभन व आधार बिना शेष बचे विलीन हो जाते है। «मा.नि.५४ + मा.नि.१३७»
कोढ़ उपमा कल्पना करो कि कोई कोढ़ी हो—सड़े-पके फोड़े भरा शरीर, जिस में कीड़े पड़ चुके हो। घाव-मुखों को नाख़ून से कुरेदता हो। शरीर जलते अंगारों से दग्ध करता हो। उसके मित्र सहचारी व रिश्तेदार उसे वैद्य के पास ले जाए। वैद्य उसकी चिकित्सा करें, दवाई दे। अंततः चिकित्सा व दवाई की मदद से वह कोढ़ी कुष्टरोग से मुक्त हो जाए—भला चंगा, स्वतंत्र, अपना मालिक स्वयं, जहाँ चाहे वहाँ जा सके। तब दो बलवान पुरुष आकर उसकी बाँह पकड़कर घसीटते हुए उसे अंगारे भरे गड्ढे तक लाए। तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पुरुष काया को ऐसे-तैसे नहीं मरोड़ेगा? “ज़रूर, भन्ते। क्योंकि अग्निस्पर्श पीड़ादायक, बड़ा ताप, बड़ा दाह भरा होता है।” किंतु तुम्हें क्या लगता है? अग्निस्पर्श पीड़ादायक, बड़ा ताप, बड़ा दाह भरा अभी हुआ, या पहले भी था? “अभी और पहले भी अग्निस्पर्श पीड़ादायक, बड़ा ताप, बड़ा दाह भरा ही था। किंतु पहले जब वह कोढ़ी था—सड़े-पके फोड़े भरा शरीर, जिस में कीड़े पड़ चुके थे। घाव-मुखों को नाख़ून से कुरेदता था। शरीर जलते अंगारों से दग्ध करता था—तब उसकी इंद्रियों में बिगाड़ हुआ था। इसलिए भले ही अग्निस्पर्श वाक़ई पीड़ादायक, बड़ा ताप, बड़ा दाह भरा ही था, परंतु सुख को लेकर उसका नज़रिया उल्टा हो गया था।” उसी तरह अतीतकाल में भी कामुकता—पीड़ादायक, बड़ी ताप, बड़ी दाहभरी ही होती थी। भविष्यकाल में भी कामुकता—पीड़ादायक, बड़ी ताप, बड़ी दाहभरी ही रहेगी। वर्तमानकाल में भी कामुकता पीड़ादायक, बड़ी ताप, बड़ी दाहभरी ही होती है। परंतु जब तक सत्व काम-राग [=कामुक दिलचस्पी] से मुक्त नहीं होते, तब तक काम-तृष्णा द्वारा चबाए जाते है। काम-ताप द्वारा दग्ध होते रहते है। उनकी इंद्रियों में बिगाड़ हुआ होता है। इसलिए भले ही कामुक-स्पर्श वाक़ई पीड़ादायक, बड़ा ताप, बड़ा दाह भरा ही होता है, किंतु सुख को लेकर सत्वों का नज़रिया उल्टा हो चुका होता है। कल्पना करो कि वही कोढ़ी हो—सड़े-पके फोड़े भरा शरीर, जिस में कीड़े पड़ चुके हो। घाव-मुखों को नाख़ून से कुरेदता हो। शरीर जलते अंगारों से दग्ध करता हो। जितना अधिक वह जलते अंगारों से अपना शरीर दग्ध करता है, उतना ही अधिक उसके घाव-मुख घिनौनी दुर्गंध व पीब निकालते हुए सड़ने लगते है। तब भी घाव-मुखों में खुजलाहट के कारण उसे क्षणभर मज़ा आता है, संतुष्टि महसूस होती है। उसी तरह जब तक सत्व काम-राग से मुक्त नहीं होते, तब तक काम-तृष्णा द्वारा चबाए जाते है। काम-ताप द्वारा दग्ध होते वह कामुकता में अधिक लिप्त होते जाते है। जितना अधिक वह कामुकता में लिप्त होते जाए, उतनी अधिक कामतृष्णा फ़िर भड़कती है। और परिणामस्वरूप कामताप से सत्व अधिक दग्ध होते जाते है। तब भी ‘पाँच कामगुण’ पर आश्रित होने के कारण उन्हें क्षणभर मज़ा आता है, संतुष्टि महसूस होती है। तो तुम्हें क्या लगता है? क्या तुमने ऐसे राजा या राजमंत्री के बारे में सुना या देखा, जिसके लिए ‘पाँच कामगुण’ का प्रबंध किया गया हो, जो उसमें लिप्त हो—वह कामतृष्णा बिना त्यागे, कामताप बिना हटाए, प्यासरहित हो भीतर प्रशांत चित्त से रहता था, या रहता हो, या रहेगा? “नहीं, भो गौतम!” साधु! मैंने भी ऐसे राजा या राजमंत्री के बारे में न सुना न देखा, जिसके लिए ‘पाँच कामगुण’ का प्रबंध किया गया हो, जो उसमें लिप्त हो—वह कामतृष्णा बिना त्यागे, कामताप बिना हटाए, प्यासरहित हो भीतर प्रशांत चित्त से रहता था, या रहता हो, या रहेगा। बल्कि जो श्रमण व ब्राह्मण वाक़ई प्यासरहित हो, भीतर प्रशांत चित्त से रहते थे, या रहते हो, या रहेंगे—वह सभी कामतृष्णा त्यागकर ही ऐसा कर पाए। कामताप हटाकर ही ऐसा कर पाए। कामुकता की उत्पत्ति व व्यय, प्रलोभन, ख़तरा व निकलने का मार्ग—जैसे हो, वैसे पता कर ही ऐसा कर पाए। «मा.नि.७५»
काम-प्रलोभन «अस्साद» क्या है? — पाँच कामगुण होते है। कौन से पाँच? • आँख पर टकराता रूप—जो पसंदीदा सुखद मोहक प्रिय लुभावना कामुकता से जुड़ा हो। • कान पर टकराती आवाज़—जो पसंदीदा सुखद मोहक प्रिय लुभावनी कामुकता से जुड़ी हो। • नाक पर टकराती गन्ध—जो पसंदीदा सुखद मोहक प्रिय लुभावनी कामुकता से जुड़ी हो। • जीभ पर टकराता स्वाद—जो पसंदीदा सुखद मोहक प्रिय लुभावना कामुकता से जुड़ा हो। • शरीर पर टकराता संस्पर्श—जो पसंदीदा सुखद मोहक प्रिय लुभावना कामुकता से जुड़ा हो। — इन पाँच कामगुण पर आधारित जो सुख व ख़ुशी मिलती है, वही काम-प्रलोभन है। और यही ‘पाँच कामगुण’ आर्य धर्म-विनय में ‘दुनिया’ «लोक» कहलाती है। काम-दुष्परिणाम «आदीनव» क्या है? • ऐसा होता है कोई कुलपुत्र रोज़गार द्वारा जीविका चलाता है—चाहे पैसा व्यवहार हो, या लेखागणना, संख्यागणना, कृषि, व्यापार, वाणिज्य, गो-पालन, आयुध, बाणअस्त्र, राजा की नौकरी, या अन्य शिल्पकारी। तब जीविका कमाते समय उसे ठंडी लगती है, गर्मी लगती है; मक्खियाँ मच्छर हवा धूप बिच्छु साँप के संस्पर्श से परेशान होता है; भूख प्यास से मरता अपनी जीविका कमाता है। अब यह दुष्परिणाम, दुःख संग्रह, जो «सन्दिट्ठिको» अभी यहीं दिखता है—कामुकता ही कारण «हेतु» है, कामुकता ही स्त्रोत «निदान» है, कामुकता के ही परिणामस्वरूप «अधिकरण» है, उसकी वजह बस कामुकता ही है। • अब कुलपुत्र इतना काम कर, परिश्रम कर, ज़ोर लगाकर धनदौलत प्राप्त न कर पाए—तो अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, मातम करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है—‘हाय! मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ गया। सारी मेहनत पानी में गई!’ अब यह दुष्परिणाम, दुःख संग्रह, जो अभी यहीं दिखता है—कामुकता ही कारण है, कामुकता ही स्त्रोत है, कामुकता के ही परिणामस्वरूप है, उसकी वजह बस कामुकता ही है। • अब कुलपुत्र इतना काम कर, परिश्रम कर, ज़ोर लगाकर धनदौलत प्राप्त करें—तो उसका बचाव करते हुए दर्द व व्यथा «दुक्ख दोमनस्स» महसूस करता है—‘कहीं मेरी धनदौलत सरकार न छीन ले, चोर-डाकू न लूट ले, आग न जला दे, बाढ़ न बहा दे, नालायक वारिस बर्बाद न कर दे!’ किंतु धनदौलत बचाते हुए, संगोपन करते हुए उसकी धनसंपत्ति सरकार छीन लेती है, या चोर-डाकू लूट लेते है, या आग जला देती है, या बाढ़ बहा देती है, या अंततः नालायक वारिस बर्बाद कर देता है—तो वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, मातम करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है—‘हाय! मेरा जो भी था, नहीं बचा!’ अब यह दुष्परिणाम, दुःख संग्रह, जो अभी यहीं दिखता है—कामुकता ही कारण है, कामुकता ही स्त्रोत है, कामुकता के ही परिणामस्वरूप है, उसकी वजह बस कामुकता ही है। • और फ़िर कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह बस कामुकता ही है—कि राजा राजाओं से लड़ते है, क्षत्रिय क्षत्रियों से लड़ते है, ब्राह्मण ब्राह्मणों से लड़ते है, गृहस्थ गृहस्थों से लड़ते है; माँ पुत्र से लड़ती है, पुत्र माँ से। बाप पुत्र से लड़ता है, पुत्र बाप से। भाई भाई से लड़ता है। भाई बहन से लड़ती है, बहन भाई से। मित्र मित्रों से लड़ते है। और फ़िर वे लड़ते, झगड़ते, विवाद करते एक-दूसरे पर हाथ उठाते हैं, पत्थर उठाते हैं, डंडों चाक़ू शस्त्रों से हमला करते हैं। तब इस कलह में मौतें होती हैं, या मौत जैसी पीड़ा। अब यह दुष्परिणाम, दुःख संग्रह, जो अभी यहीं दिखता है—कामुकता ही कारण है, कामुकता ही स्त्रोत है, कामुकता के ही परिणामस्वरूप है, उसकी वजह बस कामुकता ही है। • आगे, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह बस कामुकता ही है—कि लोग हाथों में ढ़ाल-तलवार लेकर, तीर-धनुष चढ़ाकर दोनों ओर से व्यूहरचित युद्ध में आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं—जहाँ तीर व भालें उड़ते है, तलवारें चमकती हैं। लोग तीर-भालों से बींधते घायल होते हैं। सिर तलवारों से काटे जाते हैं। फ़िर इसमें मौतें होती हैं, या मौत जैसी पीड़ा। अब यह दुष्परिणाम, दुःख संग्रह, जो अभी यहीं दिखता है—कामुकता ही कारण है, कामुकता ही स्त्रोत है, कामुकता के ही परिणामस्वरूप है, उसकी वजह बस कामुकता ही है। • आगे, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह बस कामुकता ही है—कि लोग हाथों में ढ़ाल-तलवार लेकर, तीर-धनुष चढ़ाकर फ़िसलनभरे ऊँचे किल्लों पर आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं—जहाँ तीर व भालें उड़ते हैं, तलवारें चमकती हैं। ऊपर से उबलता ग़ोबर गिराया जाता है। भारी चट्टाने गिराकर कुचला जाता है। सिर तलवारों से काटे जाते हैं। फ़िर इसमें मौतें होती हैं, या मौत जैसी पीड़ा। अब यह दुष्परिणाम, दुःख संग्रह, जो अभी यहीं दिखता है—कामुकता ही कारण है, कामुकता ही स्त्रोत है, कामुकता के ही परिणामस्वरूप है, उसकी वजह बस कामुकता ही है। • आगे, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह बस कामुकता ही है—कि लोग खिड़कियाँ तोड़कर चोरी लूट डाके डालते है, मार्ग पर घात लगाते है, व्यभिचार करते है। और जब उन्हें गिरफ्तार किया जाता है, तो दंडस्वरूप राजा उन्हें विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करवाते है—चाबुक़ से पिटवाते है। कोड़े लगवाते है। मुग्दर या बेंत से भी पिटाई करवाते है। डंडों से भी पिटाई करवाते है। उनके हाथ कटवाते है। उनके पैर कटवाते है। उनके हाथ-पैर दोनों कटवाते है। उनके कान भी कटवाते है। नाक कटवाते है। कान-नाक दोनों कटवाते है। या उन्हें तरह-तरह से उत्पीड़न देते है—जैसे खोपड़ी निकालकर उसमें गर्म लोहा भी डाल देते है। सिर की चमड़ी उतारकर खोपड़ी से कंकड़ों को रगड़ते भी है। चिमटे से मुँह खुलवाकर उसमें दीपक भी जला देते है। सारे शरीर पर तेलबत्ती लपेटकर उसमें आग भी लगा देते है। हाथ पर तेलबत्ती लपेटकर उसमें भी आग लगा देते है। गले से कलाई तक की चमड़ी भी उतार देते है। गले से कुल्हे तक की चमड़ी भी उतार देते है। दोनों कोहनियों तथा दोनों घुटनों में खूँटा ठोक कर ज़मीन पर भी लिटा देते है। दोनों ओर से नुक़िले काँटे गाड़-गाड़कर चमड़ी माँस व नसें भी नचोट लेते है। सारे शरीर की चमड़ी को सिक्के-सिक्के भर भी छिलवाते है। शरीर को जहाँ-तहाँ शस्त्रों से पीटकर उसपर कंघी भी फेरते है। एक करवट लिटाकर कानों में खूँटा भी गाड़ देते है। चमड़ी को बिना हानि पहुँचाये भीतर ही भीतर हड्डी भी पीस डालते है। उबलता हुआ तेल भी डालते है। कुत्तों द्वारा नोच-नोच कर भी खिलवाते है। खूँटी घुसाकर सुली पर भी लटकाते है। और तलवार से सिर भी कटवाते है। फ़िर इसमें मौतें भी होती हैं, या मौत जैसी पीड़ा। अब यह दुष्परिणाम, दुःख संग्रह, जो अभी यहीं दिखता है—कामुकता ही कारण है, कामुकता ही स्त्रोत है, कामुकता के ही परिणामस्वरूप है, उसकी वजह बस कामुकता ही है। • आगे, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह बस कामुकता ही है—लोग कायिक दुराचरण, वाचिक दुराचरण, मानसिक दुराचरण में लिप्त हो जाते हैं। दुराचरण में लिप्त होने पर मृत्युपरांत काया छूटने पर दयनीय लोक, दुर्गति, नीचे यातनालोक, नरक में उत्पन्न होते हैं। अब यह दुष्परिणाम, दुःख संग्रह, जो अभी यहीं दिखता है—कामुकता ही कारण है, कामुकता ही स्त्रोत है, कामुकता के ही परिणामस्वरूप है, उसकी वजह बस कामुकता ही है। काम-निकास «निस्सरण» क्या है? कामुकता के प्रति चाह व दिलचस्पी हटाना, कामुकता के प्रति चाह व दिलचस्पी त्याग देना—बस यही कामुकता से बच निकलने का मार्ग है। कोई श्रमण व ब्राह्मण इस तरह ‘काम-प्रलोभन’ जैसे हो, वैसे सही न पता करें, ‘काम-दुष्परिणाम’ जैसे हो, वैसे सही न पता करें, ‘काम-निकास’ जैसे हो, वैसे सही न पता करें, तब वे स्वयं कामुकता समझ पाए, या दूसरों को समझा पाए—असंभव है। परंतु कोई श्रमण व ब्राह्मण इस तरह ‘काम-प्रलोभन’ जैसे हो, वैसे सही पता करें, ‘काम-दुष्परिणाम’ जैसे हो, वैसे सही पता करें, ‘काम-निकास’ जैसे हो, वैसे सही पता करें, तब वे स्वयं कामुकता समझ पाए, या दूसरों को समझा पाए—यह संभव है। «मा.नि.१४ + सं.नि.३५:८२»
रूप-आकर्षण «अस्साद» क्या है? कल्पना करो कि कोई पंद्रह या सोलह वर्ष की क्षत्रियकन्या हो, या ब्राह्मणकन्या हो, या गृहस्थकन्या हो—न बहुत लंबी, न बहुत नाटी। न बहुत पतली, न बहुत मोटी। न बहुत काली, न बहुत गोरी। क्या उसकी सुंदरता व मोहकता उस समय चरमस्थिति पर होगी? “हाँ, भन्ते!” उसकी सुंदरता व मोहकता पर आधारित जो सुख व ख़ुशी उत्पन्न हो—वही रूपों का आकर्षण होता है। रूप में ख़ामी «आदीनव» क्या है? कल्पना करो कि कोई उसी स्त्री को पश्चात देखें—अस्सी नब्बे या सौ वर्ष की बूढ़ी—ऊपरी शरीर टेढ़ा-मेढ़ा, झुका हुआ, लट्ठ के सहारे चलता या खड़ा, लक़वे से ग्रस्त, दर्द पीड़ा में, त्रस्त हो चुकी, दाँत टूट चुके, केश भूरे पड़ चुके, अर्ध गंजी या पूर्ण गंजी, काया पूर्णतः झुर्रिदार व धब्बेदार। तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या उसकी पूर्व सुंदरता व मोहकता ग़ायब हुई, और ख़ामी प्रकट हुई? “हाँ, भन्ते!” — यह भिक्षुओं, रूप में ख़ामी है। आगे कोई उस स्त्री को देखें—बीमार, गंभीर रोग से ग्रस्त, दर्द पीड़ा में कराहते, स्वयं के मलमूत्र में सनी, दूसरों द्वारा उठायी जाती, दूसरों द्वारा लिटायी जाती। तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या उसकी पूर्व सुंदरता व मोहकता ग़ायब हुई, और ख़ामी प्रकट हुई? “हाँ, भन्ते!” — यह भी भिक्षुओं, रूप में ख़ामी है। और आगे कोई उसी स्त्री की लाश देखें—एक दिन पुरानी, दो दिन पुरानी, तीन दिन पुरानी—फूल चुकी; नीली पड़ चुकी; पीब रिसती। तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या उसकी पूर्व सुंदरता व मोहकता ग़ायब हुई, और ख़ामी प्रकट हुई? “हाँ, भन्ते!” — यह भी भिक्षुओं, रूप में ख़ामी है। और आगे, कोई उसी स्त्री की लाश देखें—कौवों द्वारा नोची जाती, चीलों द्वारा नोची जाती, गिद्धों द्वारा नोची जाती, बगुलों द्वारा नोची जाती, कुत्तों द्वारा चबाई जाती, बाघ द्वारा चबाई जाती, तेंदुए द्वारा चबाई जाती, सियार द्वारा चबाई जाती, अथवा विविध जंतुओं द्वारा खायी जाती। तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या उसकी पूर्व सुंदरता व मोहकता ग़ायब हुई, और ख़ामी प्रकट हुई? “हाँ, भन्ते!” — यह भी भिक्षुओं, रूप में ख़ामी है। और आगे, कोई उसी स्त्री की लाश देखें— • मांसयुक्त, रक्त से सनी, नसों से बँधी, हड्डी-कंकालवाली… • मांसरहित, रक्त से सनी, नसों से बँधी, हड्डी-कंकालवाली… • मांसरहित, रक्तरहित, नसों से बँधी, हड्डी-कंकालवाली… • मांसरहित, रक्तरहित, नसों से बिना बँधी, हड्डियां जहाँ-वहाँ बिखरी हुई—कही हाथ की हड्डी; कही पैर की; कही टखने की हड्डी; कही जाँघ की; कही कूल्हे की हड्डी; कही कमर की; कही पसली; कही पीठ की हड्डी; कही कंधे की हड्डी; कही गर्दन की; कही ठोड़ी की हड्डी; कही दाँत; कही खोपड़ी। तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या उसकी पूर्व सुंदरता व मोहकता ग़ायब हुई, और ख़ामी प्रकट हुई? “हाँ, भन्ते!” — यह भी भिक्षुओं, रूप में ख़ामी है। और आगे, कोई उसी स्त्री को देखें— • हड्डिया शंख जैसे सफ़ेद हो चुकी… • वर्षों पश्चात हड्डियों का ढ़ेर लगा हुआ… • हड्डिया सड़कर चूर्ण बन चुकी हो। तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या उसकी पूर्व सुंदरता व मोहकता ग़ायब हुई, और ख़ामी प्रकट हुई? “हाँ, भन्ते!” — यह भी भिक्षुओं, रूप में ख़ामी है। रूप-निकास «निस्सरण» क्या है? रूप के प्रति चाह व दिलचस्पी हटाना, रूप के प्रति चाह व दिलचस्पी त्याग देना—बस यही रूप से निकलने का मार्ग है। कोई श्रमण व ब्राह्मण इस तरह ‘रूप-आकर्षण’ जैसे हो, वैसे सही न पता करें, ‘रूप-ख़ामी’ जैसी हो, वैसे सही न पता करें, ‘रूप-निकास’ जैसे हो, वैसे सही न पता करें, तब वे स्वयं रूप समझ पाए, या दूसरों को समझा पाए—असंभव है। परंतु कोई श्रमण व ब्राह्मण ‘रूप-आकर्षण’ जैसे हो, वैसे सही पता करें, ‘रूप-ख़ामी’ जैसी हो, वैसे सही पता करें, ‘रूप-निकास’ जैसे हो, वैसे सही पता करें, तब वे स्वयं रूप समझ पाए, या दूसरों को समझा पाए—यह संभव है। «मा.नि.१३»
«धम्मपद १४७ + १५०»
«सु.नि.१:३»
«अं.नि.६:६३»
झान आहार कामुकता जैसी हो, भले ही कोई वैसे पता कर देख चुका हो कि वह वाक़ई बड़ी कष्टप्रद है! बड़ी निराशाजनक है! जिसके दुष्परिणाम अधिक है! किंतु उसने जब तक ऐसी प्रफुल्लता व सुख न उपलब्ध किया हो, जो कामुकता के अलावा, अकुशल स्वभावों के अलावा मिलता हो, जो अधिक तृप्त करता हो—तब तक वह कामुकता द्वारा ललचाया जा सकता है। परंतु कामुकता जैसी हो, वैसे कोई पता कर देख चुका हो कि वह वाक़ई बड़ी कष्टप्रद है! बड़ी निराशाजनक है! जिसके दुष्परिणाम अधिक है!—साथ ही ऐसी प्रफुल्लता व सुख भी उपलब्ध 3 किया हो, जो कामुकता के अलावा, अकुशल स्वभावों के अलावा मिलता हो, जो अधिक तृप्त करता हो—तब वह कामुकता द्वारा ललचाया नहीं जा सकता। मैं भी जब संबोधि पूर्व केवल एक बोधिसत्व था, कामुकता जैसी हो, वैसे पता कर देख चुका था कि वह वाक़ई बड़ी कष्टप्रद होती है! बड़ी निराशाजनक होती है! जिसके दुष्परिणाम अधिक होते है! किंतु जब तक मैंने ऐसी प्रफुल्लता व सुख [=झान] न उपलब्ध किया, जो कामुकता के अलावा, अकुशल स्वभावों के अलावा मिलता हो, जो अधिक तृप्त करता हो—तब तक मैंने दावा नहीं किया कि मैं कामुकता से ललचाया नहीं जा सकता। परंतु [पश्चात] जब मैंने… साथ ही ऐसी [झान की] प्रफुल्लता व सुख भी उपलब्ध कर लिया, जो कामुकता के अलावा, अकुशल स्वभावों के अलावा मिलता हो, जो अधिक तृप्त करता हो—तब जाकर मैंने दावा किया कि अब मैं कामुकता से ललचाया नहीं जा सकता। «मा.नि.१४»
कुशल-सुख पाँच कामगुणों पर आधारित जो भी [कायिक] सुख व [मानसिक] ख़ुशी मिलती है, उसे ‘कामसुख’ कहते है, ‘घिनौना सुख’ कहते है, ‘देहाती सुख’ कहते है, ‘अनार्य सुख’ कहते है। मैं कहता हूँ कि उस सुख के साथ नहीं जुड़ना चाहिए, उसे नहीं विकसित करना चाहिए, उसके पीछे नहीं पड़ना चाहिए। बल्कि उससे भयभीत होना चाहिए। जबकि कुछ लोग कहते हैं कि ‘दुनिया में महसूस होनेवाली सर्वोच्च ‘सुख व ख़ुशी’ बस यही [कामसुख] है।’ किंतु मैं उनकी बात नहीं स्वीकार करता। क्योंकि उस सुख के अलावा भी अन्य सुख होता है, जो अधिक सुखद, अधिक उत्कृष्ट होता है। कौन-सा है वह सुख? कोई भिक्षु काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त—सोच व विचार के साथ निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। इस सुख को ‘संन्यास सुख’ कहते है , ‘निर्लिप्त सुख’ कहते है , ‘प्रशान्ति सुख’ कहते है, ‘संबोधि सुख’ कहते है। मैं कहता हूँ कि इस सुख के साथ जुड़ना चाहिए, इसे विकसित करना चाहिए, इसके पीछे पड़ना चाहिए। इससे भयभीत नहीं होना चाहिए। यह सुख ‘कामसुख’ से अधिक सुखद एवं उत्कृष्ट होता है। तब कुछ लोग कहते हैं कि ‘दुनिया में महसूस होनेवाली सर्वोच्च सुख व ख़ुशी बस यही [प्रथम-झानसुख] है।’ तो मैं उनकी भी बात नहीं स्वीकार करता। क्योंकि उस सुख के अलावा भी अन्य सुख होता है, जो अधिक सुखद, अधिक उत्कृष्ट होता है। कौन-सा है वह सुख? द्वितीय-झान सुख… तृतीय-झान सुख… चतुर्थ-झान सुख… अनंत आकाश-आयाम सुख… अनंत चैतन्यता-आयाम सुख… सूना-आयाम सुख… न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम सुख… इस सुख को ‘संन्यास सुख’ कहते है, ‘निर्लिप्त सुख’ कहते है , ‘प्रशान्ति सुख’ कहते है, ‘संबोधि सुख’ कहते है। मैं कहता हूँ कि इस सुख के साथ जुड़ना चाहिए, इसे विकसित करना चाहिए, इसके पीछे पड़ना चाहिए। इससे भयभीत नहीं होना चाहिए। यह सुख ‘सूना-आयाम सुख’ से अधिक सुखद, अधिक उत्कृष्ट होता है। अब कुछ लोग कहते हैं कि ‘दुनिया में महसूस होनेवाली सर्वोच्च सुख व ख़ुशी बस यही [न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम सुख] है।’ तो मैं उनकी भी बात नहीं स्वीकार करता। क्योंकि उस सुख के अलावा भी अन्य सुख होता है, जो अधिक सुखद, अधिक उत्कृष्ट होता है। कौन-सा है वह सुख? भिक्षु न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम पूर्णतः लाँघकर नज़रिया-संवेदना निरोध अवस्था में प्रवेश करता है। इस सुख को ‘संन्यास सुख’ कहते है , ‘निर्लिप्त सुख’ कहते है , ‘प्रशान्ति सुख’ कहते है, ‘संबोधि सुख’ कहते है। मैं कहता हूँ कि इस सुख के साथ जुड़ना चाहिए, इसे विकसित करना चाहिए, इसके पीछे पड़ना चाहिए। इससे भयभीत नहीं होना चाहिए। यह सुख ‘न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम सुख’ से अधिक सुखद, अधिक उत्कृष्ट होता है। «मा.नि.५९ + मा.नि.६६»
विपुलेन महग्गतेन चित्तेन कामुकता अनित्य होती है, भिक्षुओं! तुच्छ होती है, झूठी होती है, धोखाधड़ी होती है! भ्रामक होती है! मूर्खों की बक़वास होती है! कामुकता—इस जीवन की हो या अगले जीवन की, कामुक नज़रिए—इस जीवन के हो या अगले जीवन के—दोनों मार का प्रभाव होते है, मार की दुनिया से आते है, मार का डाला चारा होते है, मार का कार्यक्षेत्र होते है। इसी पाप/अकुशल स्वभाव से ‘लालच दुर्भावना और कलह’ पैदा होती है। वह सीखते आर्यश्रावक की प्रगति रोकने मात्र के लिए ही उत्पन्न होते है। तब आर्यश्रावक चिंतन करता है कि ‘कामुकता—इस जीवन की हो या अगले जीवन की, कामुक नज़रिए—इस जीवन के हो या अगले जीवन के—दोनों मार के प्रभाव में होते है, मार की दुनिया से आते है, मार का डाला चारा होते है, मार का कार्यक्षेत्र होते है। इसी पाप/अकुशल स्वभाव से लालच दुर्भावना और कलह पैदा होती है। वह सीखते आर्यश्रावक की प्रगति रोकने मात्र के लिए ही उत्पन्न होते है। क्यों न मैं ऐसा कामलोक पराभूत कर, मन पक्का बना ऐसे चित्त के साथ रहूँ, जो विस्तृत विशालकाय हो? ऐसा करके पाप/अकुशल स्वभाव—लालच दुर्भावना और कलह प्रकट न होंगे। उनसे छूटते-छूटते मेरा चित्त असीमित व अपरिमित होकर सुप्रतिष्ठित हो जाएगा।’ «मा.नि.१३»
छह इंद्रियों पर टकराते विषय, अर्थात विविध—‘रूप आवाज़ गंध स्वाद संस्पर्श व स्वभाव’ के प्रति तटस्थता। अध्याय ९ के अंतर्गत ‘छत्तीस भाव’ पृष्ठ १४२ देखें। ↩︎ चार अरूप अवस्थाएँ—आकाश-आयाम, चैतन्यता-आयाम, सूना-आयाम, न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम। अध्याय ९ के अंतर्गत ‘छत्तीस भाव’ पृष्ठ १४२ देखें। अर्थात, कामुकता के नशे को हटाने के लिए काम-लोक या रूप-लोक से प्रभावित इंद्रिय-जगत को टालते हुए, उनके परे की अरूप-अवस्थाओं की साधना करनी चाहिए। वही सभी प्रलोभन गायब हो जाते हैं। ↩︎ आर्यमार्ग की परिपूर्णता सम्यकसमाधि ‘झान-अवस्था’ में मिलती प्रफुल्ल्लता और सुख, जिसे भगवान ने कुशल-सुख कहा, उससे कदापि डरने की ज़रूरत नहीं होती। क्योंकि वह पाप/अकुशल स्वभाव से न उत्पन्न होकर, सर्वोच्च कुशल-धर्म निर्लिप्तता, एकाग्रता और ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ की साधना करने से उत्पन्न होती है। कामुकता की बार-बार लगती ‘भूख-प्यास’ मिटाने के लिए ऐसे वैकल्पिक ‘धार्मिक-सुख’ की नितांत आवश्यकता होती है, जो कुशल-आधारित हो, निष्पाप हो। भगवान झान-समाधि के ऐसे धार्मिक ‘सुख-आहार’ का सेवन करने, तथा अपने लिए हमेशा उपलब्ध करने के लिए प्रोत्साहन देते थे। सीधी-सीधी बात है: भूख-प्यास सभी को लगती है। जिसे आहार-स्वरूप यह झान-सुख न उपलब्ध हो, वह लौटकर काम-सुख से ही अपनी भूख-प्यास मिटाता है। तब न वह कभी कामुकता से छूट पाता है, न ही आर्य-फ़ल, निर्वाण के क़रीब जा पाता। ↩︎
—तट लगी, सड़ते फोड़ों का ढ़ेर।
रोगी, फ़िर भी नाना संकल्पों का आलंबन।
जहाँ कुछ टिकाव नहीं, निश्चित नहीं।
हड्डियों से बना नगर,
रक्तमांस से ढका हुआ।
जिसका गुप्त खज़ाना है
—घमंड कपट, बुढ़ापा मौत।
तीर, गाँठ, दलदल, गर्भ’ —
यह सारा वर्णन ‘कामुकता’ का है।
ही पुरुष की कामुकता है।
न कि दुनिया में पाए जानेवाली
चित्र-विचित्र कामुकताएँ।
अपने संकल्प के प्रति दिलचस्पी
ही पुरुष की कामुकता है।
दुनिया की चित्र-विचित्रता जैसी हो,
वैसी पड़ी रहती है।
ज्ञानी उनके प्रति
मात्र चाह ख़त्म कर देता है।
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