नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय छह

अञ्ञ नीवरणप्पहान

~ दुर्भावना, बेचैनी और आलस्य का संपूर्ण परित्याग ~



ब्यापादप्पहान

[भिक्षुओं को संबोधकर भन्ते सारिपुत्त बताते है:]

नफ़रत «आघात» मिटाने के पाँच तरीक़े हैं, मित्रों, जिनका उपयोग कर भिक्षु उत्पन्न नफ़रत पूर्णतः मिटा देता है। कौन-से पाँच? जब किसी व्यक्ति के प्रति नफ़रत जन्म ले, तब भिक्षु —

(१) उसके प्रति मेत्ता की साधना करता है। इस तरह नफ़रत मिट जाती है।

(२) उसके प्रति करुणा की साधना करता है। इस तरह नफ़रत मिट जाती है।

(३) उसके प्रति तटस्थता की साधना करता है। इस तरह नफ़रत मिट जाती है।

(४) भुला देता है, उसपर गौर नहीं करता «असतिमनसिकार»। इस तरह नफ़रत मिट जाती है।

(५) कर्म के फ़ल-परिणाम पर चिंतन करता है—‘यह आयुष्मान अपने कर्मों का कर्ता है। अपने कर्मों का वारिस है। अपने कर्मों से योनि पाया है। अपने कर्मों द्वारा संबंधी है। अपने कर्मों पर निर्भर है। यह जो भी कर्म करेंगा—कल्याणकारी या पापपूर्ण—उसी का वारिस बनेगा।’ इस तरह नफ़रत मिट जाती है।

नफ़रत मिटाने के यह पाँच तरीक़े होते है, जिनका उपयोग कर भिक्षु उत्पन्न नफ़रत पूर्णतः मिटा देता है।


• कुछ लोग ‘कायिक-आचरण’ में अशुद्ध होते है, किंतु ‘वाचिक-आचरण’ में शुद्ध। इस प्रकार के व्यक्ति के प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए। कैसे?

जैसे कोई «पंसुकूलिक» भिक्षु फेंकी हुई वस्तुओँ का उपयोग करता हो। उसे रास्ते में कपड़े का चिथड़ा दिखाई दे। तब वह दाएं पैर से एक हिस्सा दबोचे, बाएं पैर से फैलाकर, मात्र अच्छा हिस्सा ही फाड़कर अलग करें, और उसे उठाकर चल पड़े।

उसी तरह व्यक्ति के अशुद्ध कायिक-आचरण पर ध्यान न देकर, मात्र शुद्ध वाचिक-आचरण पर ही ध्यान दे। इस तरह उनके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए।


• कुछ लोग ‘वाचिक-आचरण’ में अशुद्ध होते है, किंतु ‘कायिक-आचरण’ में शुद्ध। इस प्रकार के व्यक्ति के प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए। कैसे?

जैसे कोई जलाशय शैवाल व पौधों से घिरा हो। तब कोई व्यक्ति आए—गर्मी से बदहाल, पसीने से लथपथ, थका कपकपाता व प्यासा। वह जलाशय में उतरे, शैवाल व पौधें हाथों से दूर करें, चुल्लू से जल पीए, और निकलकर अपने रास्ते चल पड़े।

उसी तरह व्यक्ति के अशुद्ध वाचिक-आचरण पर ध्यान न देकर, मात्र शुद्ध कायिक-आचरण पर ही ध्यान दे। इस तरह उनके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए।


• कुछ लोग ‘कायिक व वाचिक’ दोनों आचरण में अशुद्ध होते है, किंतु समय-समय पर ‘चित्त स्पष्टता व प्रशान्ति’ महसूस करते है। इस प्रकार के व्यक्ति के प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए। कैसे?

जैसे किसी रास्ते पर गाय के ख़ुर से बना जल भरा गड्ढा हो। तब कोई व्यक्ति आए—गर्मी से बदहाल, पसीने से लथपथ, थका कपकपाता व प्यासा। वह सोचे—‘यह गाय के ख़ुर से बना जल भरा गड्ढा है। यदि मैं चुल्लू से जल उठाऊ, तो यह हिल जाए, उमड़ जाए, पीने-योग्य न बचे। क्यों न मैं नीचे झुक, गाय की भाँति सुड़कते हुए जल पीऊँ, और अपने रास्ते चल पडूँ?’ तब वह नीचे झुक, गाय की भाँति सुड़कते हुए जल पीए, और अपने रास्ते चल पड़े।

उसी तरह उनके दोनों अशुद्ध कायिक व वाचिक आचरण पर ध्यान न देकर, मात्र समय-समय पर चित्त स्पष्टता और प्रशान्ति महसूस करने पर ही ध्यान दे। इस तरह उनके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए।


• कुछ लोग ‘कायिक व वाचिक’ दोनों आचरण में अशुद्ध होते है, और समय-समय पर ‘चित्त स्पष्टता व प्रशान्ति’ भी नहीं महसूस करते। इस प्रकार के व्यक्ति के प्रति भी नफ़रत मिटा देना चाहिए। कैसे?

जैसे कोई बीमार, दर्द से पीड़ित, गंभीर रोग से ग्रस्त, रास्ते से यात्रा कर रहा हो—अगले गाँव से दूर, पिछले गाँव से भी दूर। न योग्य भोजन पा सके, न दवाई। न योग्य सेवा करनेवाला पा सके, न कोई बस्ती ले जानेवाला। तब कोई यात्री उस बीमार को देखें। वह यात्री बीमार के प्रति दया करुणा व सहानुभूति के मारे जो बनेगा वह करेंगा, सोचते हुए, ‘अरे! इसे योग्य भोजन मिल जाए! दवाई मिल जाए! कोई सेवा करनेवाला मिल जाए! बस्ती ले जानेवाला मिल जाए! क्यों? ताकि उसका यही विनाश न हो!’

उसी तरह ऐसे व्यक्ति के प्रति दया करुणा व सहानुभूति के मारे जो बने वह करें, सोचते हुए, ‘अरे, यह व्यक्ति कायिक-दुराचरण त्याग दे, कायिक-सदाचरण का अभ्यास करें! वाचिक-दुराचरण त्याग दे, वाचिक-सदाचरण का अभ्यास करें! मानसिक-दुराचरण त्याग दे, मानसिक-सदाचरण का अभ्यास करें! क्यों? ताकि वह काया छूटने पर मृत्युपरांत दयनीय-लोक, दुर्गति, नीचे यातना-लोक, नरक में न उत्पन्न हो!’ इस तरह उनके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए।


• कुछ लोग ‘कायिक व वाचिक’ दोनों आचरण में शुद्ध होते है, और समय-समय पर ‘चित्त स्पष्टता और प्रशान्ति’ भी महसूस करते है। इस प्रकार के व्यक्ति के प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए। कैसे?

जैसे कोई स्वच्छ जलाशय हो—मीठा शीतल पारदर्शक, धीमी ढ़लानवाला तट, सभी दिशाओं से अनेक पेड़ों द्वारा आच्छादित। तब कोई व्यक्ति आए—गर्मी से बदहाल, पसीने से लथपथ, थका कपकपाता व प्यासा। वह उस जलाशय में उतरे, नहाए, जल पीए तथा बाहर निकलकर वही पेड़ों की छायातले बैठे या लेट जाए।

उसी तरह उस समय व्यक्ति के दोनों शुद्ध कायिक व वाचिक आचरण पर ही ध्यान दे, और उसके समय-समय पर चित्त स्पष्टता और प्रशान्ति महसूस करने पर ही ध्यान दे। चूँकि ऐसा प्रेरणादायक व्यक्ति चित्त शांत कर सकता है। इस तरह उनके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए।

«अं.नि.५:१६१ + ५:१६२»


ककचूपम ओवाद

भिक्षुओं, यह उचित नहीं कि तुम जैसे कुलपुत्र श्रद्धापूर्वक घर से बेघर होकर, प्रवज्यित होकर भिक्षुणियों के साथ अधिक समय व्यतीत करो।

• भिक्षुओं, यदि तुम्हारे समक्ष भिक्षुणियों को कोई अपशब्द कहे, तब उसी समय उसी जगह तुम्हें गृहस्थों जैसी चाह, गृहस्थों जैसी सोच त्याग देनी चाहिए। और सीखना चाहिए कि—‘मेरा चित्त अप्रभावित ही रहेगा, और मैं कोई पापी शब्द नहीं बोलूँगा। मैं अपशब्द बोलनेवाले व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखूँगा—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले।’ इस तरह तुम्हें सीखना चाहिए।

• और यदि तुम्हारे समक्ष भिक्षुणियों को कोई हाथ पत्थर डंडा या चाकू से वार करें, तब उसी समय उसी जगह तुम्हें गृहस्थों जैसी चाह, गृहस्थों जैसी सोच त्याग देनी चाहिए। और सीखना चाहिए कि—‘मेरा चित्त अप्रभावित ही रहेगा, और मैं कोई पापी शब्द नहीं बोलूँगा। मैं अपशब्द बोलनेवाले व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखूँगा—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले।’ इस तरह तुम्हें सीखना चाहिए।

• और यदि तुम्हारे समक्ष कोई तुम्हें भी अपशब्द कहे, तब उसी समय उसी जगह तुम्हें गृहस्थों जैसी चाह, गृहस्थों जैसी सोच त्याग देनी चाहिए। और सीखना चाहिए कि—‘मेरा चित्त अप्रभावित ही रहेगा, और मैं कोई पापी शब्द नहीं बोलूँगा। मैं अपशब्द बोलनेवाले व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखूँगा—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले।’ इस तरह तुम्हें सीखना चाहिए।

• और यदि कोई तुम्हें भी हाथ पत्थर डंडा या चाकू से वार करें, तब उसी समय उसी जगह तुम्हें गृहस्थों जैसी चाह, गृहस्थों जैसी सोच त्याग देनी चाहिए। और सीखना चाहिए कि—‘मेरा चित्त अप्रभावित ही रहेगा, और मैं कोई पापी शब्द नहीं बोलूँगा। मैं अपशब्द बोलनेवाले व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखूँगा—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले।’ इस तरह तुम्हें सीखना चाहिए।

भिक्षुओं, पहले के भिक्षु मेरे चित्त को कैसे संतुष्ट करते थे! एक समय था, जब मैंने भिक्षुओं से कहा—“भिक्षुओं, मैं [दिन में] एक ही बार भोजन करता हूँ। एक ही बार भोजन कर मुझे लगभग कोई रोग, कोई पीड़ा नहीं दिखती; बल्कि हल्कापन, शक्ति और राहतपूर्ण दिन बीतता है। तुम भी एक ही बार भोजन करो! एक ही बार भोजन कर तुम्हें भी लगभग कोई रोग, कोई पीड़ा नहीं दिखेगी; बल्कि हल्कापन, शक्ति और राहतपूर्ण दिन बीतेगा।” मुझे उन भिक्षुओं को अनुशासन [नियम] नहीं देना पड़ा। मात्र स्मरण कराना पड़ा।

कल्पना करो कि समतल भूमि में चौराहे पर उत्तम-घोड़ों से जुता एक रथ हो, चाबुक के साथ तैयार—ताकि कोई निपुण रथाचार्य, अश्व दमन करनेवाला सारथी चढ़कर, बाए हाथ में लगाम पकड़, दाए हाथ में चाबुक ले, जहाँ चाहे, जिधर चाहे, निकल पड़े और लौट आए। उसी तरह मुझे उन भिक्षुओं को अनुशासन नहीं देना पड़ा। मात्र स्मरण कराना पड़ा।

भिक्षुओं, तुम्हें भी अकुशल का त्याग करना चाहिए, और कुशल के प्रति निश्चयबद्ध होना चाहिए। तब तुम भी इस धम्म-विनय में वृद्धि विपुलता व प्रगति प्राप्त करोगे।

कल्पना करो कि गाँव या नगर के समीप कोई बड़ा शालवन झाड़-झंखाड़ व लताओं से जकड़ा हुआ हो। उसका कोई भला चाहनेवाला, हित चाहनेवाला, योगबन्धन से सर्वोपरि राहत चाहनेवाला पुरुष आए। वह शालवृक्षों का पोषण चुरानेवाली लताएँ व झाड़-झंखाड़ काटकर बाहर फ़ेक आए। वन का भीतरी भाग साफ़ कर दे। और जो शाल शाखाएँ ठीक निकली हो, उन्हें अच्छी तरह रखे। पश्चात वह शालवन वृद्धि विपुलता व प्रगति प्राप्त करेंगा।

उसी तरह भिक्षुओं, तुम्हें भी अकुशल का त्याग करना चाहिए, और कुशल के प्रति निश्चयबद्ध होना चाहिए। तब तुम भी इस धम्म-विनय में वृद्धि विपुलता व प्रगति प्राप्त करोगे।


इसी श्रावस्ती की बात है—यहाँ एक समय वेदेहिका नामक गृहिणी रहती थी। उस गृहिणी वेदेहिका के बारे में यह अच्छी ख़बर फैली थी—‘सभ्य है गृहिणी वेदेहिका! सौम्य है गृहिणी वेदेहिका! शान्त है गृहिणी वेदेहिका!’

गृहिणी वेदेहिका की एक दासी थी—काली—जो काम तेज़ निपुणता व सफ़ाई से करती थी।

उस काली ने सोचा—‘मेरी मालकिन गृहिणी वेदेहिका के बारे में यह अच्छी ख़बर फैली है—‘सभ्य है गृहिणी वेदेहिका! सौम्य है गृहिणी वेदेहिका! शान्त है गृहिणी वेदेहिका!’ क्या उसमें गुस्सा छिपा है या नहीं? या मैं केवल काम तेज़ निपुणता व सफ़ाई से करती हूँ, इसलिए उसका छिपा गुस्सा दिखता नहीं? क्यों न मैं उसकी परीक्षा लूँ?’

तब काली दासी दिन चढ़ने पर उठी। गृहिणी वेदेहिका ने कहा —“ऐ काली!”

“हाँ मालकिन?”

“दिन चढ़ने पर क्यों उठी?”

“मालकिन, यूँ ही!”

“यूँ ही, कमीनी दासी? बिना कारण दिन चढ़ने पर उठती है?”—नाराज़ व गुस्सा होकर उसने भौंए चढ़ा ली।

तब काली दासी को लगा—‘मालकिन में छिपा हुआ गुस्सा तो है! ऐसा नहीं कि नहीं! और मैं केवल काम तेज़ निपुणता व सफ़ाई से करती हूँ, इसलिए उसका छिपा गुस्सा दिखता नहीं। क्यों न मैं उसकी और परीक्षा लूँ?’

तब काली दासी दिन में अधिक देरी से उठी। गृहिणी वेदेहिका ने कहा —“ऐ काली!”

“हाँ मालकिन?”

“दिन में इतनी देरी से क्यों उठी?”

“मालकिन, यूँ ही!”

“यूँ ही, कमीनी दासी? बिना कारण इतनी देरी से उठती है?”—नाराज़ व गुस्सा होकर वह बड़बड़ाने लगी।

तब काली दासी को लगा—‘मालकिन में छिपा हुआ गुस्सा तो बहुत है! ऐसा नहीं कि नहीं! और मैं केवल काम तेज़ निपुणता व सफ़ाई से करती हूँ, इसलिए उसका छिपा गुस्सा दिखता नहीं। क्यों न मैं उसकी और अधिक परीक्षा लूँ?’

तब काली दासी दिन में बहुत देरी से उठी। गृहिणी वेदेहिका ने कहा —“ऐ काली!”

“हाँ मालकिन?”

“दिन में बहुत देरी से क्यों उठी?”

“मालकिन, यूँ ही!”

“यूँ ही, कमीनी दासी? बिना कारण बहुत देरी से उठती है?”—नाराज़ व गुस्सा होकर उसने बेलन उठाया, और उसके सिर पर दे मारा। काली का सिर फ़ट गया।

तब काली दासी चीखते हुए, रक्त बहते सिर के साथ पड़ोसियों की ओर भागी —“देखों औरतों! देखों सभ्य गृहिणी की हस्तकृति! देखों देखों, सौम्य गृहिणी की हस्तकृति! देखों देखों, शांत गृहिणी की हस्तकृति! मात्र दिन चढ़ने पर ही उठी, तो वह कैसे गुस्सा होकर मेरा सिर बेलन से फोड़ सकती है?”

उसके बाद गृहिणी वेदेहिका के बारे में बुरी ख़बर फैल गई—‘चण्डी है गृहिणी वेदेहिका! ग़ुस्सैल है गृहिणी वेदेहिका! हिंसक है गृहिणी वेदेहिका!’

उसी तरह भिक्षुओं, कोई भिक्षु बड़ा सभ्य हो सकता है! बड़ा सौम्य हो सकता है! बड़ा शांत हो सकता है!—जब तक उसे अप्रिय वचन न छूते हो। किंतु जब उसे अप्रिय वचन छुए, तब वाक़ई पता चलता है कि वह कितना सभ्य है! कितना सौम्य है! कितना शांत है!

मैं उस भिक्षु को आज्ञाधारक «सुवचो» नहीं समझता—जो मात्र चीवर, भिक्षा, निवास या भैषज्य के कारण आज्ञा सुनता हो, या स्वयं को आज्ञाधारक बनाता हो। क्योंकि यदि कभी उसे चीवर, भिक्षा, निवास या भैषज्य न मिले, तब वह न आज्ञा सुनेगा, न स्वयं को आज्ञाधारक बनाएगा।

हालाँकि कोई भिक्षु यदि धर्म के प्रति आदर व सम्मान के कारण, धर्म को मानने व पूजने के कारण आज्ञा सुनता हो, या स्वयं को आज्ञाधारक बनाता हो, तब मैं उसे ‘आज्ञाधारक’ समझता हूँ।

इसलिए भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए—‘हम धर्म के प्रति आदर व सम्मान के कारण, धर्म को मानने व पूजने के कारण आज्ञा सुनेंगे, या स्वयं को आज्ञाधारक बनाएंगे।’


भिक्षुओं, पाँच तरह के वचन से तुम्हें कोई चेता सकता है—मौका-बेमौका, सच-झूठ, स्नेहपूर्ण-कटु, हितकर-अहितकर, मैत्री-नफ़रतभरे चित्त से।

अर्थात भिक्षुओं, कोई तुम्हें ‘मौका देखकर सही समय पर’ चेता सकता है, या बेमौक़े पर। कोई तुम्हें ‘सच्चाई’ के साथ संबोध सकता है, या झूठ के साथ। कोई तुम्हें ‘स्नेहपूर्ण ढंग’ से संबोध सकता है, या कटुतापूर्ण ढंग से। कोई तुम्हें ‘हितकारक बात’ कह सकता है, या अहितकर। कोई तुम्हें ‘मैत्रीभरे चित्त’ से संबोध सकता है, या नफ़रतभरे चित्त से।

तब भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए कि—‘किसी भी तरह का वचन सुनते हुए हमारा चित्त अप्रभावित ही रहेगा। हम कोई पापी शब्द नहीं बोलेंगे। हम उस व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखेंगे—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले। हम उसपर मैत्री भरा मानस फैलाएँगे, और उससे शुरु कर फ़िर दुनिया में सर्वत्र ऐसा मानस फैलाएँगे—जो मैत्री भरा, विस्तृत विशालकाय अपरिमित बैरमुक्त व दुर्भावनामुक्त हो।’ इस तरह तुम्हें सीखना चाहिए।


• कल्पना करो कि एक पुरुष कुदाल व टोकरी लेकर आए, कहते हुए—‘मैं इस विशालकाय पृथ्वी को पृथ्वीरहित बना दूँगा!’ फ़िर वह यहाँ-वहाँ खोदने लगे, यहाँ-वहाँ मिट्टी बिखराने लगे, यहाँ-वहाँ थूकने लगे, यहाँ-वहाँ पेशाब करने लगे, कहते हुए—‘पृथ्वीरहित हो जा! पृथ्वीरहित हो जा!’ तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह इस विशालकाय पृथ्वी को पृथ्वीरहित बना पाएगा?

“कदापि नहीं, भगवान। क्योंकि यह विशालकाय पृथ्वी गहरी और विराट है। इसे आसानी से पृथ्वीरहित नहीं बनाया जा सकता। वह पुरुष मात्र थकान व निराशा के अलावा कुछ हासिल न कर पाएगा।”

उसी तरह भिक्षुओं… तुम्हें सीखना चाहिए कि ‘किसी भी तरह का वचन सुनते हुए हमारा चित्त अप्रभावित ही रहेगा। हम कोई पापी शब्द नहीं बोलेंगे। हम उस व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखेंगे—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले। हम उसपर मैत्री भरा मानस फैलाएँगे, और उससे शुरु कर फ़िर दुनिया में सर्वत्र ऐसा मानस फैलाएँगे—जो मैत्री भरा, विस्तृत विशालकाय अपरिमित बैरमुक्त व दुर्भावनामुक्त हो।’


• कल्पना करो कि कोई पुरुष ‘लाख हल्दी नील या लालिमा’ लेकर आए, कहते हुए—‘मैं आकाश में चित्र बनाऊँगा, चित्र प्रकट करूँगा।’ तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह आकाश में चित्र बना पाएगा, चित्र प्रकट कर पाएगा?

“कदापि नहीं, भगवान। क्योंकि आकाश अरूप है, बिना सतहवाला। वहाँ चित्र बनाना, चित्र प्रकट करना आसान नहीं। वह पुरुष मात्र थकान व निराशा के अलावा कुछ हासिल न कर पाएगा।”

उसी तरह भिक्षुओं… तुम्हें सीखना चाहिए कि ‘किसी भी तरह का वचन सुनते हुए हमारा चित्त अप्रभावित ही रहेगा। हम कोई पापी शब्द नहीं बोलेंगे। हम उस व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखेंगे—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले। हम उसपर मैत्री भरा मानस फैलाएँगे, और उससे शुरु कर फ़िर दुनिया में सर्वत्र ऐसा मानस फैलाएँगे—जो मैत्री भरा, विस्तृत विशालकाय अपरिमित बैरमुक्त व दुर्भावनामुक्त हो।’


• कल्पना करो कि कोई पुरुष जलती घास की मशाल लेकर आए, कहते हुए—‘मैं इस मशाल से गंगा नदी तपा दूँगा, उबाल दूँगा।’ तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पुरुष उस मशाल से गंगा नदी को तपा पाएगा, उबाल पाएगा?

“कदापि नहीं, भगवान। क्योंकि गंगा नदी गहरी और विराट है। उसे घास की जलती मशाल से तपाना, उबालना आसान नहीं। वह पुरुष मात्र थकान व निराशा के अलावा कुछ हासिल न कर पाएगा।”

उसी तरह भिक्षुओं… तुम्हें सीखना चाहिए कि ‘किसी भी तरह का वचन सुनते हुए हमारा चित्त अप्रभावित ही रहेगा। हम कोई पापी शब्द नहीं बोलेंगे। हम उस व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखेंगे—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले। हम उसपर मैत्री भरा मानस फैलाएँगे, और उससे शुरु कर फ़िर दुनिया में सर्वत्र ऐसा मानस फैलाएँगे—जो मैत्री भरा, विस्तृत विशालकाय अपरिमित बैरमुक्त व दुर्भावनामुक्त हो।’


• कल्पना करो कि बिल्ली के चमड़ी से बनी एक थैली हो—पीटी गई, भलीभाँति पीटी गई, बहुत-बहुत पीटी गई; मृदु, रेशमी सरसराने-चटकानेवाले आवाज़ से पूर्णतः मुक्त। और एक पुरुष डंडा व ठीकरा लेकर आए, कहते हुए—‘इस डंडे व ठीकरें से मैं थैली को सरसराऊँगा, चटकाऊँगा।’ तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पुरुष उस बिल्ली के चमड़ी से बनी थैली को सरसरा पाएगा, चटका पाएगा?

“कदापि नहीं, भगवान। क्योंकि बिल्ली के चमड़ी से बनी थैली, जो पीटी गई, भलीभाँति पीटी गई, बहुत-बहुत पीटी गई हो; मृदु, रेशमी सरसराने-चटकानेवाले आवाज़ से पूर्णतः मुक्त हो, उसे डंडे व ठीकरें से सरसराना, चटकाना आसान नहीं। वह पुरुष मात्र थकान व निराशा के अलावा कुछ हासिल न कर पाएगा।”

उसी तरह भिक्षुओं… तुम्हें सीखना चाहिए कि ‘किसी भी तरह का वचन सुनते हुए हमारा चित्त अप्रभावित ही रहेगा। हम कोई पापी शब्द नहीं बोलेंगे। हम उस व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखेंगे—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले। हम उसपर मैत्री भरा मानस फैलाएँगे, और उससे शुरु कर फ़िर दुनिया में सर्वत्र ऐसा मानस फैलाएँगे—जो मैत्री भरा, विस्तृत विशालकाय अपरिमित बैरमुक्त व दुर्भावनामुक्त हो।’


• भिक्षुओं, भले ही चोर-डाकू दो मूँठवाली आरी लेकर तुम्हारा अंगप्रत्यंग काटें, तब भी आप में से जो चित्त दूषित करेंगा—वह मेरा आज्ञाधारक नहीं। तब भी तुम्हें सीखना चाहिए—‘हमारा चित्त अप्रभावित ही रहेगा। हम कोई पापी शब्द नहीं बोलेंगे। हम उस व्यक्ति के भलाई के लिए सहानुभूति रखेंगे—मैत्री चित्त के साथ, बिना भीतरी द्वेष पाले। हम उसपर मैत्री भरा मानस फैलाएँगे, और उससे शुरु कर फ़िर दुनिया में सर्वत्र ऐसा मानस फैलाएँगे—जो मैत्री भरा, विस्तृत विशालकाय अपरिमित बैरमुक्त व दुर्भावनामुक्त हो।’

भिक्षुओं, यदि आप इस आरी की उपमावाली आज्ञा पर निरंतर चिंतनशील रहे, तो वचन का कोई छोटा-बड़ा पहलू देखते हो, जिसे बर्दाश्त न कर पाओ?

“नहीं, भगवान।”

— तब इस ‘आरी की उपमावाली आज्ञा’ पर निरंतर चिंतनशील रहो, भिक्षुओं। वह तुम्हारे दीर्घकालीन हित व सुख के लिए होगा।

«मा.नि.२१»


[सारिपुत्त भन्ते धर्मदेशना देते हुए भिक्षुओं को कहते है:]

भिक्षुओं, यदि कोई आपका अपमान करें, गाली-गलौज, कुपित या पीड़ित करें, तब आप समझे—‘कानसंपर्क से जन्मी एक दुखद संवेदना उत्पन्न हुई है। और वह कारणपूर्ण उत्पन्न हुई, अकारण नहीं। किस कारण? संपर्क के कारण।’

आप देखें: ‘किंतु संपर्क अनित्य होते है। संवेदना अनित्य होती है। नज़रिए अनित्य होते है। चैतन्यता अनित्य होती है।’ यूँ देखकर आपका चित्त धातु-आलंबन से ऊपर उठेगा; आश्वस्त व स्थिर होकर विमुक्त हो जाएगा।

भिक्षुओं, यदि कोई आपके साथ अनचाहे प्रतिकूल अप्रिय तरीक़े से बर्ताव करें—जैसे मुक्के, पत्थर, डंडे या चाकू से स्पर्श करें। तब आप समझे: ‘अरे! यह काया ऐसी ही होती है कि जिसका मुक्के, पत्थर, डंडे या चाकू से स्पर्श होते रहते हैं। भगवान ने ‘आरी की उपमावाली आज्ञा’ «ककचूपम ओवाद» में कहा, “भिक्षुओं, यदि चोर-डाकू दो मूँठवाली आरी लेकर तुम्हारा अंगप्रत्यंग काटें, तब भी आप में से जो चित्त दूषित करेंगा—वह मेरा आज्ञाधारक नहीं।”

इसलिए भिक्षुओं, [प्रयास करिए:] मेरी ऊर्जा—अथक व जागृत रहे। मेरी स्मरणशीलता—स्थापित व अ-धुँधली रहे। मेरी काया—प्रशान्त व अनुत्तेजित रहे। मेरा चित्त—समाहित व एकाग्र रहे। तब चाहे इस काया का मुक्के, पत्थर, डंडे या चाकू से स्पर्श होते रहे। इसी तरह बुद्ध का आज्ञापालन होगा।’

जैसे कोई बहू अपने ससुर को देखकर आशंकित होती है, संवेग जगाती है। उसी तरह बुद्धस्मरण धर्मस्मरण व संघस्मरण करते हुए भिक्षु को यदि कुशलता पर आधारित तटस्थता न स्थापित हो, तब वह आशंकित हो, संवेग जगाए: ‘अरे! यह मेरी हानि है, लाभ नहीं! मेरा दुर्लाभ है, सुलाभ नहीं! जो मुझे बुद्ध धर्म व संघ का स्मरण करते हुए भी कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थापित नहीं हुई!’

किंतु यदि बुद्ध धर्म व संघ का स्मरण करते हुए उसे कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थापित हो जाए, तब वह संतुष्ट हो जाए।

«मा.नि.२८»


जन्म-जन्मांतरण की शुरुवात सोच के परे है, भिक्षुओं। संसरण की निश्चित शुरुवात पता नहीं चलती, परंतु अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे सत्व जन्म-जन्मांतरण में भटक रहे हैं। ऐसा सत्व मिलना आसान नहीं, जो अतीतकाल में कभी तुम्हारी माँ न रही हो… तुम्हारा पिता न रहा हो… तुम्हारी बहन न रही हो… तुम्हारा भाई न रहा हो… तुम्हारी पुत्री न रही हो… तुम्हारा पुत्र न रहा हो।

क्यों? क्योंकि जन्म-जन्मांतरण की शुरुवात सोच के परे है। संसरण की निश्चित शुरुवात पता नहीं चलती, परंतु अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे सत्व जन्म-जन्मांतरण में भटक रहे हैं। यूँ दीर्घ.. दीर्घकाल तक आप इतना दुःख ले चुके, इतना दर्द ले चुके, इतना ग़म उठा चुके, इतने श्मशान भर चुके—जो [दुनिया के] समस्त रचनाओं के प्रति मोहभंग होने के लिए पर्याप्त है, वैराग्य लाने के लिए पर्याप्त है, विमुक्ति पाने के लिए पर्याप्त है।

«सं.नि.१५:१४ ~ १५:१९»


‘उसने मेरा अपमान किया!
मारा! हराया! लूट लिया!’
जो इसी में उलझे होते है,
उनका बैर शान्त नहीं होता।
जो इस में नहीं उलझते,
उनका बैर शान्त हो जाता है।

बैर से बैर शान्त नहीं होता।
अ-बैर से बैर शान्त होता है
—यही धर्म सनातन है।

«धम्मपद ३ + ४ + ५»



जीत बैर को जन्म देती है।
और हार दुःख में डुबाती है।

हज़ारों-हज़ारों व्यक्तियों से लड़कर
जीतने से बेहतर है
केवल एक व्यक्ति पर जीत हासिल करना
—स्वयं पर!

दूसरों के बजाय स्वयं को जीतना बेहतर है।
जब आप स्वयं को सिखा चुके हो,
अथक आत्मसंयम से रहते हो,
तब न देव, न गंधर्व, न ब्रह्म, न ही मार
वह जीत दुबारा हार में बदल सकता है।

«धम्मपद २०१ + १०३ + १०४+ १०५»


थिनमिद्धंप्पहान

एक समय भगवान भग्गों के साथ भेसकला मृगवन में मगरमच्छ-अड्डे के समीप विहार कर रहे थे। उस समय [बोधिपूर्व] भन्ते महामोग्गलान मगध के कल्लवलपुत्र गाँव के समीप [शायद ध्यानमुद्रा में] बैठकर ऊँघ रहे «पचलायमानो» थे।

भगवान ने महामोग्गलान भन्ते को अपने मनुष्योत्तर विशुद्ध दिव्यचक्षु से ऊँघते हुए देखा। तब जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी सिकोड़ी-बाँह पसारे, या पसारी-बाँह सिकोड़े—भगवान मृगवन से गायब होकर महामोग्गलान भन्ते के ठीक सामने प्रकट हुए, और बिछे आसन पर बैठ गए। बैठे हुए उन्होंने महामोग्गलान भन्ते से पूछा “तुम ऊँघ रहे हो, मोग्गलान? तुम ऊँघ रहे हो?”

“हाँ, भन्ते।”

• अच्छा मोग्गलान, जब तंद्रा आने लगे, तब [जिस तरह आलंबन पता चले] उस नज़रिए पर ध्यान मत दो। उस नज़रिए के पीछे मत पड़ो। संभव है ऐसा करके तुम तंद्रा हटा पाओगे।

• किंतु ऐसा करके यदि तुम तंद्रा न हटा पाए, तब अपने मानस में सुना, याद किया धर्म-विषय ले आओ, और उसपर पुनर्विचार करो। मन में चिंतन-मनन करने लगो। संभव है ऐसा करके तुम तंद्रा हटा पाओगे।

• किंतु ऐसा करके यदि तुम तंद्रा न हटा पाए, तब सुना, याद किया धर्म विस्तारपूर्वक पठन करो। संभव है ऐसा करके तुम तंद्रा हटा पाओगे।

• किंतु ऐसा करके यदि तुम तंद्रा न हटा पाए, तब अपने दोनों कान खींचो और हाथों से शरीर मलो। संभव है ऐसा करके तुम तंद्रा हटा पाओगे।

• किंतु ऐसा करके यदि तुम तंद्रा न हटा पाए, तब आसन से उठो। आँखे जल से धोकर सभी दिशाएँ देखो, ऊपर तारे-नक्षत्र देखो। संभव है ऐसा करके तुम तंद्रा हटा पाओगे।

• किंतु ऐसा करके यदि तुम तंद्रा न हटा पाए, तब उजाला देखने लगो «आलोकसञ्ञी»। ‘उजला दिन है’—इस नज़रिए का अधिष्ठान लो—रात में दिन जैसा रहना, और दिन में रात जैसा। इस तरह खुले, बिना-अवरोधपूर्ण मानस के साथ चित्त को उजालेदार बनाने का अभ्यास करो। संभव है ऐसा करके तुम तंद्रा हटा पाओगे।

• किंतु ऐसा करके यदि तुम तंद्रा न हटा पाए, तब आगे-पीछे [निश्चित दूरी] पहचानकर, चलित-ध्यान «चङकमं» करो। इंद्रिय भीतर की ओर रहे, मानस बाहर न भटके! संभव है ऐसा करके तुम तंद्रा हटा पाओगे।

• इतना करने पर भी यदि तुम तंद्रा न हटा पाए, तब दायी करवट लेटते हुए सिंहशय्या धारण करो—पैर पर पैर रख, स्मरणशील सचेत हो, उठने पर «उट्ठानसञ्ञं» गौर करो। जैसे ही जागो, तुरंत उठ जाओ [सोचते हुए] ‘मैं न नींद-सुख में, न लेटने के सुख में, न ही तंद्रा-सुख में लिप्त होऊँगा।’

— इस तरह मोग्गलान तुम्हें सीखना चाहिए।

«अं.नि.७:६१»


कुसितआरद्धवत्थु

भिक्षुओं, आलस करने के आठ बहाने है —

(१) ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई काम करना होता है, तो वह सोचता है—‘मुझे यह काम करना है। किंतु जब मैं यह काम करूँगा, तो मेरा शरीर थक जाएगा। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’

तब वह लेट जाता है। और कोई ऊर्जा नहीं जगाता—अब तक न प्राप्त [अवस्था] की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे [अवस्था] तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए [अवस्था] के साक्षात्कार के लिए।

(२) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु कोई काम कर लेता है, तो वह सोचता है—‘मैंने यह काम किया। किंतु जब मैंने यह काम किया, तो मेरा शरीर थक गया। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’

तब वह लेट जाता है। और कोई ऊर्जा नहीं जगाता—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए।

(३) ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई यात्रा करनी होती है, तो वह सोचता है—‘मुझे यह यात्रा करनी है। किंतु जब मैं यह यात्रा कर लूंगा, तो मेरा शरीर थक जाएगा। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’

तब वह लेट जाता है। और कोई ऊर्जा नहीं जगाता—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए।

(४) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु कोई यात्रा कर लेता है, तो वह सोचता है—‘मैंने यह यात्रा किया। किंतु जब मैंने यह यात्रा कर लिया, तो मेरा शरीर थक गया। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’

तब वह लेट जाता है। और कोई ऊर्जा नहीं जगाता—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए।

(५) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिलता है। तो वह सोचता है—‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिला। तो मेरा शरीर थका है, काम करने योग्य नहीं। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’

तब वह लेट जाता है। और कोई ऊर्जा नहीं जगाता—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए।

(६) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिलता है। तो वह सोचता है—‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिला। तो मेरा शरीर भारी है, काम करने योग्य नहीं, जैसे [बोरा] दाने से भर गया हो। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’

तब वह लेट जाता है। और कोई ऊर्जा नहीं जगाता—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए।

(७) ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई हल्की बीमारी होती है, तो वह सोचता है—‘मुझे हल्की बीमारी हो गई। लेटने की ज़रूरत है।’

तब वह लेट जाता है। और कोई ऊर्जा नहीं जगाता—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए।

(८) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु किसी बीमारी से उबरता है, अधिक समय नहीं होता, तो वह सोचता है—‘मैं बीमारी से उबर गया। किंतु अधिक समय नहीं हुआ। मेरा शरीर अभी कमज़ोर है, काम करने योग्य नहीं। क्यों न मैं लेट जाऊँ?’

तब वह लेट जाता है। और कोई ऊर्जा नहीं जगाता—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए।

— यह आलस करने के आठ बहाने है।


और यह ऊर्जा जगाने के आठ बहाने है —

(१) ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई काम करना होता है, तो वह सोचता है—‘मुझे यह काम करना है। किंतु काम करते हुए बुद्ध निर्देश «सासन» पर ध्यान देना आसान न होगा। क्यों न मैं उसके पूर्व ही ऊर्जा जगाऊँ—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए?’

तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए।

(२) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु कोई काम कर लेता है, तो वह सोचता है—‘मैंने यह काम किया। किंतु काम करते हुए मैं बुद्ध निर्देश पर ध्यान न दे पाया। क्यों न मैं अब ऊर्जा जगाऊँ—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए?’

तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है…

(३) ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई यात्रा करनी होती है, तो वह सोचता है—‘मुझे यह यात्रा करनी है। किंतु यात्रा करते हुए बुद्ध निर्देश पर ध्यान देना आसान न होगा। क्यों न मैं उसके पूर्व ही ऊर्जा जगाऊँ—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए?’

तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है…

(४) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु कोई यात्रा कर लेता है, तो वह सोचता है—‘मैंने यह यात्रा किया। किंतु यात्रा करते हुए मैं बुद्ध निर्देश पर ध्यान नहीं दे पाया। क्यों न मैं अब ऊर्जा जगाऊँ—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए?’

तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है…

(५) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिलता है। तो वह सोचता है—‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिला। तो मेरा शरीर हल्का व काम करने योग्य है। क्यों न मैं ऊर्जा जगाऊँ—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए?’

तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है…

(६) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिलता है। तो वह सोचता है—‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिला। तो मेरा शरीर हल्का व काम करने योग्य है। क्यों न मैं ऊर्जा जगाऊँ—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए?’

तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है…

(७) ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई हल्की बीमारी होती है, तो वह सोचता है—‘मुझे हल्की बीमारी हो गई। हो सकता है यह बीमारी गंभीर हो जाए। क्यों न मैं उसके पूर्व ही ऊर्जा जगाऊँ—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए?’

तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है…

(८) ऐसा होता है कि कोई भिक्षु किसी बीमारी से उबरता है, अधिक समय नहीं होता, तो वह सोचता है—‘मैं बीमारी से उबर गया। किंतु अधिक समय नहीं हुआ। हो सकता है बीमारी लौट आए। क्यों न मैं उसके पूर्व ही ऊर्जा जगाऊँ—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए?’

तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है—अब तक न प्राप्त की प्राप्ति के लिए, अब तक न पहुँचे तक पहुँच के लिए, अब तक न साक्षात्कार हुए के साक्षात्कार के लिए।

— यह ऊर्जा जगाने के आठ बहाने है।

«अं.नि.८:९५»


रात भर सोते रहे,
दिन में मेलमिलाप में मस्त रहे,
कब, आख़िर कब वह मुर्ख
दुःखों का अन्त करेंगा?

«थेरगाथा १:८४»


उद्धच्चप्पहान

जब भिक्षु ने चित्त ऊँचा उठाने «अधिचित्त» का मन बना लिया हो, तब उसे समय-समय पर पाँच आलंबनों पर ध्यान देना चाहिये। कौन-से पाँच?

(१) ऐसा होता है कि भिक्षु को कभी किसी ख़ास बात पर गौर करने से ‘राग द्वेष मोह’ से जुड़े पाप/अकुशल विचार आने लगते है। तब उसे ख़ास बात छोड़कर, किसी अन्य बात पर गौर करना चाहिए, जो कुशलता से जुड़ी हो।

जैसे कोई कुशल बढ़ई, धँसी हुई बड़ी-कील बाहर निकालने के लिए छोटी-कील उसके ऊपर ठोंके। उसी तरह भिक्षु वह ख़ास बात छोड़कर, किसी अन्य कुशल बात पर गौर करें, तब ‘राग द्वेष मोह’ से जुड़े पाप/अकुशल विचार छूट जाते है, रुक जाते है। उनके छूटते ही वह चित्त भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।

(२) यदि अन्य कुशल बात पर गौर करने पर भी उसे ‘राग द्वेष मोह’ से जुड़े पाप/अकुशल विचार उत्पन्न होते रहे, तब उसे उन विचारों के दुष्परिणाम की समीक्षा करनी चाहिए। ‘वाक़ई यह विचार अकुशल है! वाक़ई यह विचार निंदनीय है! वाक़ई यह विचार पीड़ादायक है!’

जैसे सजावट के शौकीन किसी युवक या युवती के गर्दन पर साँप कुत्ते या मनुष्य का शव लटका दिया जाए, तब वह कैसे खौफ़ लज्जा व घिन महसूस करेंगे। उसी तरह जब भिक्षु उन विचारों के दुष्परिणाम की समीक्षा करें, तब ‘राग द्वेष मोह’ से जुड़े पाप/अकुशल विचार छूट जाते है, रुक जाते है। उनके छूटते ही वह चित्त भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।

(३) यदि दुष्परिणाम की समीक्षा करने पर भी उसे ‘राग द्वेष मोह’ से जुड़े पाप/अकुशल विचार उत्पन्न होते ही रहे, तब उसे उन विचारों को भुला देना चाहिए, ध्यान नहीं देना चाहिए।

जैसे कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष रूप न देखना चाहे, तो आँखे बंद कर ले, या अन्यत्र देखने लगे। उसी तरह जब वह उन विचारों को भुला दे, ध्यान न दे, तब ‘राग द्वेष मोह’ से जुड़े पाप/अकुशल विचार छूट जाते है, रुक जाते है। उनके छूटते ही वह चित्त भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।

(४) यदि भुला देने, ध्यान न देने पर भी उसे राग द्वेष मोह से जुड़े पाप/अकुशल विचार उत्पन्न होते ही रहे, तब उसे उन विचारों की वचन-रचना शिथिल करने पर गौर करना चाहिए।

जैसे किसी तेज़ चलते पुरुष को लगे, “मैं तेज़ क्यों चल रहा हूँ? क्यों न मैं धीमे चलूँ?” तब वह धीमे चलता है। तब उसे लगे, “मैं धीमे क्यों चल रहा हूँ? क्यों न मैं खड़ा रहूँ?” तब वह खड़ा रहता है। तब उसे लगे, “मैं खड़ा क्यों हूँ? क्यों न मैं बैठ जाऊँ?” तब वह बैठ जाता है। तब उसे लगे, “मैं बैठा क्यों हूँ? क्यों न मैं लेट जाऊँ?” तब वह लेट जाता है। उसी तरह जब वह उन विचारों की वचन-रचना शिथिल करने पर गौर करें, तब ‘राग द्वेष मोह’ से जुड़े पाप/अकुशल विचार छूट जाते है, रुक जाते है। उनके छूटते ही वह चित्त भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।

(५) यदि वचन-रचना की शिथिलता पर गौर करने पर भी उसे ‘राग द्वेष मोह’ से जुड़े पाप/अकुशल विचार उत्पन्न होते ही रहे, तब उसे दाँत भींच, जीभ तालु पर दबाए अपने चित्त को मानस द्वारा पीटकर, विवश कर, कुचल देना चाहिए।

जैसे कोई बलवान पुरुष दुर्बल पुरुष का सिर गला या कंधा दबाकर पीटे, विवश करें, कुचल दे। उसी तरह वह दाँत भींच, जीभ तालु पर दबाए अपने चित्त को मानस द्वारा पीटकर, विवश कर, कुचल दे, तब ‘राग द्वेष मोह’ से जुड़े पाप/अकुशल विचार छूट जाते है, रुक जाते है। उनके छूटते ही वह चित्त भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।

«मा.नि.२०»


स्वर्ण में स्थूल अशुद्धियां होती है—धूलभरी रेत, कंकड़ और बजरी। धोनेवाला उस स्वर्ण को जलकुंड में रखता है, और बार-बार धोता है, जब तक वह पूर्ण धुल न जाए।

जब वह धुल जाए, तब स्वर्ण में मध्यम अशुद्धियां बचती है—खुरदुरी रेत और सूक्ष्म बजरी। तब धोनेवाला उसे फ़िर बार-बार धोता है, जब तक वह पूर्ण धुल न जाए।

जब वह धुल जाए, तब स्वर्ण में सूक्ष्म अशुद्धियां बचती है—महीन रेत और काली धूल। तब धोनेवाला उसे फ़िर बार-बार धोता है, जब तक वह पूर्ण धुल न जाए।

जब वह धुल जाए, तब स्वर्ण में केवल स्वर्णधूल बचती है। तब सुनार उसे द्रोण [=तपते बर्तन] में रखकर धौंकनी से बार-बार हवा देता है, जब तक वह धूल उड़ न जाए। धौंकनी से बार-बार हवा देनेपर धूल जब तक पूर्णतः उड़ न जाए, और मैल छूटकर स्वर्ण परिशुद्ध न हो जाए, तब तक स्वर्ण मृदु, काम करने योग्य चमकीला नहीं होता। बल्कि वह भंगुर रहता है, आकार देने योग्य तैयार नहीं रहता।

किंतु अंततः एक समय आता है, जब सुनार धौंकनी से बार-बार हवा देकर धूल पूर्णतः उड़ा ही देता है, और मैल छूटकर स्वर्ण परिशुद्ध, मृदु, काम करने योग्य चमकीला हो जाता है। तब वह भंगुर नहीं बचता, बल्कि आकार देने योग्य तैयार हो जाता है। तब सुनार जो आभूषण चाहे—पट्टा कर्णफूल कंठहार या लड़ी—स्वर्ण उसकी लक्ष्यपूर्ति करेंगा।

उसी तरह चित्त ऊँचा उठाने «अधिचित्त» का मन बनाए भिक्षु में यह स्थूल अशुद्धियां होती है—कायिक दुराचरण, वाचिक दुराचरण, मानसिक दुराचरण। तब कोई सचेत, सक्षम वृत्ति का भिक्षु उन्हें त्यागता है «पजहति», हटाता है «विनोदेति», दूर करता है «ब्यन्तीकरोति», अस्तित्व से मिटा देता है «अनभावं गमेति»।

जब वह उनसे छूट जाए, तब उसमें मध्यम अशुद्धियां रह जाती है—कामुक विचार, दुर्भावनापूर्ण विचार, हिंसात्मक विचार। तब वह सचेत, सक्षम वृत्ति का भिक्षु उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।

जब वह उनसे छूट जाए, तब उसमें सूक्ष्म अशुद्धियां रह जाती है—अपने परिवार-रिश्तेदारों का विचार, गाँव-नगर का विचार, निंदित न होने का विचार। तब वह सचेत, सक्षम वृत्ति का भिक्षु उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।

जब वह उनसे छूट जाए, तब उसमें केवल धर्म के विचार बच जाते है। किंतु उसकी समाधि न शांत होती है, न परिष्कृत। उसे न प्रशान्ति मिलती है, न मानस एकरस होता है। मात्र ‘दबावपूर्ण संयम’ रचते हुए ही उसने अपना चित्त संभाला होता है।

किंतु एक समय आता है, जब उसका चित्त भीतर से स्थिर हो जाता है, स्थित हो जाता है, एकाग्र हो जाता है, समाहित हो जाता है। उसकी समाधि शांत हो जाती है, परिष्कृत हो जाती है। उसे प्रशान्ति मिलती है, और मानस एकरस हो जाता है। अब मात्र ‘दबावपूर्ण संयम’ रचते हुए ही उसने अपना चित्त संभाला नहीं होता। तब वह छह विशिष्ट-ज्ञानों «अभिञ्ञा» में से जिसे जानने, साक्षात्कार करने की ओर अपना चित्त मोड़ें, जब भी आयाम खुले, वह साक्षात्कार कर सकता है।

«अं.नि.३:१००»


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