अरियसच्च
~ आर्य सत्य का परिचय ~
सीसपावन —
एक समय भगवान कौशाम्बी के समीप शीशमवन में रहते थे। उन्होंने शीशम के कुछ पत्ते हाथ में लेकर भिक्षुओं से पूछा—“क्या लगता है भिक्षुओं, क्या अधिक है? मेरे हाथ में लिए कुछ पत्ते, या शीशमवन को आच्छादित किए पत्ते?”
“भगवान, आपके हाथ में लिए पत्ते थोड़े से है, किंतु शीशमवन को आच्छादित किए पत्ते बहुत अधिक हैं।”
उसी तरह भिक्षुओं, जितना मुझे विशिष्ट-ज्ञान «अभिञ्ञा» मिला—वह बहुत अधिक है, जिसे मैंने बताया नहीं। क्यों नहीं बताया? क्योंकि वह न ध्येय से संबंधित है, न ब्रह्मचर्य-आधार से। उससे न मोहभंग, न वैराग्य, न निरोध होता है; न प्रशान्ति मिलती है, न विशिष्ट-ज्ञान, न संबोधि, न ही निर्वाण। इसीलिए वह बताया नहीं।
और मैंने क्या बताया? मैंने बताया—‘ऐसा दुःख होता है’… ‘यह दुःख उत्पत्ति है’… ‘वह दुःख निरोध है’… ‘वह दुःख निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है’। वह क्यों बताया? क्योंकि वह ध्येय से संबंधित, ब्रह्मचर्य के आधार से संबंधित है। उससे मोहभंग, वैराग्य व निरोध होता है; उससे प्रशान्ति, विशिष्ट-ज्ञान, संबोधि और निर्वाण मिलता है। इसीलिए मैंने वह बताया।
इसलिए ‘ऐसा दुःख होता है’—पर जुटना तुम्हारा कर्तव्य है। ‘यह दुःख उत्पत्ति है’—पर जुटना तुम्हारा कर्तव्य है। ‘वह दुःख निरोध है’—पर जुटना तुम्हारा कर्तव्य है। ‘वह दुःख निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है’—पर जुटना तुम्हारा कर्तव्य है।
«सं.नि.५६:३१»
भिक्षुओं, यह चार आर्यसत्य — जो पूर्व कभी न सुना धर्म है — के प्रति मुझे [धर्म] चक्षु उत्पन्न हुए, ज्ञान उत्पन्न हुआ, प्रज्ञा उत्पन्न हुई, विद्या उत्पन्न हुई, उजाला उत्पन्न हुआ कि इस — • इस दुःख आर्यसत्य को अंतिम-छोर तक पता करते जाना «परिञ्ञेय्यन्ति» है। • दुःख उत्पत्ति आर्यसत्य को त्याग करते जाना «पहातब्बन्ति» है। • दुःख निरोध आर्यसत्य का साक्षात्कार करते जाना «सच्छिकातब्बन्ति» है। • दुःख निरोध करानेवाले प्रगतिपथ की साधना करते जाना «भावेतब्बन्ति» है। «सं.नि.५६:११»
दुःख आर्यसत्य क्या है? जन्म कष्टपूर्ण है; बुढापा कष्टपूर्ण है; मौत कष्टपूर्ण है; शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा कष्टपूर्ण है; अप्रिय से जुड़ाव कष्टपूर्ण है, प्रिय से अलगाव कष्टपूर्ण है, इच्छापूर्ति न होना कष्टपूर्ण है; संक्षिप्त में, पाँच आधार-संग्रह कष्टपूर्ण है। जन्म क्या है? भिन्न-भिन्न सत्वों का भिन्न-भिन्न समूह में जन्म होना, जन्म लेना, उत्पत्ति होना, उद्भव होना, [पाँच आधार] संग्रह का प्रादुर्भाव होना, [छह] आयामों का प्राप्त होना—यह कहलाता है जन्म। बुढापा क्या है? भिन्न-भिन्न सत्वों का भिन्न-भिन्न समूह में बूढ़ा होना, जीर्ण होना, [दाँत] टूटना, [केश] सफ़ेद होना, [त्वचा पर] झुर्रियां पड़ना, प्राण-ऊर्जा «आयु» में कमी आना, इंद्रियाँ कमज़ोर होना—यह कहलाता है बुढ़ापा। मौत क्या है? भिन्न-भिन्न सत्वों का भिन्न-भिन्न समूह से च्युति होना, गुज़र जाना, अलगाव होना, अंतर्धान होना, मृत्यु होना, निधन होना, समयावधि समाप्त «कालकिरिया» होना, संग्रह का बिखरना, शरीर त्यागना, जीवित-इंद्रिय रुक जाना—यह कहलाती है मौत। शोक क्या है? भिन्न-भिन्न दुर्भाग्यों से पीड़ित, भिन्न-भिन्न दर्द-स्वभावों से संस्पर्शित [छूते] सत्वों का शोक, खेद, अफ़सोस; स्वयं को लेकर खेद होना, स्वयं को लेकर अफ़सोस होना—यह कहलाता है शोक। विलाप «परिदेव» क्या है? भिन्न-भिन्न दुर्भाग्यों से पीड़ित, भिन्न-भिन्न दर्द-स्वभावों से संस्पर्शित सत्वों का रोना, बिलखना, विलाप करना, क्रंदन करना, आँसू बहाना, मातम करना—यह कहलाता है विलाप। दर्द क्या है? शारीरिक पीड़ा, शारीरिक परेशानी, काया से छूने पर पीड़ा व परेशानी महसूस होना—यह कहलाता है दर्द। व्यथा «दोमनस्स» क्या है? मानसिक पीड़ा, मानसिक परेशानी, मन से छूने पर पीड़ा व परेशानी महसूस होना—यह कहलाती है व्यथा। निराशा «उपायास» क्या है? भिन्न-भिन्न दुर्भाग्यों से पीड़ित, भिन्न-भिन्न दर्द-स्वभावों से संस्पर्शित सत्वों का हताश होना, निराश होना, उदास होना, मायूस होना—यह कहलाती है निराशा। अप्रिय से जुड़ाव क्या है? यहाँ किसी के इच्छाविरुद्ध, नापसंदीदा अनाकर्षक रूप, आवाज़, गन्ध, स्वाद, संस्पर्श व स्वभाव—या अनर्थ चाहनेवाले, अहित चाहनेवाले, असुविधा चाहनेवाले, योगबन्धन से राहत न चाहनेवाले—के साथ संगति होना, भेट होना, साथ जुड़ना, मेलमिलाप होना—यह कहलाता है अप्रिय से जुड़ाव कष्टपूर्ण है। प्रिय से अलगाव क्या है? यहाँ किसी की इच्छानुसार, पसंदीदा आकर्षक रूप, आवाज़, गन्ध, स्वाद, संस्पर्श व स्वभाव—या भला चाहनेवाले, हित चाहनेवाले, सुविधा चाहनेवाले, योगबन्धन से राहत चाहनेवाले माता पिता बहन भाई मित्र साथी रक्तसंबंधी रिश्तेदार—के साथ संगति न होना, भेट न होना, साथ न जुड़ना, मेलमिलाप न होना—यह कहलाता है प्रिय से अलगाव कष्टपूर्ण है। इच्छापूर्ति न होना क्या है? जन्म-स्वभाववाले सत्वों को [कभी] ऐसी इच्छा प्रकट होती है—‘अरे! हम जन्म-स्वभाववाले न होते! काश हमारा जन्म ही न होता!’ किंतु ऐसी [मात्र] इच्छा करने से नहीं मिलता—यह कहलाता है इच्छापूर्ति न होना कष्टपूर्ण है। बुढ़ापा-स्वभाववाले सत्वों को ऐसी इच्छा प्रकट होती है—‘अरे! हम बुढ़ापा-स्वभाववाले न होते! काश हम बूढ़े ही न होते!’ किंतु ऐसी इच्छा करने से नहीं मिलता—यह कहलाता है इच्छापूर्ति न होना कष्टपूर्ण है। रोग-स्वभाववाले सत्वों को ऐसी इच्छा प्रकट होती है—‘अरे! हम रोग-स्वभाववाले न होते! काश हमें रोग ही न होता!’ किंतु ऐसी इच्छा करने से नहीं मिलता—यह कहलाता है इच्छापूर्ति न होना कष्टपूर्ण है। मौत-स्वभाववाले सत्वों को ऐसी इच्छा प्रकट होती है—‘अरे! हम मौत-स्वभाववाले न होते! काश हमारी मौत ही न होती!’ किंतु ऐसी इच्छा करने से नहीं मिलता—यह कहलाता है इच्छापूर्ति न होना कष्टपूर्ण है। शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा—स्वभाववाले सत्वों को ऐसी इच्छा प्रकट होती है—‘अरे! हम शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा—स्वभाववाले न होते! काश हमें शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा ही न होती!’ किंतु ऐसी इच्छा करने से नहीं मिलता—यह कहलाता है इच्छापूर्ति न होना कष्टपूर्ण है। संक्षिप्त में, पाँच आधार-संग्रह क्या है? जैसे की रूप आधार-संग्रह, संवेदना आधार-संग्रह, नज़रिया आधार-संग्रह, रचना आधार-संग्रह, चैतन्यता आधार-संग्रह—यह कहलाता है संक्षिप्त में, पाँच आधार-संग्रह कष्टपूर्ण है। कल्पना करो कि कोई गृहस्थ बड़ा धनवान, शक्तिशाली व समृद्धशाली हो, जो पूर्णतः सुरक्षा घेरे में रहता हो। तब कोई पुरुष आए, जो उसका हित न चाहता हो, कल्याण न चाहता हो; बल्कि सुरक्षा में हानि चाहता हो, उसका वध करना चाहता हो। वह सोचेगा—‘इस गृहस्थ का बलपूर्वक वध करना आसान नहीं। क्यों न मैं घुसपैठ करूँ, और तब वध करूँ?’ तब वह गृहस्थ के समक्ष जाकर कहता है —“मालिक, मुझे नौकर बना लो।” तब गृहस्थ उसे नौकर बनाता है। नौकरी मिल जाने पर पुरुष प्रातःकाल अपने मालिक के जागने पूर्व उठता, रात में मालिक के पश्चात ही सोता। वही करता, जो मालिक आज्ञा करें। अपने कृत्यों से उसे हमेशा प्रसन्न करता, नम्रतापूर्वक ही बोलता। तब धीरे-धीरे गृहस्थ का उस पर विश्वास जड़ गया, तथा वह उसे मित्र सहचारी की तरह देखने लगा। जब पुरुष को पता चला—‘यह गृहस्थ अब मुझ पर विश्वास करता है’, तब वह एकांतस्थल पर मिलने पर तेज़ चाक़ू से उसका वध कर देता है। तो तुम्हें क्या लगता है? जब पुरुष ने उस गृहस्थ के समक्ष जाकर कहा —“मालिक, मुझे नौकर बना लो।” क्या तब भी वह हत्यारा नहीं था? चूँकि वह तब भी हत्यारा था, किंतु गृहस्थ को पता नहीं था कि वह उसका हत्यारा है। और जब नौकरी मिल जाने पर पुरुष प्रातःकाल अपने मालिक के जागने पूर्व उठता, रात में मालिक के पश्चात ही सोता, वही करता, जो मालिक आज्ञा करें, अपने कृत्यों से उसे हमेशा प्रसन्न करता, नम्रतापूर्वक ही बोलता—क्या तब भी वह हत्यारा नहीं था? चूँकि वह तब भी हत्यारा था, किंतु गृहस्थ को पता नहीं था कि वह उसका हत्यारा है। और जब एकांतस्थल पर मिलने पर उसने तेज़ चाक़ू से गृहस्थ का वध कर दिया—क्या तब भी वह हत्यारा नहीं था? चूँकि वह तब भी हत्यारा था, किंतु गृहस्थ को पता नहीं था कि वह उसका हत्यारा है। उसी तरह कोई धर्म न सुना, आम आदमी रूप को आत्म मानता है; या आत्म की रूप मानता है; या आत्म में रूप मानता है; या रूप में आत्म मानता है। वह संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता को आत्म मानता है; या आत्म की चैतन्यता मानता है; या आत्म में चैतन्यता मानता है; या चैतन्यता में आत्म मानता है। उसे रूप जैसे अनित्य हो, वैसे पता नहीं चलता कि—‘यह रूप अनित्य है।’ उसे संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता जैसे अनित्य हो, वैसे पता नहीं चलता कि—‘यह संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता अनित्य है।’ उसे रूप जैसे कष्टपूर्ण हो, वैसे पता नहीं चलता कि —“यह रूप कष्टपूर्ण है। उसे संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता जैसे कष्टपूर्ण हो, वैसे पता नहीं चलता कि —“यह संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता कष्टपूर्ण है।” उसे रूप जैसे अनात्म हो, वैसे पता नहीं चलता कि —“यह रूप अनात्म है।’ उसे संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता जैसे अनात्म हो, वैसे पता नहीं चलता कि—‘यह संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता अनात्म है।’ उसे रूप जैसे रचित हो, वैसे पता नहीं चलता कि—‘यह रूप रचित है।’ उसे संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता जैसे रचित हो, वैसे पता नहीं चलता कि—‘यह संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता रचित है।’ उसे रूप जैसे हत्यारा हो, वैसे पता नहीं चलता कि—‘यह रूप हत्यारा है।’ उसे संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता जैसे हत्यारी हो, वैसे पता नहीं चलता कि—‘यह संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता हत्यारी है।’ वह रूप से आसक्त होता है, रूप का आधार लेता है, व उसे ‘मेरा आत्म’ निश्चित करता है। वह संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता से आसक्त होता है, उनका आधार लेता है, व उन्हें ‘मेरा आत्म’ निश्चित करता है। इन पाँच आधार-संग्रह से आसक्त होना, आधार लेना उसके दीर्घकालीन हानि व दुःख का कारण बनता है। इन पाँच आधार-संग्रहों की जड़ चाह होती है। • रूप को रूप क्यों कहते है? «रुप्पती’ति रूपं» पीड़ित होता है, उसे रूप कहते है! किससे पीड़ित होता है? ठंडी से पीड़ित होता है, गर्मी से पीड़ित होता है, भूख से पीड़ित होता है, प्यास से पीड़ित होता है। मक्खियां मच्छर पवन धूप रेंगनेवाले-जीवों के संस्पर्शों से पीड़ित होता है। पीड़ित होता है, उसे रूप कहते है! जो भी रूप है—भूत भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के—वह रूपसंग्रह है। चार महाभूत के कारण व परिस्थिति «हेतु पच्चय» से रूपसंग्रह प्रादुर्भूत होता है। इस रूपसंग्रह में से जिनके प्रति चाह व दिलचस्पी हो, वही रूप आधार-संग्रह बनता है। कल्पना करो कि झाग का एक बड़ा पिंड गंगा नदी में बह रहा हो। उसे कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे वह ख़ाली खोखला व निःसार लगेगा। झाग के पिंड में आख़िर क्या सार मिलेगा? उसी तरह जो भी रूप हो—भूत भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के—भिक्षु देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे सभी रूप ख़ाली खोखले व निःसार लगेंगे। रूप में आख़िर क्या सार मिलेगा? • संवेदना को संवेदना क्यों कहते है? «वेदयतीति वेदना» महसूस करते है, उसे संवेदना कहते है! क्या महसूस करते है? सुख महसूस करते है, दर्द महसूस करते है, नसुख-नदर्द महसूस करते है। जो भी शारीरिक या मानसिक संवेदना सुखद व अच्छी लगती है, उसे सुख कहते है। जो भी शारीरिक या मानसिक संवेदना दर्दभरी व बुरी लगती है, उसे दर्द कहते है। जो भी शारीरिक या मानसिक संवेदना न-अच्छी न-बुरी लगती है, उसे नसुख-नदर्द कहते है। सुख बने रहने में सुखद है, किंतु बदल जाने में दुखद है। दर्द बने रहने में दुखद है, किंतु बदल जाने में सुखद है। नसुख-नदर्द ज्ञान से जुड़ी हो [=पता चले] तो सुखद है, किंतु ज्ञान से जुड़ी न हो [=पता न चले] तब दुखद है। महसूस करते है, उसे संवेदना कहते है! जो भी संवेदनाएँ है—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की—वह संवेदनासंग्रह है। [इंद्रिय] संपर्क के कारण व परिस्थिति से संवेदनासंग्रह प्रादुर्भूत होता है। इस संवेदनासंग्रह में से जिनके प्रति चाह व दिलचस्पी हो, वही संवेदना आधार-संग्रह बनता है। कल्पना करो कि शरदऋतु में जब बड़ी व भारी बूँदों के साथ वर्षा हो रही हो, तब जल में बुलबुले उठे व बुझ जाए। उसे कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे वह ख़ाली खोखला व निःसार लगेगा। जल के बुलबुले में आख़िर क्या सार मिलेगा? उसी तरह जो भी संवेदनाएँ हो—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की—भिक्षु देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे सभी संवेदनाएँ ख़ाली खोखले व निःसार लगेंगे। संवेदना में आख़िर क्या सार मिलेगा? • नज़रिया को नज़रिया क्यों कहते है? «सञ्जानातीति सञ्ञा» [जिस तरह जानते] पहचानते है, उसे नज़रिया कहते है! क्या पहचानते है? नीला पहचानते है, पीला पहचानते है, लाल पहचानते है, सफ़ेद पहचानते है। पहचानते है, उसे नज़रिया कहते है! जो भी नज़रिएँ है—भूत भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के—वह नज़रियासंग्रह है। [इंद्रिय] संपर्क के कारण व परिस्थिति से नज़रियासंग्रह प्रादुर्भूत होता है। इस नज़रिया-संग्रह में से जिनके प्रति चाह व दिलचस्पी हो, वही नज़रिया आधार-संग्रह बनता है। कल्पना करो कि ग्रीष्मकाल के अंतिम महीने में मृगमरीचिका झलक रही हो। उसे कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे वह ख़ाली खोखला व निःसार लगेगा। मृगमरीचिका में आख़िर क्या सार मिलेगा? उसी तरह जो भी नज़रिएँ हो—भूत भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के—भिक्षु देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे सभी नज़रिएँ ख़ाली खोखले व निःसार लगेंगे। नज़रिए में आख़िर क्या सार मिलेगा? • रचना को रचना क्यों कहते है? «सङखतमभिसङखरोन्तीति सङखारा» रचनेयोग्य वस्तुओँ को रचते है, उसे रचना कहते है! क्या रचते है? रूपत्व [भौतिकता] के लिए रूप रचते है, वेदत्व [महसूस करने] के लिए संवेदना रचते है, संज्ञत्व [पहचानने] के लिए नज़रिया रचते है, संस्कृत्व [रचने] के लिए रचना रचते है, विज्ञत्व [जानने] के लिए चैतन्यता रचते है। रचनेयोग्य वस्तुओँ को रचते है, उसे रचना कहते है! तीन तरह की रचनाएँ होती है—कायिक-रचना, वाचिक-रचना, और चित्त-रचना। • आती-जाती साँस कायिक होती है। वह काया से जुड़े हुए धर्म है। इसलिये आश्वास-प्रश्वास कायिक-रचना है। • पहले सोच «वितक्क» कर विचार करने पश्चात ही कोई वचन निकालता है। इसलिये सोच-विचार वाचिक-रचना है। • नज़रिया व संवेदना चेतसिक है। वह चित्त से जुड़े हुए धर्म है। इसलिये नज़रिया व संवेदना चित्त-रचना है। छह तरह से भी रचनाएँ होती है—भिन्न-भिन्न तरह के रूप, आवाज़, गंध, स्वाद, संस्पर्श व स्वभाव के प्रति भिन्न-भिन्न इरादे «चेतना»। जो भी रचनाएँ है—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की—वह रचनासंग्रह है। [इंद्रिय] संपर्क के कारण व परिस्थिति से रचनासंग्रह प्रादुर्भूत होता है। इस रचनासंग्रह में से जिनके प्रति चाह व दिलचस्पी हो, वही रचना आधार-संग्रह बनता है। कल्पना करो कि कोई पुरुष मज़बूत लकड़ी [=अन्तःकाष्ठ] चाहता हो, मज़बूत लकड़ी की ख़ोज में, मज़बूत लकड़ी ढूँढते हुए वह तेज़ कुल्हाड़ी लेकर जंगल जाए। वहाँ उसे बड़ा केले का वृक्ष दिखाई दे—सीधा ताज़ा व अत्यंत लंबा। उसे वह जड़ से काट दे। जड़ से काटने पर उसका सिरा छाँट दे। सिरा छाँटने पर वह उसका ऊपरी छिलका उतार दे। ऊपरी छिलका उतारने पर उसे मृदु लकड़ी [=रसकाष्ठ] भी न मिलेगी, मज़बूत लकड़ी तो छोड़ो! उसे कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे वह ख़ाली खोखला व निःसार लगेगा। केले के वृक्ष में आख़िर क्या सार मिलेगा? उसी तरह जो भी रचनाएँ हो—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की—भिक्षु देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे सभी रचनाएँ ख़ाली खोखले व निःसार लगेंगे। रचनाओं में आख़िर क्या सार मिलेगा? • चैतन्यता को चैतन्यता क्यों कहते है? «विजानातीति विञ्ञाण» जानता है, उसे चैतन्यता कहते है! क्या जानता है? वह जानता है—क्या खट्टा है, क्या कड़वा है, क्या तीख़ा है, क्या मीठा है, क्या खारा है, क्या खारा नहीं है, क्या नमकीन है, क्या नमकीन नहीं है। जानता है, उसे चैतन्यता कहते है! जिस स्थिति का आधार लेकर चैतन्यता उत्पन्न होती हो, उसी तरह वर्गीकृत होती है। अर्थात, आँख व रूप का आधार लेकर जब चैतन्यता उपजे, तो उसे ‘आँख की चैतन्यता’ कहते है। कान व आवाज़ का आधार लेकर जब चैतन्यता उपजे, तो उसे ‘कान की चैतन्यता’ कहते है। नाक व गंध का आधार लेकर जब चैतन्यता उपजे, तो उसे ‘नाक की चैतन्यता’ कहते है। जीभ व स्वाद का आधार लेकर जब चैतन्यता उपजे, तो उसे ‘जीभ की चैतन्यता’ कहते है। काया व संस्पर्श का आधार लेकर जब चैतन्यता उपजे, तो उसे ‘काया की चैतन्यता’ कहते है। मन व स्वभाव का आधार लेकर जब चैतन्यता उपजे, तो उसे ‘मन की चैतन्यता’ कहते है। जैसे अग्नि जिस स्थिति का आधार लेकर उत्पन्न होती हो, उसी तरह वर्गीकृत होती है। अर्थात, अग्नि जब लकड़ी का आधार लेकर जलने लगे, तो उसे ‘लकड़ी की अग्नि’ कहते है। अग्नि जब तेल का आधार लेकर जलने लगे, तो उसे ‘तेल की अग्नि’ कहते है। अग्नि जब कचरे का आधार लेकर जलने लगे, तो उसे ‘कचरे की अग्नि’ कहते है। उसी तरह जिस स्थिति का आधार लेकर चैतन्यता उत्पन्न होती हो, उसी तरह वर्गीकृत होती है। जो भी चैतन्यता है—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की—वह चैतन्यतासंग्रह है। नाम-रूप के कारण व परिस्थिति से चैतन्यतासंग्रह प्रादुर्भूत होता है। इस चैतन्यतासंग्रह में से जिनके प्रति चाह व दिलचस्पी हो, वही चैतन्यता आधार-संग्रह बनता है। कल्पना करो कि कोई जादूगर बड़े चौराहे पर जादुई खेल दिखा रहा हो। उसे कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे वह ख़ाली खोखला व निःसार लगेगा। जादुई खेल में आख़िर क्या सार मिलेगा? उसी तरह जो भी चैतन्यता हो—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की—भिक्षु देखें, गौर करें, ठीक से निरीक्षण करें, तो उसे सभी चैतन्यता ख़ाली खोखले व निःसार लगेंगे। चैतन्यता में आख़िर क्या सार मिलेगा? इस तरह देखने से भिक्षुओं, धर्म सुने आर्यश्रावक का रूपों के प्रति मोहभंग होता है, संवेदनाओं के प्रति मोहभंग होता है, नज़रियों के प्रति मोहभंग होता है, रचनाओं के प्रति मोहभंग होता है, चैतन्यता के प्रति मोहभंग होता है। मोहभंग होने से वैराग्य आता है। वैराग्य आने से वह विमुक्त होता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है—‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है—‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ «दी.नि.२२ + मा.नि.१०९ + सं.नि.२२:७९ + सं.नि.२२:५६ + सं.नि.२२:९५ + मा.नि.३८ + दी.नि.३३ + मा.नि.४४»
संवेदना, नज़रिया और चैतन्यता आपस में संयुक्त [=जुड़े] होते है, असंयुक्त नहीं। और यह असंभव है कि उन्हें विभाजित कर, उनकी भिन्नता का वर्णन किया जा सके। कोई जो [संवेदना] महसूस करता है, वही [नज़रिया द्वारा] पहचानता है। जो पहचानता है, वही [चैतन्यता द्वारा] जानता है। «मा.नि.४३»
[सारिपुत्त भन्ते:] मित्रों, यह पाँच-धातुएँ होती है। कौन-सी पाँच? पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु, वायुधातु, और आकाशधातु। • पृथ्वीधातु क्या है? पृथ्वीधातु भीतरी हो सकती है या बाहरी। भीतरी पृथ्वीधातु क्या है? जो कुछ भीतर शरीर में कठोर, ठोस और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे—केश, लोम, नाख़ून, दाँत, त्वचा, मांस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली, हृदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा, क्लोमक, आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी—या [अन्य] जो कुछ भीतर कठोर, ठोस और आधारित है, उसे भीतरी पृथ्वीधातु कहते है। अब भीतरी पृथ्वीधातु एवं बाहरी पृथ्वीधातु केवल ‘पृथ्वीधातु’ ही है, जिसे जैसी हो वैसे सही पता करके देखना है कि यह—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’ एक समय आता है, जब बाहरी जलधातु कुपित होती है [=बाढ़ सुनामी महाप्रलय कल्पान्त]। तब बाहरी पृथ्वीधातु विलुप्त हो जाती है। जब इतनी विशाल बाहरी पृथ्वीधातु की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाशस्वभाव दिख पड़ता है, पतनस्वभाव दिख पड़ता है, बदलावस्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है? क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ उसका तो बस एक ‘ना’ ही है! जब कोई पृथ्वीधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका पृथ्वीधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह पृथ्वीधातु से विरक्त करता है। • और जलधातु क्या है? जलधातु भीतरी हो सकती है या बाहरी। भीतरी जलधातु क्या है? जो कुछ भीतर शरीर में जल, तरल और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे—पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी, आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ों में तरल, मूत्र—या [अन्य] जो कुछ भीतर जल, तरल और आधारित है, उसे भीतरी जलधातु कहते है। अब भीतरी जलधातु एवं बाहरी जलधातु केवल ‘जलधातु’ ही है जिसे, जैसी हो, वैसी सही पता करके देखना है कि यह—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’ एक समय आता है, जब बाहरी जलधातु कुपित होती है। तब वह गाँव नगर शहर राज्य और देश बहा ले जाती है। या एक समय आता है, जब महासागरों का जल केवल सात सौ-योजन… छह सौ… पाँच सौ… चार सौ… तीन सौ… दो सौ… केवल एक सौ योजन ही रह जाता है। एक समय आता है, जब महासागरों का जल केवल सात ताड़-वृक्षों तक गहरा… छह… पाँच… चार… तीन… दो… एक ताड़-वृक्ष तक गहरा ही रह जाता है। एक समय आता है, जब महासागरों का जल केवल सात पुरुष-लंबाई तक गहरा… छह… पाँच… चार… तीन… दो… एक पुरुष-लंबाई तक गहरा ही रह जाता है। एक समय आता है, जब महासागरों का जल अर्ध पुरुष-लंबाई तक गहरा… कमर तक… घुटने तक… मात्र टखने तक ही रह जाता है। और एक समय आता है, जब महासागरों का जल इतना भी गहरा नहीं बचता कि पैर की उँगली का जोड़ भिगो सके। जब इतनी विशाल बाहरी जलधातु की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाशस्वभाव दिख पड़ता है, पतनस्वभाव दिख पड़ता है, बदलावस्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है? क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ उसका तो बस एक ‘ना’ ही है! जब कोई जलधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका जलधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह जलधातु से विरक्त करता है। • अब अग्निधातु क्या है? अग्निधातु भीतरी हो सकती है या बाहरी। भीतरी अग्निधातु क्या है? जो कुछ भीतर शरीर में ज्वलनशील, गर्म और [तृष्णा पर] आधारित है, जिससे शरीर गर्म रहता है, जीर्ण होता है, तपता है, और जिसके द्वारा खाए पीए चबाए व निगले का पाचन होता है—या [अन्य] जो कुछ भीतर ज्वलनशील, गर्म और आधारित है, उसे भीतरी अग्निधातु कहते है। अब भीतरी अग्निधातु एवं बाहरी अग्निधातु केवल ‘अग्निधातु’ ही है, जिसे जैसी हो, वैसी सही पता करके देखना है कि यह—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’ एक समय आता है, जब बाहरी अग्निधातु कुपित होती है। तब वह गाँव नगर शहर राज्य और देश जलाकर भस्म कर देती है। और अंततः किसी हरेभरे नगर के छोर पर आकर, या मार्ग के किनारे आकर, या पथरीले नगर के किनारे आकर, या जलाशय के किनारे आकर, या हरियाली के किनारे आकर, या जल भरे क्षेत्र में आकर आहार न पाकर बुझ जाती है। और एक समय [ऐसा भी] आता है, जब लोग मुर्गे के पँख और चमड़े के छिलके से अग्नि जलाने की चेष्ठा करते है। जब इतनी विशाल बाहरी अग्निधातु की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाशस्वभाव दिख पड़ता है, पतनस्वभाव दिख पड़ता है, बदलावस्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है। क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ उसका तो बस एक ‘ना’ ही है! जब कोई अग्निधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका अग्निधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह अग्निधातु से विरक्त करता है। • और वायुधातु क्या है? वायुधातु भीतरी हो सकती है या बाहरी। भीतरी वायुधातु क्या है? जो कुछ भीतर शरीर में वायु, पवन और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे—ऊपर उठती वायु, नीचे गिरती वायु, पेट में वायु, आँत में वायु, शरीर में सर्वत्र घूमती वायु, आती जाती साँस «आनापान»—या जो कुछ भी भीतर वायु, पवन और आधारित है, उसे भीतरी वायुधातु कहते है। अब भीतरी वायुधातु एवं बाहरी वायुधातु केवल ‘वायुधातु’ ही है, जिसे जैसी हो, वैसी सही पता करके देखना है कि यह—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’ एक समय आता है, जब बाहरी वायुधातु कुपित होती है। तब वह गाँव नगर शहर राज्य और देश उड़ा ले जाती है। और एक समय [ऐसा भी] आता है, जब ग्रीष्मकाल के अंतिम महीने में लोग पँखे या धौंकनी से हवा झलते है। तब छत की खर-पतवार तक नहीं हिलती। जब इतनी विशाल बाहरी वायुधातु की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाशस्वभाव दिख पड़ता है, पतनस्वभाव दिख पड़ता है, बदलावस्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है? क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ उसका तो बस एक ‘ना’ ही है! जब कोई वायुधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका वायुधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह वायुधातु से विरक्त करता है। • और आकाशधातु क्या है? आकाशधातु भीतरी हो सकती है या बाहरी। भीतरी आकाशधातु क्या है? जो कुछ भीतर शरीर में ख़ाली, रिक्त जगह, और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे—कर्णछिद्र, नासिकाछिद्र, मुखद्वार, और वह [रास्ता] जिससे खाया पिया चबाया आस्वादित निगला जाता है, और जहाँ [उदर में] वह इकट्ठा होता है, और जहाँ नीचे से वह मल त्यागा जाता है—या [अन्य] जो कुछ भीतर शरीर में ख़ाली, रिक्त जगह और आधारित है, उसे भीतरी आकाशधातु कहते है। अब भीतरी आकाशधातु एवं बाहरी आकाशधातु केवल ‘आकाशधातु’ ही है, जिसे जैसी हो, वैसी सही पता करके देखना है कि यह—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’ जब इतनी विशाल बाहरी धातुओं की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाशस्वभाव दिख पड़ता है, पतनस्वभाव दिख पड़ता है, बदलावस्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है? क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ उसका तो बस एक ‘ना’ ही है! जब कोई आकाशधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका आकाशधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह आकाशधातु से विरक्त करता है। «मा.नि.६२ + मा.नि.२८»
«सं.नि.५६:१४»
“‘श्रोत श्रोत’ कहते है। यह श्रोत क्या होता है?” बस यही—‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ ही श्रोत है। “‘श्रोतापन्न श्रोतापन्न’ कहते है। यह श्रोतापन्न क्या होता है?” जो व्यक्ति ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ में संपन्न हो, उसे श्रोतापन्न कहते है। «सं.नि.५५:५»
सत्व “‘सत्व.. सत्व..’ कहते है, भगवान। किस हद तक किसी को सत्व कहते है?” रूप के प्रति चाह होती है, या दिलचस्पी होती है, या मज़ा होता है, या तृष्णा होती है—«सत्ता विसत्ता’ति सत्ता» जो पकड़ ले, जो चिपक जाए—उसे सत्व कहते है। संवेदना के प्रति… नज़रिए के प्रति… रचना के प्रति… चैतन्यता के प्रति चाह होती है, या दिलचस्पी होती है, या मज़ा होता है, या तृष्णा होती है—जो पकड़ ले, जो चिपक जाए—उसे सत्व कहते है। जैसे बच्चें मिट्टी [या रेत] के नन्हें घर बनाने का खेल खेल रहे हो। जब तक बच्चों की नन्हें घरों के प्रति दिलचस्पी, चाह, स्नेह, प्यास, ताप व तृष्णा नहीं छूटती, उतनी देर बच्चें नन्हें घर बनाते हुए ख़ूब खेलते है, मौजमस्ती करते है, उन्हें सँजोते है, उनपर मालकियत समझते है। किंतु जब उनकी दिलचस्पी, चाह, स्नेह, प्यास, ताप व तृष्णा छूट जाए, तब वे हाथ-पैरों से उन्हें तोड़ देते है, बिखरा देते है, गिरा देते है, खेलने लायक नहीं छोड़ते। उसी तरह तुम्हें भी रूप को तोड़ देना चाहिए, बिखरा देना चाहिए, गिरा देना चाहिए, खेलने लायक नहीं छोड़ना चाहिए। उसके प्रति तृष्णा का समूल अंत करने की साधना करनी चाहिए। उसी तरह तुम्हें संवेदना को… नज़रिए को… रचनाओं को… चैतन्यता को तोड़ देना चाहिए, बिखरा देना चाहिए, गिरा देना चाहिए, खेलने लायक नहीं छोड़ना चाहिए। उनके प्रति तृष्णा का समूल अंत करने की साधना करनी चाहिए। क्योंकि तृष्णा का समूल अंत होना ही निर्वाण है। «सं.नि.२५:१»
मित्र सारिपुत्त, शीलवान भिक्षु को किस बात पर योग्य तरह से गौर करना चाहिए? मित्र कोट्ठित, शीलवान भिक्षु को पाँच आधार-संग्रह पर योग्य तरह से गौर करना चाहिए कि वह ‘अनित्य होते है, कष्टपूर्ण होते है, रोग होते है, फोड़ा होते है, तीर होते है, पीड़ादायक होते है, मुसीबत होते है, पराये होते है, भंग होते है, शून्य होते है, अनात्म होते है।’ क्योंकि हो सकता है पाँच आधार-संग्रह पर इस तरह चिंतन कर शीलवान भिक्षु को श्रोतापन्नफ़ल… श्रोतापन्न भिक्षु को सकदागामीफ़ल… सकदागामी भिक्षु को अनागामीफ़ल… अनागामी भिक्षु को अरहंतफ़ल का साक्षात्कार हो जाए। अरहंत भिक्षु को भी इन्ही पाँच आधार-संग्रह पर योग्य तरह से गौर करना चाहिए कि वह—‘अनित्य होते है, कष्टपूर्ण होते है, रोग होते है, फोड़ा होते है, तीर होते है, पीड़ादायक होते है, मुसीबत होते है, पराये होते है, भंग होते है, शून्य होते है, अनात्म होते है।’ हालाँकि अरहंत भिक्षु को आगे कुछ करने के लिए बचता नहीं, और जो प्राप्त हो चुका, उसमें अधिक कुछ जुड़ता नहीं। फ़िर भी इस चिंतन की साधना करने, बार-बार करने से अभी यही सुखविहार होता है, तथा स्मरणशीलता व सचेतता बढ़ती है। «सं.नि.२२:१२२»
«सं.नि.२२:२२»
दुःख-उत्पत्ति आर्यसत्य क्या है? यह जो तृष्णा है—पुनः अस्तित्व देनेवाली «पोनोब्भविका», मज़ा व दिलचस्पी के साथ आनेवाली «नन्दिरागसहगता», यहाँ वहाँ लुत्फ़ उठानेवाली «तत्रतत्राभिनन्दिनी»—अर्थात [इंद्रियसुख पाने की] काम तृष्णा «कामतण्हा», अस्तित्व [बनाने की] तृष्णा «भवतण्हा», अस्तित्व मिटाने की तृष्णा «विभवतण्हा»। भिक्षुओं, यह तृष्णा जागनी हो तो कहाँ जागती [पैदा होती] है, बसनी हो तो कहाँ बसती [निवास करती] है? इस दुनिया में जो प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में क्या प्रिय होता है, अच्छा लगता है? इस दुनिया में आँख प्रिय होती है, अच्छी लगती है—यह तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में कान… नाक… जीभ… काया… मन प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में रूप… आवाज़… गंध… स्वाद… संस्पर्श… स्वभाव प्रिय होते है, अच्छे लगते है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में आँख की चैतन्यता… कान की चैतन्यता… नाक की चैतन्यता… जीभ की चैतन्यता… काया की चैतन्यता… मन की चैतन्यता प्रिय होती है, अच्छी लगती है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में आँख का संपर्क «फस्स»… कान का संपर्क… नाक का संपर्क… जीभ का संपर्क… काया का संपर्क… मन का संपर्क प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में आँख संपर्क से जागी संवेदना… कान संपर्क से जागी संवेदना… नाक संपर्क से जागी संवेदना… जीभ संपर्क से जागी संवेदना… काया संपर्क से जागी संवेदना… मन संपर्क से जागी संवेदना प्रिय होती है, अच्छी लगती है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में रूप के प्रति नज़रिया… आवाज़ के प्रति नज़रिया… गंध के प्रति नज़रिया… स्वाद के प्रति नज़रिया… संस्पर्श के प्रति नज़रिया… स्वभाव के प्रति नज़रिया प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में रूप के प्रति इरादा «संचेतना»… आवाज़ के प्रति इरादा… गंध के प्रति इरादा… स्वाद के प्रति इरादा… संस्पर्श के प्रति इरादा… स्वभाव के प्रति इरादा प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में रूप के प्रति तृष्णा… आवाज़ के प्रति तृष्णा… गंध के प्रति तृष्णा… स्वाद के प्रति तृष्णा… संस्पर्श के प्रति तृष्णा… स्वभाव के प्रति तृष्णा प्रिय होती है, अच्छी लगती है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में रूप के प्रति सोच «वितक्क»… आवाज़ के प्रति सोच… गंध के प्रति सोच… स्वाद के प्रति सोच… संस्पर्श के प्रति सोच… स्वभाव के प्रति सोच प्रिय होती है, अच्छी लगती है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। इस दुनिया में रूप के प्रति विचार… आवाज़ के प्रति विचार… गंध के प्रति विचार… स्वाद के प्रति विचार… संस्पर्श के प्रति विचार… स्वभाव के प्रति विचार प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा जागनी हो तो यही जागती है, बसनी हो तो यही बसती है। भिक्षुओं, यह कहलाता है दुःख-उत्पत्ति आर्यसत्य। «दी.नि.२२»
दुःख-निरोध आर्यसत्य क्या है? उसी तृष्णा का बिना शेष बचे वैराग्य होना, निरोध होना, त्याग दिया जाना, संन्यास ले लेना, मुक्ति होना, आश्रय छूट जाना। भिक्षुओं, यह तृष्णा छोड़नी हो तो कहाँ छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो कहाँ ख़त्म होती है? इस दुनिया में जो प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में क्या प्रिय होता है, अच्छा लगता है? इस दुनिया में आँख प्रिय होती है, अच्छी लगती है—यह तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में कान… नाक… जीभ… काया… मन प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में रूप… आवाज़… गंध… स्वाद… संस्पर्श… स्वभाव प्रिय होते है, अच्छे लगते है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में आँख की चैतन्यता… कान की चैतन्यता… नाक की चैतन्यता… जीभ की चैतन्यता… काया की चैतन्यता… मन की चैतन्यता प्रिय होती है, अच्छी लगती है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में आँख का संपर्क… कान का संपर्क… नाक का संपर्क… जीभ का संपर्क… काया का संपर्क… मन का संपर्क प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में आँख संपर्क से जागी संवेदना… कान संपर्क से जागी संवेदना… नाक संपर्क से जागी संवेदना… जीभ संपर्क से जागी संवेदना… काया संपर्क से जागी संवेदना… मन संपर्क से जागी संवेदना प्रिय होती है, अच्छी लगती है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में रूप के प्रति नज़रिया… आवाज़ के प्रति नज़रिया… गंध के प्रति नज़रिया… स्वाद के प्रति नज़रिया… संस्पर्श के प्रति नज़रिया… स्वभाव के प्रति नज़रिया प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में रूप के प्रति इरादा… आवाज़ के प्रति इरादा… गंध के प्रति इरादा… स्वाद के प्रति इरादा… संस्पर्श के प्रति इरादा… स्वभाव के प्रति इरादा प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में रूप के प्रति तृष्णा… आवाज़ के प्रति तृष्णा… गंध के प्रति तृष्णा… स्वाद के प्रति तृष्णा… संस्पर्श के प्रति तृष्णा… स्वभाव के प्रति तृष्णा प्रिय होती है, अच्छी लगती है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में रूप के प्रति सोच… आवाज़ के प्रति सोच… गंध के प्रति सोच… स्वाद के प्रति सोच… संस्पर्श के प्रति सोच… स्वभाव के प्रति सोच प्रिय होती है, अच्छी लगती है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। इस दुनिया में रूप के प्रति विचार… आवाज़ के प्रति विचार… गंध के प्रति विचार… स्वाद के प्रति विचार… संस्पर्श के प्रति विचार… स्वभाव के प्रति विचार प्रिय होता है, अच्छा लगता है—तृष्णा छोड़नी हो तो यही छोड़ी जाती है, खत्म करनी हो तो यही खत्म होती है। भिक्षुओं, यह कहलाता है दुःख-निरोध आर्यसत्य। «दी.नि.२२»
दुःख-निरोध करानेवाला प्रगतिपथ आर्यसत्य क्या है? — आर्य अष्टांगिक मार्ग। आर्य अष्टांगिक मार्ग क्या है? — सम्यकदृष्टि, सम्यकसंकल्प, सम्यकवचन, सम्यककार्य, सम्यकजीविका, सम्यकमेहनत, सम्यकस्मृति, सम्यकसमाधि। सम्यकदृष्टि क्या है? • दुःख का ज्ञान, • दुःख उत्पत्ति का ज्ञान, • दुःख निरोध का ज्ञान, • दुःख निरोध करानेवाले प्रगतिपथ का ज्ञान। सम्यकसंकल्प क्या है? • संन्यास का संकल्प, • दुर्भावनाविहीन संकल्प, • अहिंसात्मक संकल्प। सम्यकवचन क्या है? • असत्य वचन से विरत रहना, • फूट डालनेवाले वचन से विरत रहना, • कटु वचन से विरत रहना, • व्यर्थ वचन से विरत रहना। सम्यककार्य क्या है? • जीवहत्या से विरत रहना, • चुराने से विरत रहना, • अब्रह्मचर्य [=मैथुनस्वभाव] से विरत रहना। सम्यकजीविका क्या है? कोई भिक्षु मिथ्या-जीविका त्यागता है, और सम्यक जीविका से जीवन चलाता है। सम्यकमेहनत क्या है? • अनुत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव आगे उत्पन्न न हो—उसके लिए भिक्षु चाह पैदा करता है «छन्द जनेति», मेहनत करता है «वायमति», ज़ोर लगाता है «विरियं आरभति», इरादा बनाकर जुटता है «चित्तं पग्गणाति पदहति»। • उत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है। • अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न करने के लिए भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है। • और उत्पन्न कुशल स्वभाव टिकाए रखने, आगे लाने, वृद्धि करने, प्रचुरता लाने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है। सम्यकस्मृति क्या है? • कोई भिक्षु काया को [मात्र] काया देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। • संवेदना को [मात्र] संवेदना देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। • चित्त को [मात्र] चित्त देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। • स्वभाव को [मात्र] स्वभाव देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। सम्यकसमाधि क्या है? • कोई भिक्षु त्याग-आलंबन बनाकर समाधि लगाता है, चित्त-एकाग्र करता है। वह काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त—सोच व विचार के साथ निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। • फ़िर आगे सोच व विचार रुक जानेपर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहता है। • तब आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशील सचेतता के साथ तटस्थता धारणकर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ स्मरणशील सुखविहारी’ कहते है—वह उस तृतीय-झान में प्रवेश कर रहता है। • आगे वह सुख दर्द दोनों हटाकर, खुशी व परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता व स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है। «दी.नि.२२»
—आँखआयाम, कानआयाम, नाकआयाम,
जीभआयाम, कायाआयाम, मनआयाम—
इन्हें भी दुःख आर्यसत्य कहते है।
भारहारो च पुग्गलो,
भारादानं दुखं लोके,
भारनिक्खेपनं सुखं।»
वाक़ई भार होते है - पाँच संग्रह।
इस दुनिया का दुःख है - भार उठाना।
किंतु भार को नीचे डाल देना - सुख।
अञ्ञं भारं अनादिय,
समूलं तण्हं अब्बुय्ह,
निच्छातो परिनिब्बुतो”ति»
न उठाए वह अन्य भार।
तृष्णा को जड़ से उखाड़,
वह भूखमुक्त हो,
परिनिवृत्त हो जाता है।
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