नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय आठ

अरियसच्च वित्थार

~ आर्य सत्य विस्तार से ~



अरिय सम्मासमाधि —

जब ‘चित्त की एकाग्रता’ इन सात-अंगों से परिपूर्ण हो—सम्यकदृष्टि सम्यकसंकल्प सम्यकवचन सम्यककार्य सम्यकजीविका सम्यकमेहनत व सम्यकस्मृति—तब उसे ‘आर्य सम्यकसमाधि’ कहते है। वही सात-अंग उसका आधार बनते है, और वही उसकी पूर्व-आवश्यकता है।

उनमें सम्यकदृष्टि अग्र होती है। कैसे?

जिसे मिथ्यादृष्टि पता चले कि ‘यह मिथ्यादृष्टि है’, और सम्यकदृष्टि पता चले कि ‘यह सम्यकदृष्टि है’—वही उसकी सम्यकदृष्टि होती है। और मिथ्यादृष्टि क्या है?

मिथ्यादृष्टि

• ‘नहीं होता दान [का फ़ल]। नहीं होता चढ़ावा। नहीं होती आहुति। नहीं होता सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फ़ल परिणाम। नहीं होता लोक। नहीं होता परलोक। न माता होती है, न पिता। न टपके सत्व «ओपपातिक» होते है। और नहीं होते ऐसे श्रमण व ब्राह्मण, जो सम्यक-साधना कर, सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान साक्षात्कार कर, लोक-परलोक होने की घोषणा करते है।’1

• ‘कोई दुष्कृत्य करने या करवाने में, किसी को काटने या कटवाने में, किसी को यातना देने या दिलवाने में, किसी को शोक देने या दिलवाने में, किसी को पीड़ा देने या दिलवाने में, किसी को डराने या डरवाने में, किसी की हत्या, चोरी, लूट, डाका, घात लगाने, व्यभिचार करने, झूठ बोलने में—कोई पाप नहीं होता

यदि कोई इस धरातल के सभी जीवों को चक्र से काटते हुए उन्हें माँस के ढ़ेर में बदल दे—तब भी कोई पाप न हो, बुरा परिणाम न हो। कोई यदि गंगा नदी के दाँए-तट पर जीवों को मारते मरवाते, काटते कटवाते, यातना प्रताड़ना देते या दिलवाते जाए—तब भी कोई पाप नहीं होता, बुरा परिणाम नहीं होता। कोई यदि गंगा नदी के बाएँ-तट पर जीवों को दान देते दिलवाते, बलिदान देते दिलवाते जाए—तब भी कोई पुण्य नहीं होता, अच्छा परिणाम नहीं होता। दान, आत्मनियंत्रण, संयम व सत्यवाणी से कोई पुण्य नहीं होता, कोई अच्छा परिणाम नहीं होता।’2

• ‘सत्वों की मलिनता की कोई वजह या परिस्थिति [=कार्यकारण संबंध] नहीं होती। सत्व अकारण, बिनाशर्त मलिन हो जाते है। सत्व अकारण, बिनाशर्त विशुद्ध भी हो जाते है। न कोई बल, न कोई मेहनत, न कोई पौरुष ऊर्जा, न कोई पौरुष उद्यमता होती है। बल्कि सभी सत्व प्राणी भूत जीव—बलहीन, मेहनतहीन व ऊर्जाहीन होते है। मात्र संयोग, भाग्य व अनियमित सृष्टि के बदलाव में फँसकर सभी छह-महाजातियों में उत्पन्न हो सुखदुःख भोगते ही है। [अर्थात, दुःख-मुक्ति की कोई संभावना नहीं]’3

• “[भौतिक जगत के परे] नहीं होती अरूपता। और नहीं होता लोक अस्तित्व का निरोध।”

— यह मिथ्यादृष्टि है।


और सम्यकदृष्टि क्या है?

सम्यकदृष्टि

सम्यकदृष्टि मैं कहता हूँ, दो प्रकार की होती है —

(१) [लोकिय सम्यकदृष्टि]—बहाव के साथ, पुण्य पक्ष की, संग्रह करानेवाली।

(२) [आर्य सम्यकदृष्टि]—बिना बहाव के साथ, लोकुत्तर, आर्यमार्ग अंगोवाली।

[लोकिय] सम्यकदृष्टि क्या है?

• ‘दान होता है। चढ़ावा होता है। आहुति होती है। सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फल-परिणाम होता है। लोक होता है। परलोक होता है। माता होती है, पिता होता है। टपके सत्व होते है। और ऐसे श्रमण व ब्राह्मण होते है, जो सम्यक-साधना कर, सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान साक्षात्कार कर, लोक-परलोक होने की घोषणा करते है।’

• ‘कोई दुष्कृत्य करने या करवाने में, किसी को काटने या कटवाने में, किसी को यातना देने या दिलवाने में, किसी को शोक देने या दिलवाने में, किसी को पीड़ा देने या दिलवाने में, किसी को डराने या डरवाने में, किसी की हत्या, चोरी, लूट, डाका, घात लगाने, व्यभिचार करने, झूठ बोलने में—पाप होता है।’

यदि कोई इस धरातल के सभी जीवों को चक्र से काटते हुए उन्हें माँस के ढ़ेर में बदल दे—तो बड़ा पाप होगा, बुरा परिणाम आएगा। कोई यदि गंगा नदी के दाँए-तट पर जीवों को मारते मरवाते, काटते कटवाते, यातना प्रताड़ना देते या दिलवाते जाए—तब पाप होगा, बुरा परिणाम आएगा। कोई यदि गंगा नदी के बाएँ-तट पर जीवों को दान देते दिलवाते, बलिदान देते दिलवाते जाए—तब पुण्य होगा, अच्छा परिणाम आएगा। दान, आत्मनियंत्रण, संयम व सत्यवाणी से पुण्य होता है, अच्छा परिणाम आता है।’

• ‘सत्वों की मलिनता की वजह व परिस्थिति होती है। कारणपूर्ण सशर्त सत्व मलिन हो जाते है। तथा कारणपूर्ण सशर्त सत्व विशुद्ध हो सकते है। [उसके लिए] बल, मेहनत, पौरुष ऊर्जा, पौरुष उद्यमता होती है। सत्व प्राणी भूत जीव—बलपूर्ण, मेहनतपूर्ण व ऊर्जापूर्ण होते है। मात्र संयोग, भाग्य व अनियमित सृष्टि के बदलाव में फँसकर छह-महाजातियों में उत्पन्न हो सुख-दुःख नहीं भोगते।’ [अर्थात, दुःख-मुक्ति की संभावना मौजूद है।]

• ‘[भौतिक जगत के परे] अरूपता होती है। और अस्तित्व निरोध भी हो सकता है।’

— यह बहाव के साथ, पुण्य पक्ष की, संग्रह करानेवाली सम्यकदृष्टि है।

आर्य-सम्यकदृष्टि क्या है?

ऐसा कोई व्यक्ति हो: आर्य-चित्तवाला, बहावमुक्त चित्तवाला, आर्य [अष्टांगिक] मार्ग पर पूर्णतः प्रतिष्ठित, आर्यमार्ग की साधना करनेवाला—उसका सम्यकदृष्टि-मार्गअंग, अन्तर्ज्ञान, अन्तर्ज्ञानइंद्रिय, अन्तर्ज्ञानबल, स्वभाव-जाँच संबोधिअंग—यह आर्य-सम्यकदृष्टि है, बिना बहाव के साथ, लोकुत्तर, आर्यमार्ग-अंगवाली।

जो मिथ्यादृष्टि त्यागकर सम्यकदृष्टि उत्पन्न करने का प्रयत्न करें—वही उसकी सम्यकमेहनत है। जो मिथ्यादृष्टि त्यागकर सम्यकदृष्टि उत्पन्न करने के प्रति स्मरणशील रहे—वही उसकी सम्यकस्मृति है। इस तरह तीन धर्मस्वभाव—सम्यकदृष्टि सम्यकमेहनत सम्यकस्मृति—सम्यकदृष्टि के गोलगोल चक्कर काटते रहते है।

«मा.नि.६० + मा.नि.११७»


“भगवान, ‘सम्यकदृष्टि.. सम्यकदृष्टि’ कहते है। किस हद तक सम्यकदृष्टि होती है?”

मोटा-मोटी यह दुनिया अस्तित्व और अनस्तित्व—इस ध्रुवीयता का आधार लेती है। किंतु कोई व्यक्ति दुनिया की जैसे उत्पत्ति होती हो, वैसे सही देख ले, तब उसे दुनिया का केवल ‘अनस्तित्व’ ही होता है - ऐसा नहीं लगता। और कोई व्यक्ति दुनिया का जैसे निरोध होता हो, वैसे सही देख ले, तो उसे दुनिया का केवल ‘अस्तित्व’ ही होता है - ऐसा नहीं लगता।

मोटा-मोटी यह दुनिया आसक्तियों में बँधी है, आधारों पर टिकी है, और एकतरफ़ा झुकी है। किंतु जो व्यक्ति इन आसक्तियों, आधारों, लगावों या सुप्त-अवस्थाओं में न पड़े, वह एकतरफ़ा नहीं झुकता। वह न ‘मेरा आत्म’ को लेकर किसी तरह से संकल्पित होता है, न उसे शंका या अनिश्चितता होती है कि जब भी कुछ उत्पन्न होता हो—मात्र दुःख ही उत्पन्न होता है। जब भी कुछ व्यय होता हो—मात्र दुःख ही व्यय होता है। इस तरह उसका ज्ञान अन्यों से स्वतंत्र होता है।

— इस हद तक सम्यकदृष्टि होती है।

«सं.नि.१२:१५»


मैं कोई अन्य स्वभाव नहीं देखता, जिससे अनुत्पन्न अकुशल स्वभाव उत्पन्न होने लगते है, और उत्पन्न अकुशल स्वभाव बढ़ने, वृद्धि पाने लगते है—जैसे मिथ्यादृष्टि।

और मैं कोई अन्य स्वभाव नहीं देखता, जिससे अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न होने लगते है, और उत्पन्न कुशल स्वभाव बढ़ने, वृद्धि पाने लगते है—जैसे सम्यकदृष्टि।

जैसे कोई नम-भूमि पर नीम, करेंला या कड़वे ख़रबूज़े का बीज डाल दे। अब वह बीज नम-भूमि से जो पोषण लेगा, जितना पोषण लेगा—सभी कड़वावट लाएगा, कटु लगेगा, स्वाद में नापसंदीदा होगा। क्यों? क्योंकि बीज ही वैसे कड़वे «पापी» स्वभाव का है।

उसी तरह कोई मिथ्यादृष्टि में पड़ जाए! मिथ्यादृष्टि में पड़कर वह जो भी कायिककर्म, वाचिककर्म या मनोकर्म आरंभ करता है, या जो भी इरादे निश्चय संकल्प या रचना आरंभ करता है—सभी अप्रिय असुखद अनाकर्षक अलाभ एवं दुःख की ओर ही ले जाते हैं। क्यों? क्योंकि दृष्टि ही वैसे पापी स्वभाव की है।

किंतु कोई नम-भूमि पर गन्ना, चावल या अंगूर का बीज डाल दे। अब वह बीज नम-भूमि से जो पोषण लेगा, जितना पोषण लेगा—सभी मिठास लाएगा, स्वादिष्ट लगेगा, स्वाद में पसंदीदा होगा। क्यों? क्योंकि बीज ही वैसे मंगलकारी स्वभाव की है।

उसी तरह कोई सम्यकदृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाए! सम्यकदृष्टि में प्रतिष्ठित होकर वह जो भी कायिककर्म, वाचिककर्म या मनोकर्म आरंभ करता है, या जो भी इरादे निश्चय संकल्प या रचना आरंभ करता है—सभी प्रिय सुखद आकर्षक लाभ एवं सुख की ओर ही ले जाते है। क्यों? क्योंकि दृष्टि ही वैसे मंगलकारी स्वभाव की है।

«अं.नि.१:१८१~१८२, १८९~१९०»


अविद्या भिक्षुओं, अकुशल स्वभाव पनपने में नेतृत्व करती है। उसके पीछे-पीछे निर्लज्जता व बेफ़िक्री «अहिरी अनोतप्प» चलते आते है।

अविद्या में डूबे, धर्म न सुने आम आदमी में मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है। जिसकी दृष्टि मिथ्या हो, उसमें मिथ्यासंकल्प उत्पन्न होते है। जिसके संकल्प मिथ्या हो, वह मिथ्यावचन बोलता है। जिसके वचन मिथ्या हो, वह मिथ्याकार्य करता है। जिसके कार्य मिथ्या हो, उसकी मिथ्याजीविका होती है। जिसकी जीविका मिथ्या हो, वह मिथ्यामेहनत करता है। जो मेहनत मिथ्या करें, उसमें मिथ्यास्मृति पनपती है। जिसमें स्मृति मिथ्या पनपे, उसे मिथ्यासमाधि मिलती है। जिसकी समाधि मिथ्या हो, उसे मिथ्याज्ञान मिलता है। जिसे ज्ञान मिथ्या मिले, उसकी मिथ्याविमुक्ति होती है। जिसकी विमुक्ति मिथ्या हो, उसका आधार-संग्रह बने रहता है। जिसका आधार-संग्रह बने रहे, उसका अस्तित्व निरोध नहीं होता। जिसका अस्तित्व बने रहे, वह फ़िर जन्म में पड़ता है। उसे रोग बुढ़ापा मौत, शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा होती रहती है।

जबकि विद्या भिक्षुओं, कुशल स्वभाव पनपने में नेतृत्व करती है। उसके पीछे-पीछे लज्जा व फ़िक्र «हिरी ओतप्प» चलते आते है।

विद्या में प्रतिष्ठित जानकार-व्यक्ति में सम्यकदृष्टि उत्पन्न होती है। जिसकी दृष्टि सम्यक हो, उसमें सम्यकसंकल्प उत्पन्न होते है। जिसके संकल्प सम्यक हो, वह सम्यकवचन बोलता है। जिसके वचन सम्यक हो, वह सम्यककार्य करता है। जिसके कार्य सम्यक हो, उसकी सम्यकजीविका होती है। जिसकी जीविका सम्यक हो, वह सम्यकमेहनत करता है। जो मेहनत सम्यक करें, उसमें सम्यकस्मृति पनपती है। जिसमें स्मृति सम्यक पनपे, उसे सम्यकसमाधि मिलती है। जिसकी समाधि सम्यक हो, उसे सम्यकज्ञान मिलता है। जिसे ज्ञान सम्यक मिले, उसकी सम्यकविमुक्ति होती है। जिसकी विमुक्ति सम्यक हो, उसका आधार-संग्रह निरोध हो जाता है। जिसका आधार-संग्रह निरोध हो, उसका अस्तित्व निरोध हो जाता है। जिसका अस्तित्व निरोध हो जाए, वह फ़िर जन्म में नहीं पड़ता। उसे रोग बुढ़ापा मौत, शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा नहीं होती।

«सं.नि.४५:१ + मा.नि.११७»


भिक्षुओं, जब घड़ा चौकी पर न रखा हो, तो आसानी से उलट जाता है। किंतु चौकी पर रखा आसानी से नहीं उलटता। उसी तरह जब चित्त चौकी पर न रखा हो, तो आसानी से उलट जाता है। किंतु चौकी पर रखा आसानी से नहीं उलटता।

यह ‘चित्त की चौकी’ क्या होती है? बस यही—आर्य अष्टांगिक मार्ग।

«सं.नि.४५:२७»


समाधि विकसित करो, भिक्षुओं। समाधि में लीन भिक्षु जैसे हो, वैसे सही पता करता है। जैसे हो, वैसे क्या सही पता करता है?

रूप की उत्पत्ति व विलुप्त होना। संवेदना… नज़रिए… रचना… चैतन्यता की उत्पत्ति व विलुप्त होना।

रूप की उत्पत्ति क्या है?

कोई व्यक्ति [भौतिक] रूप से आनंदित होता है, स्वीकार करता है, जुड़ जाता है। जब वह रूप से आनंदित होता है, स्वीकार करता है, जुड़ जाता है, तब उसे मज़ा आता है। रूप का किसी भी तरह मज़ा लेना आधार बनाता है। आधार के कारण अस्तित्व पनपता है। अस्तित्व के कारण जन्म होता है। जन्म के कारण बुढ़ापा मौत शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा का सिलसिला चल पड़ता है। इस तरह समस्त दुःख संग्रह की उत्पत्ति होती है।

संवेदना…नज़रिए… रचना… चैतन्यता की उत्पत्ति क्या है?

कोई व्यक्ति संवेदना… नज़रिए… रचना… चैतन्यता से आनंदित होता है, स्वीकार करता है, जुड़ जाता है। जब वह संवेदना… नज़रिए… रचना… चैतन्यता से आनंदित होता है, स्वीकार करता है, जुड़ जाता है, तब उसे मज़ा आता है। संवेदना… नज़रिए… रचना… चैतन्यता का किसी भी तरह मज़ा लेना आधार बनाता है। आधार के कारण अस्तित्व पनपता है। अस्तित्व के कारण जन्म होता है। जन्म के कारण बुढ़ापा मौत शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा का सिलसिला चल पड़ता है। इस तरह समस्त दुःख संग्रह की उत्पत्ति होती है।


और रूप का विलुप्त होना क्या है?

कोई व्यक्ति रूप से आनंदित नहीं होता, स्वीकार नहीं करता, जुड़ नहीं जाता। जब वह रूप से आनंदित नहीं होता, स्वीकार नहीं करता, जुड़ नहीं जाता, तब उसे मज़ा नहीं आता। रूप का किसी भी तरह मज़ा न लेना आधार ख़त्म करता है। आधार ख़त्म होने के कारण अस्तित्व नहीं पनपता। अस्तित्व न होने के कारण जन्म नहीं होता। जन्म न होने के कारण बुढ़ापा मौत शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा का सिलसिला रुक जाता है। इस तरह समस्त दुःख संग्रह विलुप्त हो जाता है।

संवेदना…नज़रिए… रचना… चैतन्यता का विलुप्त होना क्या है?

कोई व्यक्ति संवेदना…नज़रिए… रचना… चैतन्यता से आनंदित नहीं होता, स्वीकार नहीं करता, जुड़ नहीं जाता। जब वह संवेदना…नज़रिए… रचना… चैतन्यता से आनंदित नहीं होता, स्वीकार नहीं करता, जुड़ नहीं जाता, तब उसे मज़ा नहीं आता। संवेदना…नज़रिए… रचना… चैतन्यता का किसी भी तरह मज़ा न लेना आधार ख़त्म करता है। आधार ख़त्म होने के कारण अस्तित्व नहीं पनपता। अस्तित्व न होने के कारण जन्म नहीं होता। जन्म न होने के कारण बुढ़ापा मौत शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा का सिलसिला रुक जाता है। इस तरह समस्त दुःख संग्रह विलुप्त हो जाता है।

इस तरह भिक्षुओं, रूप की उत्पत्ति व विलुप्ति होती है। संवेदना… नज़रिए… रचना… चैतन्यता की उत्पत्ति व विलुप्ति होती है, जिसे समाधि में लीन भिक्षु जैसे हो, वैसे सही पता करता है। इसलिए समाधि विकसित करो, भिक्षुओं। समाधि में लीन भिक्षु जैसे हो, वैसे सही पता करता है।

«सं.नि.२२:५»


पटिच्च समुप्पाद

एक समय भगवान उरुवेला में रहते हुए, निरंजना नदी के तट समीप बोधिवृक्षतले, अभी संबुद्ध बने थे। तब भगवान एक ही बैठक में सप्ताहभर बैठे रहे—विमुक्ति सुख महसूस करते हुए। सप्ताह बीतने पर उस समाधि से उठ रात्रि के तीसरे पहर भगवान ने आधारपूर्ण सहउत्पत्ति पर सीधे व विपरीत क्रम में ठीक से गौर किया।

इस तरह —

जब यह हो, तब वह होता है।
यह उत्पन्न होने से वह उत्पन्न होता है।
जब यह न हो, तो वह नहीं होता।
यह ख़त्म होने से वह ख़त्म होता है।



अर्थात —

• अविद्या की स्थिति में रचनाएँ बनती है।

• रचनाओं की स्थिति में चैतन्यता उत्पन्न होती है।

• चैतन्यता की स्थिति में नाम-रूप बनता है।

• नाम-रूप की स्थिति में छह आयाम प्रकट होते है।

• छह आयाम के स्थिति में संपर्क होता है।

• संपर्क की स्थिति में संवेदना होती है।

• संवेदना की स्थिति में तृष्णा उत्पन्न होती है।

• तृष्णा की स्थिति में आधार बनता है।

• आधार की स्थिति में अस्तित्व पनपता है।

• अस्तित्व की स्थिति में जन्म होता है।

• जन्म की स्थिति में बुढ़ापा मौत, शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा उपस्थित होते है।

— इस तरह संपूर्ण दुःख-संग्रह की उत्पत्ति होती है।


• अब उसी अविद्या का बिना शेष बचे वैराग्य व निरोध होने पर रचनाएँ रूकती है।

• रचनाएँ रुकने पर चैतन्यता ख़त्म होती है।

• चैतन्यता न होने पर नाम-रूप नहीं बनता।

• नाम-रूप न होने पर पर छह आयाम प्रकट नहीं होते।

• छह आयाम न होने पर संपर्क नहीं होता।

• संपर्क न होने पर संवेदना नहीं होती।

• संवेदना न होने पर तृष्णा उत्पन्न नहीं होती।

• तृष्णा न होने पर आधार नहीं बनता।

• आधार न होने पर अस्तित्व नहीं पनपता।

• अस्तित्व न होने पर जन्म नहीं होता।

• जन्म न होने पर बुढ़ापा मौत, शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा उपस्थित नहीं होते।

— इस तरह संपूर्ण दुःख-संग्रह ख़त्म हो जाता है।

«उदान १:३»


गहरी है यह आधारपूर्ण सहउत्पत्ति! गहरा है इसका दर्शन! इसी धर्म का बोध न करने, भेदन न करने से यह जनता ‘उलझे सूत’ जैसी है! ‘धागे के गठीले गोले’ जैसी है! ‘कँटीली झाड़ी’ जैसी है! और दयनीय लोक, दुर्गति व नीचे यातनालोक के दुष्चक्र के परे नहीं जाती!

«दी.नि.१५»


इस तरह कोई व्यक्ति आँख जैसी हो वैसे पता कर; रूप जैसा हो वैसे पता कर; आँख की चैतन्यता जैसी हो वैसे पता कर; आँख पर संपर्क जैसा हो वैसे पता कर; आँख के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द जैसा हो वैसे पता कर—वह उनसे मोहित नहीं होता।

कान… आवाज़… कान की चैतन्यता… कान पर संपर्क… कान के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द जैसा हो वैसे पता कर—वह उनसे मोहित नहीं होता।

नाक… गंध… नाक की चैतन्यता… नाक पर संपर्क… नाक के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द जैसा हो वैसे पता कर—वह उनसे मोहित नहीं होता।

• जीभ… स्वाद… जीभ की चैतन्यता… जीभ पर संपर्क… जीभ के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द जैसा हो वैसे पता कर—वह उनसे मोहित नहीं होता।

काया… संस्पर्श… काया की चैतन्यता… काया पर संपर्क… काया के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द जैसा हो वैसे पता कर—वह उनसे मोहित नहीं होता।

मन… स्वभाव.. मन की चैतन्यता… मन पर संपर्क… मन के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द जैसा हो वैसे पता कर—वह उनसे मोहित नहीं होता।

इस तरह अनासक्त, बिना जुड़े, बिना संभ्रमता के लगातार ख़ामी/दुष्परिणाम देखते रहने से «आदीनवानुपस्सी» उसके पाँच आधार-संग्रह का पतन होने लगता है।

यह जो तृष्णा है—पुनः अस्तित्व देनेवाली, मज़ा व दिलचस्पी के साथ आनेवाली, यहाँ वहाँ लुत्फ़ उठानेवाली—उसका वह परित्याग करता है।

साथ ही उसके कायिक व मानसिक उपद्रव «दरथा» का परित्याग होता है। उसके कायिक व मानसिक संताप का परित्याग होता है। उसके कायिक उत्पीड़न व मानसिक उत्पीड़न «परिळाह» का परित्याग होता है।

तब वह कायिक व मानसिक सुख महसूस करता है।

ऐसे किसी व्यक्ति की जो दृष्टि हो, वह सम्यकदृष्टि होगी। उसके जो संकल्प हो, वह सम्यकसंकल्प होंगे। उसने जैसी मेहनत किया हो, वह सम्यकमेहनत होगी। उसमें जैसी स्मरणशीलता पनपी हो, वह सम्यकस्मृति होगी। उसे जैसी समाधि मिली हो, वह सम्यकसमाधि होगी।

चूँकि उसके कार्य, वचन और जीविका पूर्व ही भलीभाँति परिशुद्ध हुई होती है, इसलिए उसके द्वारा आर्य अष्टांगिक मार्ग इस तरह विकसित करने पर उसके चार स्मृति-प्रस्थान भी विकसित होकर परिपूर्ण होने लगते है। उसके चार सम्यक-उद्यम भी विकसित होकर परिपूर्ण होने लगते है। उसके चार ऋद्धिपद भी विकसित होकर परिपूर्ण होने लगते है। उसके पाँच इंद्रिय भी विकसित होकर परिपूर्ण होने लगते है। उसके पाँच बल भी विकसित होकर परिपूर्ण होने लगते है… उसके सात संबोधिअंग भी विकसित होकर परिपूर्ण होने लगते है।

तब दो धर्म उसके लिए आगे-पीछे घटते है—निश्चलता «समथ» [=शान्तचित्तता/ रचनाओं का रुकना] और अंतर्बोध «विपस्सना»।

तब जो धर्म [=प्रथम आर्यसत्य] विशिष्ट-ज्ञान से अंतिम छोर तक पता किए जाते है, उन्हें वह विशिष्ट-ज्ञान के साथ अंतिम छोर तक पता करता है। जो धर्म [=द्वितीय आर्यसत्य] विशिष्ट-ज्ञान से परित्याग किए जाते है, उन्हें वह विशिष्ट-ज्ञान से परित्याग करता है। जो धर्म [=तृतीय आर्यसत्य] विशिष्ट-ज्ञान से साक्षात्कार किए जाते है, उन्हें वह विशिष्ट-ज्ञान के साथ साक्षात्कार करता है। और जो धर्म [=चतुर्थ आर्यसत्य] विशिष्ट-ज्ञान से विकसित किए जाते है, उन्हें वह विशिष्ट-ज्ञान के साथ विकसित «भावित» करता है।

• कौन से धर्म विशिष्ट-ज्ञान से अंतिम छोर तक पता किए जाते है? उत्तर होना चाहिए—पाँच आधार-संग्रह! अर्थात, रूप आधार-संग्रह, संवेदना आधार-संग्रह, नज़रिया आधार-संग्रह, रचना आधार-संग्रह, चैतन्यता आधार-संग्रह।

• कौन से धर्म विशिष्ट-ज्ञान से परित्याग किए जाते है? उत्तर होना चाहिए—अविद्या और अस्तित्व की तृष्णा

• कौन से धर्म विशिष्ट-ज्ञान से साक्षात्कार किए जाते है? निश्चलता और अंतर्बोध

• और कौन से धर्म विशिष्ट-ज्ञान से विकसित किए जाते है? विद्या और विमुक्ति

«मा.नि.१४९»


बेड़े की तरह

कल्पना करो कि कोई पुरुष यात्रा कर रहा हो। तब उसे आगे भीषण बाढ़ दिखाई दे, जिसका यह तट ख़तरनाक हो, और दूर का तट सुरक्षित। किंतु पार करने के लिए नाव या पुल न हो। तब वह सोचता है, “क्यों न मैं लकड़ियां घास टहनियाँ और पत्ते इकट्ठा कर बेड़ा बनाऊ? उस बेड़े पर सवार हो, हाथ पैरों से चप्पू चलाता हुआ दूर के तट पर सुरक्षित पहुँचूँगा।”

तब वह लकड़ियां घास टहनियाँ और पत्ते इकट्ठा कर बेड़ा बनाता है, और उसपर सवार हो, हाथ पैरों से चप्पू चलाता हुआ बाढ़ पार करता है।

सुरक्षित तट पर पहुँचने पर वह सोचता है, “मेरे लिए यह बेड़ा बड़ा उपयोगी पड़ा! क्योंकि इसी बेड़े का सहारा लेकर, सवार होकर मैं हाथ पैरों से चप्पू चलाता हुआ बाढ़ पार कर सुरक्षित तट पर पहुँचा हूँ। क्यों न मैं अब इस बेड़े को सिर पर उठाकर, या पीठ पर लादकर जहाँ जाना चाहूँ, वहाँ जाऊँ?” तब वह उस बेड़े को सिर पर उठाकर, या पीठ पर लादकर जहाँ जाना चाहे, वहाँ जाता है।

तो भिक्षुओं, तुम्हें क्या लगता है? ऐसा करके उसने बेड़े के साथ जो किया जाना चाहिए था, वह किया?

“नहीं, भन्ते।”

तब उस पुरुष ने क्या करना चाहिए, जिससे उस बेड़े के साथ जो होना चाहिए, वह हो?

ऐसा होता है कि सुरक्षित तट पर पहुँचने पर कोई पुरुष सोच सकता है, “मेरे लिए यह बेड़ा बड़ा उपयोगी पड़ा! क्योंकि इसी बेड़े का सहारा लेकर, सवार होकर मैं हाथ पैरों से चप्पू चलाता हुआ बाढ़ पार कर सुरक्षित तट पर पहुँचा हूँ। क्यों न मैं इस बेड़े को सूखी ज़मीन पर खींचकर, या जल में डुबोकर जहाँ जाना चाहूँ, वहाँ जाऊँ?”

तब वह उस बेड़े को सूखी ज़मीन पर खींचकर, या जल में डुबोकर जहाँ जाना चाहे, वहाँ जाता है। ऐसा करके उसने बेड़े के साथ जो किया जाना चाहिए था, वह किया।

उसी तरह भिक्षुओं, मैंने उस बेड़े की तरह ही तुम्हें धर्म दिया है—मात्र बाढ़ लाँघने के ध्येय से! उससे चिपके रहने के ध्येय से नहीं! धर्म को मात्र ‘बेड़े की तरह’ मानते हुए उस सद्धर्म को भी तुम्हें अंततः छोड़ देना चाहिए। तो अधर्मों का कहना ही क्या!

«मा.नि.२२»


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  1. ऐसी दृष्टि भगवान के समकालीन छह गुरुओं में से एक ‘अजित केसकम्बलिन’ की थी। ↩︎

  2. ऐसी दृष्टि दुसरे गुरु ‘पूराण कश्यप’ की थी। ↩︎

  3. ऐसी दृष्टि तीसरे गुरु ‘मक्खलि गोसाल’ की थी। ↩︎