सब्बासवादि
~ बहाव, संबोधि अंग, छत्तीस भाव, इंद्रिय साधना इत्यादि ~
भगवान —
भिक्षुओं, जो स्वयं जानता है, देखता है—मैं कहता हूँ उसके बहाव «आसव» थमते है। जो स्वयं नहीं जानता, नहीं देखता, उसके बहाव नहीं थमते। क्या स्वयं जानता है, देखता है?
• «योनिसो मनसिकार» उचित बात पर गौर करना, और
• «अयोनिसो मनसिकार» अनुचित बात पर गौर करना।
जब कोई व्यक्ति ‘अनुचित बात’ पर गौर करता है, तो अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न होने लगते है, और उत्पन्न हुए बहाव बढ़ने लगते है। जबकि ‘उचित बात’ पर गौर करने पर अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न नहीं होते, और उत्पन्न हो चुके बहाव थमने लगते है।
भिक्षुओं, कुछ प्रकार के बहाव होते हैं, जो [योग्य तरह] देखकर त्यागे जाते है, तो कुछ बहाव [इंद्रिय] संयम कर। कुछ प्रकार के बहाव होते है, जो [आवश्यकताओं का उचित] उपयोग कर त्यागे जाते है, तो कुछ बहाव [कष्ट] सहन कर। कुछ प्रकार के बहाव होते है, जो [ख़तरे] टालकर त्यागे जाते है, तो कुछ बहाव [अकुशलताए] हटाकर। जबकि कुछ प्रकार के बहाव होते है, जो [संबोधिअंग] साधना कर के त्यागे जाते है।
(१) कौन-से बहाव देखकर त्यागे «दस्सना पहातब्बा» जाते है?
कोई जो आर्यदर्शन से वंचित, आर्यधर्म से अपरिचित, आर्यधर्म में न अनुशासित हो; या सत्पुरूषदर्शन से वंचित, सत्पुरूषधर्म से अपरिचित, सत्पुरूषधर्म में न अनुशासित हो—ऐसा धर्म न सुने आम आदमी को पता नहीं चलता कि कौन-सी बात पर गौर करना ‘उचित’ है, और कौन-सी बात पर ‘अनुचित’। इस कारण वह उचित बात पर नहीं गौर करता, बल्कि अनुचित पर करता है।
कौन-सी बात अनुचित है? जिसपर गौर करने से अनुत्पन्न कामुक-बहाव उत्पन्न होने लगे, और उत्पन्न हुए बढ़ने लगे; अनुत्पन्न अस्तित्व-बहाव उत्पन्न होने लगे, और उत्पन्न हुए बढ़ने लगे; अनुत्पन्न अविद्या-बहाव उत्पन्न होने लगे, और उत्पन्न हुए बढ़ने लगे।
— ऐसी बातों पर गौर करना ‘अनुचित’ होता है, जिसपर वह [=आम आदमी] गौर करता है।
तब कौन-सी बात उचित है? जिसपर गौर करने से अनुत्पन्न कामुक-बहाव… अस्तित्व-बहाव… अविद्या-बहाव उत्पन्न न हो, और उत्पन्न हुए थमने लगे। ऐसी बातों पर गौर करना ‘उचित’ होता है, किंतु जिसपर वह [=आम आदमी] गौर नहीं करता।
और इस तरह ‘अनुचित’ बात पर गौर करने से, तथा ‘उचित’ बात पर गौर न करने से उसके अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न होते रहते है, और उत्पन्न हुए बढ़ते रहते है।
कोई धर्म न सुना, आम आदमी इस तरह ‘अनुचित’ बातों पर गौर करता है—‘क्या मैं अतीतकाल में था?’ ‘क्या मैं अतीतकाल में नहीं था?’ ‘ मैं अतीतकाल में क्या था?’ ‘मैं अतीतकाल में कैसा था?’ ‘मैं अतीतकाल में क्या बनकर फ़िर क्या बना था?’
‘क्या मैं भविष्यकाल में रहूँगा?’ ‘क्या मैं भविष्यकाल में नहीं रहूँगा?’ ‘क्या मैं भविष्यकाल में रहूँगा?’ ‘मैं भविष्यकाल में कैसा रहूँगा?’ ‘मैं भविष्यकाल में क्या बनकर फ़िर क्या बनूँगा?’
या वह वर्तमानकाल को लेकर भ्रमित रहता है—‘क्या मैं हूँ?’ ‘क्या मैं नहीं हूँ?’ ‘मैं क्या हूँ?’ ‘मैं कैसा हूँ?’ ‘यह सत्व कहाँ से आया है?’ ‘वह कहाँ जानेवाला है?’
इस प्रकार अनुचित बातों पर गौर करने से, उसमें छह-दृष्टियों में से एक [मिथ्या] दृष्टी उत्पन्न होती है—
• ‘मेरा आत्म है’—उसे यह उत्पन्न हुई दृष्टि सच लगती है, जिसे वह धारण करता है। या
• ‘मेरा आत्म नहीं 1 है’… या
• ‘आत्म के द्वारा आत्म महसूस करता हूँ’… या
• ‘आत्म के द्वारा अनात्म महसूस करता हूँ’… या
• ‘अनात्म के द्वारा आत्म महसूस करता हूँ’—उसे यह उत्पन्न हुई दृष्टि सच लगती है, जिसे वह धारण करता है।
• या उसे उत्पन्न हुई दृष्टि कुछ इस तरह होती है—‘मेरा यह जो आत्म है, जो यहाँ वहाँ भले-बुरे कर्मों के फ़ल-परिणाम भोगता है—वह नित्य ध्रुव शाश्वत है। वह कभी नहीं बदलेगा। अनन्तकाल तक वैसा ही बना रहेगा।’
इन्हें कहते है, भिक्षुओं—‘दृष्टियो का झुरमुट! दृष्टियो का जंगल! दृष्टियो का रेगिस्तान! दृष्टियो की विकृति! दृष्टियों की पीड़ापूर्ण ऐठन! दृष्टियो का बंधन!’ इस तरह दृष्टिबंधन में बँधा, धर्म न सुना, आम आदमी—जन्म बुढ़ापा मौत, शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा से छूट नहीं पाता! मैं कहता हूँ, वह दुःख से छूट नहीं पाता!
किंतु भिक्षुओं, कोई आर्यदर्शन लाभान्वित, आर्यधर्म से सुपरिचित, आर्यधर्म में अनुशासित हो; या सत्पुरूषदर्शन लाभान्वित, सत्पुरूषधर्म से सुपरिचित, सत्पुरूषधर्म में अनुशासित हो—ऐसा धर्म सुने आर्यश्रावक को पता चलता है कि कौन-सी बातों पर गौर करना उचित है, और कौन-सी बात पर अनुचित। इस कारण वह ‘उचित’ बात पर ही गौर करता है, अनुचित पर नहीं।
कौन-सी बात उचित होती है?
जिसपर गौर करने से अनुत्पन्न कामुक-बहाव… अस्तित्व-बहाव… अविद्या-बहाव उत्पन्न न हो, और उत्पन्न हुआ थमने लगे। ऐसी बातों पर गौर करना ‘उचित’ होता है, जिनपर वह [=आर्यश्रावक] गौर करता है। उसके ‘उचित बात’ पर गौर करने, और अनुचित बात पर गौर न करने से उसमें अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न नहीं होते, और उत्पन्न हुए थमने लगते है।
धर्म सुना आर्यश्रावक इन उचित बातों पर गौर करता है—
• ‘ऐसा दुःख होता है।’
• ‘ऐसे दुःख की उत्पत्ति होती है।’
• ‘ऐसे दुःख का निरोध होता है।’
• ‘यह दुःख निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है।’
इस तरह ‘उचित बात’ पर ही गौर करने से उसके तीन बंधन «संयोजन» टूट जाते [=श्रोतापन्नफ़ल] है—आत्मिय दृष्टि «सक्कायदिट्ठि», अनिश्चितता, और शील व्रतों पर अटकना «सीलब्बतपरामासो»।
— यह बहाव ‘देखकर त्यागे जाते’ है।
(२) कौन-से बहाव संयम कर त्यागे जाते «संवरा पहातब्बा» है?
भिक्षु उचित चिंतन कर आँख-इंद्रिय पर पहरा देते हुए ‘संयमपूर्वक’ रहता है। इस तरह आँखों का संयम करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो असंयमित रहने से उत्पन्न हुए होते।
वह उचित चिंतन कर कान-इंद्रिय… नाक-इंद्रिय… जीभ-इंद्रिय… काया-इंद्रिय… मन-इंद्रिय पर पहरा देते हुए ‘संयमपूर्वक’ रहता है। इस तरह मन का संयम करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो असंयमित रहने से उत्पन्न हुए होते।
— यह बहाव ‘संयम कर त्यागे जाते’ है।
(३) कौन-से बहाव उपयोग कर त्यागे «पटिसेवना पहातब्बा» जाते है?
• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए वस्त्र का उपयोग करता है—मात्र सर्दी-गर्मी से बचने के लिए। मक्खियाँ मच्छर हवा धूप बिच्छु साँप का संस्पर्श रोकने के लिए। और लज्जांगो को ढ़कने के लिए।
• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए भिक्षान्न का उपयोग करता है—न मज़े के लिए, न मदहोशी के लिए, न सुडौलता के लिए, न ही सौंदर्य के लिए। बल्कि काया को मात्र टिकाने के लिए। उसकी [भूख] पीड़ाएँ समाप्त करने के लिए। ब्रह्मचर्य के लिए। [सोचते हुए] ‘पुरानी पीड़ा ख़त्म करूँगा! [अधिक खाकर] नई पीड़ा नहीं उत्पन्न करूँगा! मेरी जीवनयात्रा निर्दोष रहेगी, और राहत से रहूँगा!’
• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए निवास का उपयोग करता है—केवल सर्दी-गर्मी से बचने के लिए। मक्खियाँ मच्छर हवा धूप बिच्छु साँप का संस्पर्श रोकने के लिए। ऋतु की पीड़ा से बचने के लिए। और एकांतवास का उपयोग करने के लिए।
• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए रोगावश्यक औषधि-भैषज्य का उपयोग करता है—केवल रोग से उत्पन्न पीड़ाएँ रोकने के लिए। और रोग से अधिकाधिक दूर रहने के लिए।
इस तरह उपयोग करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो इस तरह उपयोग न करने से उत्पन्न हुए होते।
— यह बहाव ‘उपयोग कर त्यागे जाते’ है।
(४) कौन-से बहाव सहन करके त्यागे «अधिवासना पहातब्बा» जाते है?
कोई भिक्षु उचित चिंतन करते हुए [कष्ट] बर्दाश्त करता है। वह सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मक्खियाँ मच्छर हवा धूप बिच्छु साँप का संस्पर्श सहन करता है। वह कटु वचन, नापसंदीदा आवाज, काया में उत्पन्न होती—तीक्ष्ण तीव्र भेदती चीरती, प्राण-हरति अनिच्छित पीड़ाएँ बर्दाश्त करता है।
इस तरह बर्दाश्त करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो बर्दाश्त न करने से हुए होते।
— यह बहाव ‘सहन करके त्यागे जाते’ है।
(५) कौन-से बहाव टाल कर त्यागे «परिवज्जना पहातब्बा» जाते है?
कोई भिक्षु उचित चिंतन करते हुए—चण्ड हाथी, चण्ड घोड़ा, चण्ड सांड, चण्ड कुत्ते [के समीप जाना] टालता है। वह साँप, कटा पेड़, कँटीली झाड़ी, खाईं प्रपात गड्ढा नाला टालता है। वह उचित चिंतन करते हुए ऐसी सभी हरकतें टालता है, जिसे जानकर समझदार सहब्रह्मचारी उसपर पाप की शंका करते—जैसे अनुचित जगह बैठना, अनुचित बस्ती में जाना, बुरे मित्र से मेलमिलाप।
इस तरह टालने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो न टालने से हुए होते।
— यह बहाव ‘टालकर त्यागे जाते’ है।
(६) कौन-से बहाव दूर हटाकर त्यागे «विनोदना पहातब्बा» जाते है?
• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए, उत्पन्न कामुक-विचार बर्दाश्त नहीं करता। बल्कि उसे त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए उत्पन्न दुर्भावनापूर्ण-विचार बर्दाश्त नहीं करता। बल्कि उसे त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए उत्पन्न हिंसात्मक-विचार बर्दाश्त नहीं करता। बल्कि उसे त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए उत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव बर्दाश्त नहीं करता। बल्कि उसे त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
इस तरह हटाने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो न हटाने से हुए होते।
— यह बहाव ‘हटाकर त्यागे जाते’ है।
(७) कौन-से बहाव साधना कर के त्यागे «भावना पहातब्बा» जाते है?
भिक्षु उचित चिंतन करते हुए स्मृति संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है।
भिक्षु उचित चिंतन करते हुए स्वभाव-जाँच संबोधिअंग… ऊर्जा संबोधिअंग… प्रफुल्लता संबोधिअंग… प्रशान्ति संबोधिअंग… समाधि संबोधिअंग… तटस्थता संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है।
इस तरह [सात संबोधिअंग] साधना करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो न करने से हुए होते।
— यह बहाव ‘साधना कर के त्यागे जाते’ है।
भिक्षुओं, जब भिक्षु ‘देखकर’ त्यागे जानेवाले बहाव को देखकर त्यागे, ‘संयम कर’ त्यागे जानेवाले बहाव को संयम कर त्यागे, ‘उपयोग कर’ त्यागे जानेवाले बहाव को उपयोग कर त्यागे, ‘सहन कर’ त्यागे जानेवाले बहाव को सहन कर के त्यागे, ‘टालकर’ त्यागे जानेवाले बहाव को टालकर त्यागे, ‘हटाकर’ त्यागे जानेवाले बहाव को हटाकर त्यागे, ‘साधना कर’ त्यागे जानेवाले बहाव को साधना कर त्यागे—तब वह सभी बहावों के प्रति संयमपूर्वक रहता है। वह तृष्णा को काट, बंधनों को फेंक, अहंभाव «मान» का सम्यकभेदन कर अभी यही दुःखों का अंत कर देता है।
«मा.नि.२»
सम्बोज्झङग आहार — • अनुत्पन्न स्मृति संबोधिअंग उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुआ स्मृति संबोधिअंग बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? ऐसे कुछ स्वभाव होते है, जो स्मृति संबोधिअंग पनपने का आधार बनते है—उसपर उचित तरह से गौर करना आहार बनता है अनुत्पन्न स्मृति संबोधिअंग उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुआ स्मृति संबोधिअंग बढ़ाकर अत्याधिक करने का। • अनुत्पन्न स्वभाव-जाँच संबोधिअंग उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुआ स्वभाव-जाँच संबोधिअंग बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? ऐसे कुछ स्वभाव होते है, जो कुशल व अकुशल, दोषपूर्ण व निर्दोष, स्थूल व सूक्ष्म, अंधेरे पक्ष व उजले पक्ष के होते है—उसपर उचित तरह से गौर करना आहार बनता है…। • अनुत्पन्न ऊर्जा संबोधिअंग उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुआ ऊर्जा संबोधिअंग बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? ऊर्जा प्रयास व उद्यमशीलता का सामर्थ्य होता है—उसपर उचित तरह से गौर करना आहार बनता है…। • अनुत्पन्न प्रफुल्लता संबोधिअंग उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुआ प्रफुल्लता संबोधिअंग बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? ऐसे कुछ स्वभाव होते है, जो प्रफुल्लता संबोधिअंग पनपने का आधार बनते है—उसपर उचित तरह से गौर करना आहार बनता है…। • अनुत्पन्न प्रशान्ति संबोधिअंग उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुआ प्रशान्ति संबोधिअंग को बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? कायिक प्रशान्ति होती है, और मानसिक प्रशान्ति होती है—उसपर उचित तरह से गौर करना आहार बनता है…। • अनुत्पन्न समाधि संबोधिअंग उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुआ समाधि संबोधिअंग को बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? निश्चलता के आलंबन «समथनिमित्त» होते है, अ-व्याकुलता के आलंबन «अब्यग्गनिमित्त» होते है—उनपर उचित तरह से गौर करना आहार बनता है…। • अनुत्पन्न तटस्थता संबोधिअंग उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुआ तटस्थता संबोधिअंग को बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? ऐसे स्वभाव होते है जो तटस्थता संबोधिअंग पनपने का आधार बनते है—उसपर उचित तरह से गौर करना आहार बनता है अनुत्पन्न तटस्थता संबोधिअंग उत्पन्न करने, एवं उत्पन्न हुआ तटस्थता संबोधिअंग बढ़ाकर अत्याधिक करने का। «सं.नि.४६:५१»
(१) जब भिक्षु काया को काया देखते हुए… संवेदना को संवेदना देखते हुए… चित्त को चित्त देखते हुए… स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए, उस अवसर पर उसकी स्मरणशीलता स्थिरता पाती है, बिना भ्रंश हुए। जब उसकी स्मरणशीलता स्थिरता पाती है, बिना भ्रंश हुए, तब स्मृति संबोधिअंग जागृत होता है। वह उसकी साधना करता है, और विकसित कर परिपूर्ण करता है। (२) इस तरह स्मरणशील होकर वह स्वभाव की जाँच-पड़ताल करता है, विश्लेषण करता है, और अन्तर्ज्ञान से उसे समझता है। जब वह इस तरह स्मरणशील होकर स्वभाव की जाँच-पड़ताल करें, विश्लेषण करें, अन्तर्ज्ञान से उसे समझे, तब स्वभाव-जाँच संबोधिअंग जागृत होता है। वह उसकी साधना करता है, और विकसित कर परिपूर्ण करता है। (३) जो स्वभाव की जाँच-पड़ताल करें, विश्लेषण करें, अन्तर्ज्ञान से उसे समझे, उसमें ऊर्जा का संचार होता है। जब उसमें ऊर्जा का संचार हो, तब ऊर्जा संबोधिअंग जागृत होता है। वह उसकी साधना करता है, और विकसित कर परिपूर्ण करता है। (४) जिस किसी की ऊर्जा जागृत होती हो, उसे आध्यात्मिक प्रफुल्लता उत्पन्न होती है। जब ऊर्जा जागृत होने से निरामिष प्रफुल्लता उत्पन्न हो, तब प्रफुल्लता संबोधिअंग जागृत होती है। वह उसकी साधना करता है, और विकसित कर परिपूर्ण करता है। (५) जो प्रफुल्लता से भर उठे, उसकी काया शान्त होने लगती है, और चित्त शान्त होने लगता है। जब प्रफुल्लता से भर उठे भिक्षु की काया और चित्त शान्त हो, तब प्रशान्ति संबोधिअंग जागृत होता है। वह उसकी साधना करता है, और विकसित कर परिपूर्ण करता है। (६) जो राहत से हो, जिसकी काया शान्त हो, उसका चित्त समाहित होने लगता है। जब राहत से होकर, काया शान्त होकर चित्त समाहित होने लगे, तब समाधि संबोधिअंग जागृत होती है। वह उसकी साधना करता है, और विकसित कर परिपूर्ण करता है। (७) वह ऐसे समाहित चित्त का तटस्थतापूर्वक निरीक्षण करता है। जब वह ऐसे समाहित चित्त का निरीक्षण तटस्थतापूर्वक करें, तब तटस्थता संबोधिअंग जागृत होती है। वह उसकी साधना करता है, और विकसित कर परिपूर्ण करता है। इस तरह जब चार स्मृतिप्रस्थान की साधना की जाए, बार-बार की जाए, तब सात संबोधिअंग परिपूर्णता की ओर जाते है। और जब सात संबोधिअंग की साधना की जाए, बार-बार की जाए, तब विद्या व विमुक्ति परिपूर्णता की ओर जाती है। वह कैसे? कोई भिक्षु स्मृति संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह स्वभाव-जाँच संबोधिअंग… ऊर्जा संबोधिअंग… प्रफुल्लता संबोधिअंग… प्रशान्ति संबोधिअंग… समाधि संबोधिअंग… तटस्थता संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उन्हें भी त्याग देता है। — इस तरह सात संबोधिअंग की साधना की जाए, बार-बार की जाए, तब विद्या व विमुक्ति परिपूर्णता की ओर जाती है। «सं.नि.५४:२»
संबोधिअंग संतुलन भिक्षुओं, जब चित्त सुस्त हो, तब प्रशान्ति, समाधि और तटस्थता संबोधिअंगो की साधना करने का गलत समय होता है। क्यों? क्योंकि सुस्त चित्त उन [निष्क्रिय करते] स्वभावों से मुश्किल से उठेगा। जैसे कोई पुरुष छोटी अग्नि को बड़ा धधकाना चाहे, किंतु उसपर गीली घास, गीला गोबर, गीली लकड़ियां डाल दे, उसे जल से सींच दे और धूल डालकर बुझा दे। तब क्या उसकी छोटी अग्नि बड़ी होकर धधक सकेगी? “नहीं, भन्ते।” उसी तरह जब चित्त सुस्त हो, तब प्रशान्ति, समाधि और तटस्थता संबोधिअंग की साधना करने का गलत समय होता है। क्योंकि सुस्त चित्त उन [निष्क्रिय करते] स्वभावों से मुश्किल से उठेगा। तब स्वभाव-जाँच, ऊर्जा और प्रफुल्लता संबोधिअंग की साधना करने का सही समय होता है। क्यों? क्योंकि सुस्त चित्त उन [सक्रिय करते] स्वभावों से आसानी से उठेगा। जैसे कोई पुरुष छोटी अग्नि को बड़ा धधकाना चाहे, और उसपर सूखी घास, सूखा गोबर, सूखी लकड़ियां डाल दे, उसे मुँह से फूंक मारे और धूल डालकर बुझा न दे। क्या उसकी छोटी अग्नि बड़ी होकर धधक सकेगी? “हाँ, भन्ते।” उसी तरह जब चित्त सुस्त हो, तब स्वभाव-जाँच, ऊर्जा और प्रफुल्लता संबोधिअंग की साधना करने का सही समय होता है। क्योंकि सुस्त चित्त उन [सक्रिय करते] स्वभावों से आसानी से उठेगा। • और जब चित्त बेचैन हो, तब स्वभाव-जाँच, ऊर्जा और प्रफुल्लता संबोधिअंग की साधना करने का गलत समय होता है। क्यों? क्योंकि बेचैन चित्त उन [सक्रिय करते] स्वभावों से मुश्किल से शांत होगा। जैसे कोई पुरुष बड़ी धधकती अग्नि को बुझाना चाहे, किंतु उसपर सूखी घास, सूखा गोबर, सूखी लकड़ियां डाल दे, उसे मुँह से फूंक मारे और धूल डालकर बुझा न दे। क्या उसकी बड़ी धधकती अग्नि बुझ पायेगी? “नहीं, भन्ते।” उसी तरह जब चित्त बेचैन हो, तब स्वभाव-जाँच, ऊर्जा और प्रफुल्लता संबोधिअंग की साधना करने का गलत समय होता है। क्योंकि बेचैन चित्त उन [सक्रिय करते] स्वभावों से मुश्किल से शांत होगा। तब प्रशान्ति, समाधि और तटस्थता संबोधिअंग की साधना करने का सही समय होता है। क्यों? क्योंकि बेचैन चित्त उन [निष्क्रिय करते] स्वभावों से आसानी से शांत होगा। जैसे कोई पुरुष बड़ी धधकती अग्नि को बुझाना चाहे, और उसपर गीली घास, गीला गोबर, गीली लकड़ियां डाल दे, उसे जल से सींच दे और धूल डालकर बुझा दे। क्या उसकी बड़ी धधकती अग्नि बुझ सकेगी? “हाँ, भन्ते।” उसी तरह जब चित्त बेचैन हो, तब प्रशान्ति, समाधि और तटस्थता संबोधिअंग की साधना करने का सही समय होता है। क्योंकि बेचैन चित्त उन [निष्क्रिय करते] स्वभावों से आसानी से शांत होगा। और स्मृति संबोधिअंग, मैं कहता हूँ, प्रत्येक अवसर पर लाभदायक होता है। «सं.नि.४६:५३»
छत्तीस भाव भिक्षुओं, छत्तीस भाव होते हैं, जिन्हें महसूस कर पता करना चाहिए। फ़िर एक तरह के भाव का आधार लेकर, निर्भर होकर दूसरे तरह का भाव त्यागना चाहिए, लाँघना चाहिए। छत्तीस भाव क्या होते है? गृहस्थी की छह खुशियाँ, संन्यास की छह खुशियाँ। गृहस्थी के छह ग़म, संन्यास के छह ग़म। गृहस्थी की छह तटस्थताएँ, व संन्यास की छह तटस्थताएँ। गृहस्थी की छह खुशियाँ क्या होती है? • आँख से पता चलते ‘अर्जित’ रूप, जो पसंदीदा, सुखद, मोहक, प्रिय, लुभावने व लोक-प्रलोभन से जुड़े हो; या अतीतकाल के अर्जित रूप, जो गुज़र चुके, ख़त्म हुए या बदल चुके हो—उनका स्मरण कर जो खुशी मिलती है, उसे गृहस्थी की खुशी कहते है। • कान से पता चलती ‘अर्जित’ आवाज़े, जो पसंदीदा… • नाक से पता चलते ‘अर्जित’ गन्ध, जो पसंदीदा… • जीभ से पता चलते ‘अर्जित’ स्वाद, जो पसंदीदा… • काया से पता चलते ‘अर्जित’ संस्पर्श, जो पसंदीदा… • मन से पता चलते ‘अर्जित’ स्वभाव, जो पसंदीदा सुखद मोहक प्रिय लुभावने लोक-प्रलोभन से जुड़े हो; या अतीतकाल के अर्जित स्वभाव, जो गुज़र चुके, ख़त्म हुए या बदल चुके हो—उनका स्मरण कर जो खुशी मिलती है, उसे गृहस्थी की खुशी कहते है। संन्यास की छह खुशियाँ क्या है? • उन्हीं रूपों का अनित्य-स्वभाव देख, बदलाव वैराग्य व निरोध-स्वभाव देख; जैसे हो वैसे सही पता चलने पर—कि अतीत या वर्तमान के सभी रूप ‘अनित्य ही होते है! कष्टपूर्ण ही होते है! बदल ही जाते है!’—जो खुशी मिलती है, उसे संन्यास की खुशी कहते है। • उन्हीं आवाज़ों का अनित्य-स्वभाव देख… • उन्हीं गंधों का अनित्य-स्वभाव देख… • उन्हीं स्वादों का अनित्य-स्वभाव देख… • उन्हीं संस्पर्शों का अनित्य-स्वभाव देख… • उन्हीं स्वभावों का अनित्य-स्वभाव देख, बदलाव वैराग्य व निरोध-स्वभाव देख; जैसे हो वैसे सही पता चलने पर—कि अतीत या वर्तमान के सभी स्वभाव ‘अनित्य ही होते है! कष्टपूर्ण ही होते है! बदल ही जाते है!’—जो खुशी मिलती है, उसे संन्यास की खुशी कहते है। गृहस्थी के छह ग़म क्या होते है? • आँख से पता चलते ‘अर्जित न होनेवाले’ रूप, जो पसंदीदा सुखद मोहक प्रिय लुभावने लोक-प्रलोभन से जुड़े हो; या अतीतकाल के ‘अर्जित न हुए’ रूप, जो गुज़र चुके, ख़त्म हुए या बदल चुके हो—उनका स्मरण कर जो ग़म होता है, उसे गृहस्थी का ग़म कहते है। • कान से पता चलती ‘अर्जित न होनेवाली’ आवाज़े, जो पसंदीदा… • नाक से पता चलते ‘अर्जित न होनेवाले’ गन्ध, जो पसंदीदा… • जीभ से पता चलते ‘अर्जित न होनेवाले’ स्वाद, जो पसंदीदा… • काया से पता चलते ‘अर्जित न होनेवाले’ संस्पर्श, जो पसंदीदा… • मन से पता चलते ‘अर्जित न होनेवाले’ स्वभाव, जो पसंदीदा सुखद मोहक प्रिय लुभावने लोक-प्रलोभन से जुड़े हो; या अतीतकाल के अर्जित न हुए स्वभाव, जो गुज़र चुके, ख़त्म हुए या बदल चुके हो—उनका स्मरण कर जो ग़म होगा, उसे गृहस्थी का ग़म कहते है। संन्यास के छह ग़म क्या है? • सर्वोपरि विमोक्ष चाहते किसी लालसापूर्ण व्यक्ति को उन्हीं रूपों का अनित्य-स्वभाव देख, बदलाव वैराग्य व निरोध-स्वभाव देख, जैसे हो, वैसे सही पता चलने पर—कि अतीत या वर्तमान के सभी रूप ‘अनित्य ही होते है! कष्टपूर्ण ही होते है! बदल ही जाते है!’—जो ग़म होता है, उसे संन्यास का ग़म कहते है। • सर्वोपरि विमोक्ष चाहते… उन्हीं आवाज़ों का अनित्य-स्वभाव देख… • सर्वोपरि विमोक्ष चाहते… उन्हीं गंधों का अनित्य-स्वभाव देख… • सर्वोपरि विमोक्ष चाहते… उन्हीं स्वादों का अनित्य-स्वभाव देख… • सर्वोपरि विमोक्ष चाहते… उन्हीं संस्पर्शों का अनित्य-स्वभाव देख… • सर्वोपरि विमोक्ष चाहते किसी लालसापूर्ण व्यक्ति को उन्हीं स्वभावों का अनित्य-स्वभाव देख, बदलाव वैराग्य व निरोध-स्वभाव देख, जैसे हो, वैसे सही पता चलने पर—कि अतीत या वर्तमान के सभी स्वभाव ‘अनित्य ही होते है! कष्टपूर्ण ही होते है! बदल ही जाते है!’—जो ग़म होता है, उसे संन्यास का ग़म कहते है। गृहस्थी की छह तटस्थताएँ क्या है? • आँख से कुछ रूप देखकर किसी मूर्ख भ्रमित, धर्म न सुने आम आदमी—जिसने अपनी कमज़ोरी या कर्मफ़ल पर विजय न पाई हो, जो ख़तरों के प्रति अँधा हो—को तटस्थता महसूस होती है। वह तटस्थता रूपों के परे नहीं जाती, इसलिए उसे गृहस्थी की तटस्थता कहते है। • कान से कुछ आवाज़ें सुनकर किसी मूर्ख… • नाक से कुछ गंध सुनकर किसी मूर्ख… • जीभ से कुछ स्वाद चखकर किसी मूर्ख… • काया से कुछ संस्पर्श महसूस कर किसी मूर्ख… • मन से स्वभाव जानकर किसी मूर्ख भ्रमित, धर्म न सुने आम आदमी—जिसने अपनी कमज़ोरी या कर्मफ़ल पर विजय न पाई हो, जो ख़तरों के प्रति अँधा हो—को तटस्थता महसूस होती है। वह तटस्थता स्वभावों के परे नहीं जाती, इसलिए उसे गृहस्थी की तटस्थता कहते है। और संन्यास की छह तटस्थताएँ क्या है? • उन्हीं रूपों का अनित्य-स्वभाव देख, बदलाव वैराग्य व निरोध-स्वभाव देख; जैसे हो, वैसे सही पता चलने पर—कि अतीत या वर्तमान के सभी रूप ‘अनित्य ही होते है! कष्टपूर्ण ही होते है! बदल ही जाते है!’—तटस्थता महसूस होती है। ऐसी तटस्थता रूपों के परे ले जाती है, इसलिए उसे संन्यास की तटस्थता कहते है। • उन्हीं आवाज़ों का अनित्य-स्वभाव देख… • उन्हीं गंधों का अनित्य-स्वभाव देख… • उन्हीं स्वादों का अनित्य-स्वभाव देख… • उन्हीं संस्पर्शों का अनित्य-स्वभाव देख… • उन्हीं स्वभावों का अनित्य-स्वभाव देख, बदलाव वैराग्य व निरोध-स्वभाव देख; जैसे हो, वैसे सही पता चलने पर—कि अतीत या वर्तमान के सभी स्वभाव ‘अनित्य ही होते है! कष्टपूर्ण ही होते है! बदल ही जाते है!’—तटस्थता महसूस होती है। ऐसी तटस्थता स्वभावों के परे ले जाती है, इसलिए उसे संन्यास की तटस्थता कहते है। — यह छत्तीस भाव होते हैं, जिन्हें महसूस कर पता करना चाहिए। और फ़िर एक तरह के भाव का आधार लेकर, निर्भर होकर दूसरे तरह का भाव त्यागना चाहिए, लाँघना चाहिए। कैसे? • संन्यास की छह खुशियों का आधार लेकर, निर्भर होकर गृहस्थी की छह खुशियाँ त्यागनी चाहिए, लाँघना चाहिए। इस तरह उनका परित्याग होता है, लाँघा जाता है। • संन्यास के छह ग़मो का आधार लेकर, निर्भर होकर गृहस्थी के छह ग़म त्यागना चाहिए, लाँघना चाहिए। इस तरह उनका परित्याग होता है, लाँघा जाता है। • संन्यास के छह तटस्थताओं का आधार लेकर, निर्भर होकर गृहस्थी के छह तटस्थताएँ त्यागनी चाहिए, लाँघना चाहिए। इस तरह उनका परित्याग होता है, लाँघा जाता है। • तब संन्यास की छह खुशियों का आधार लेकर, निर्भर होकर संन्यास के छह ग़म त्यागना चाहिए, लाँघना चाहिए। इस तरह उनका परित्याग होता है, लाँघा जाता है। • और संन्यास की छह तटस्थताओं का आधार लेकर, निर्भर होकर संन्यास की छह खुशियां त्यागनी चाहिए, लाँघनी चाहिए। इस तरह उनका परित्याग होता है, लाँघा जाता है। तब ‘विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता’ «उपेक्खा नानत्ता नानत्तसिता» होती है, एवं ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ «उपेक्खा एकत्ता एकत्तसिता» होती है। विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता क्या है? जो तटस्थता विविध रूप, आवाज़, गंध, स्वाद, संस्पर्श व स्वभाव के प्रति हो—उसे विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता कहते है। अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता क्या है? और जो तटस्थता आकाश-आयाम के आधार पर… चैतन्यता-आयाम के आधार पर… सूने-आयाम के आधार पर… न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम के आधार पर हो—उसे अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता कहते है। • तब ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ का आधार लेकर, निर्भर होकर ‘विविध आश्रयवाली विविधतापूर्ण तटस्थता’ त्यागनी चाहिए, लाँघना चाहिए। इस तरह उनका परित्याग होता है, लाँघा जाता है। • तब अ-गढंत «अतम्मयता» का आधार लेकर, निर्भर होकर ‘अकेले आश्रयवाली एक-जैसी तटस्थता’ त्यागनी चाहिए, लाँघना चाहिए। इस तरह उसका भी परित्याग होता है, उसे भी लाँघा जाता है। — इस तरह एक तरह के भाव का आधार लेकर, निर्भर होकर दूसरे तरह का भाव त्यागना चाहिए, लाँघना चाहिए। «मा.नि.१३७»
इंद्रियों का विकास आर्यविनय में इंद्रियों का सर्वोपरि विकास कैसे होता है? • आँख से रूप देखकर भिक्षु में अच्छाई [या सकारात्मकता] जागती है, या बुराई [या नकारात्मकता] जागती है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागती है। तब उसे पता चले कि ‘मुझमें यह जो अच्छाई जागी है, या बुराई जागी है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागी है—वह बनावटी है! स्थूल है! आधारपूर्ण सहउत्पादित है! परंतु तटस्थता— इसमें शांति है! यह सर्वोत्कृष्ट है!’ उसी के साथ जाग पड़ी अच्छाई, या बुराई, या अच्छाई व बुराई दोनों रुक जाती है, और तटस्थता खड़ी होती है। जैसे आँखोंवाला पुरुष बंद आँखे खोल दे, या खुली आँखें बंद करें। उतनी तुरंत, उतनी तेज़, उतनी सरलता से, चाहे जिस बारे में हो—जाग पड़ी अच्छाई, या बुराई, या अच्छाई व बुराई दोनों रुक जाती है, और तटस्थता खड़ी होती है। और इसे आर्यविनय में आँख से रूप देखने में ‘इंद्रिय का सर्वोपरि विकास’ कहते है। • कान से आवाज़ सुनकर भिक्षु में अच्छाई जागती है, या बुराई जागती है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागती है। तब उसे पता चले कि ‘मुझमें यह जो अच्छाई जागी है, या बुराई जागी है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागी है—वह बनावटी है! स्थूल है! आधारपूर्ण सहउत्पादित है! परंतु तटस्थता— इसमें शांति है! यह सर्वोत्कृष्ट है!’ उसी के साथ जाग पड़ी अच्छाई, या बुराई, या अच्छाई व बुराई दोनों रुक जाती है, और तटस्थता खड़ी होती है। जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी उंगलियाँ सरलतापूर्वक चटखे। उतनी तुरंत, उतनी तेज़, उतनी सरलता से, चाहे जिस बारे में हो—जाग पड़ी अच्छाई, या बुराई, या अच्छाई व बुराई दोनों रुक जाती है, और तटस्थता खड़ी होती है। और इसे आर्यविनय में कान से आवाज़ सुनने में ‘इंद्रिय का सर्वोपरि विकास’ कहते है। • नाक से गंध सूँघकर भिक्षु में… तटस्थता खड़ी होती है। जैसे एक-ओर झुके कमल के पत्ते पर जल की बूंदें फ़िसल पड़े, ऊपर टिक न पाए। उतनी तुरंत, उतनी तेज़, उतनी सरलता से… तटस्थता खड़ी होती है। और इसे आर्यविनय में नाक से गंध सूँघने में ‘इंद्रिय का सर्वोपरि विकास’ कहते है। • जीभ से स्वाद चखकर भिक्षु में… तटस्थता खड़ी होती है। जैसे कोई बलवान पुरुष जीभ-छोर पर इकट्ठा थूंक-पिंड को सरलता से थूंक दे। उतनी तुरंत, उतनी तेज़, उतनी सरलता से… तटस्थता खड़ी होती है। • काया से संस्पर्श महसूस कर भिक्षु में… तटस्थता खड़ी होती है। जैसे कोई बलवान पुरुष सरलतापूर्वक सिकोड़ी-बाँह पसारे, या पसारी-बाँह सिकोड़े। उतनी तुरंत, उतनी तेज़, उतनी सरलता से… तटस्थता खड़ी होती है। • मन से स्वभाव जानकर भिक्षु में अच्छाई जागती है, या बुराई जागती है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागती है। तब उसे पता चले कि ‘मुझमें यह जो अच्छाई जागी है, या बुराई जागी है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागी है—वह बनावटी है! स्थूल है! आधारपूर्ण सहउत्पादित है! परंतु तटस्थता— इसमें शांति है! यह सर्वोत्कृष्ट है!’ — उसके साथ ही जाग पड़ी अच्छाई, या बुराई, या अच्छाई व बुराई दोनों रुक जाती है, और तटस्थता खड़ी होती है। जैसे कोई पुरुष दिनभर तपाए लौह-तवे पर जल की दो-तीन बूंदे गिराए। बूंदों का गिरना धीमे होगा, भाप बनकर विलुप्त होना तेज़! उतनी तुरंत, उतनी तेज़, उतनी सरलता से, चाहे जिस बारे में हो—जाग पड़ी अच्छाई, या बुराई, या अच्छाई व बुराई दोनों रुक जाती है, और तटस्थता खड़ी होती है। और इसे आर्यविनय में मन से स्वभाव जानने में ‘इंद्रिय का सर्वोपरी विकास’ कहते है। प्रगतिपथ पर चलता, सीखता व्यक्ति «सेक्ख» कैसे होता है? • आँख से रूप देखकर भिक्षु में अच्छाई [या सकारात्मकता] जागती है, या बुराई [या नकारात्मकता] जागती है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागती है—तब वह खौफ़ लज्जा व घिन महसूस करता है। • कान से आवाज़ सुनकर भिक्षु… घिन महसूस करता है। • नाक से गंध सूँघकर भिक्षु… घिन महसूस करता है। • जीभ से स्वाद चखकर भिक्षु… घिन महसूस करता है। • काया से संस्पर्श महसूस कर भिक्षु… घिन महसूस करता है। • मन से स्वभाव जानकर भिक्षु में अच्छाई जागती है, या बुराई जागती है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागती है—तब वह खौफ़ लज्जा व घिन महसूस करता है। किंतु विकसित इंद्रियोंवाला आर्य कैसे होता है? • आँख से रूप देखकर भिक्षु में अच्छाई [या सकारात्मकता] जागती है, या बुराई [या नकारात्मकता] जागती है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागती है। घिनौनी उपस्थिति में वह जब चाहे ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है। घिनरहित उपस्थिति में वह जब चाहे ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है। घिनौनी व घिनरहित दोनों की उपस्थिति में वह जब चाहे, मात्र ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है, या मात्र ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है, या जब चाहे दोनों हटाकर वह ‘तटस्थ सचेत व स्मरणशील’ होकर रहता है। • कान से आवाज़ सुनकर… • नाक से गंध सूँघकर… • जीभ से स्वाद चखकर… • काया से संस्पर्श महसूस कर… • मन से स्वभाव जानकर भिक्षु में अच्छाई जागती है, या बुराई जागती है, या अच्छाई व बुराई दोनों जागती है। घिनौनी उपस्थिति में वह जब चाहे ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है। घिनरहित उपस्थिति में वह जब चाहे ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है। घिनौनी व घिनरहित दोनों की उपस्थिति में वह जब चाहे, मात्र ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है, या मात्र ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है, या जब चाहे दोनों हटाकर वह ‘तटस्थ सचेत व स्मरणशील’ होकर रहता है। — इस तरह भिक्षु विकसित इंद्रियोंवाला आर्य होता है। «मा.नि.१५२»
गौर करें कि ‘आत्म नहीं होती’—ऐसा मानना भी मिथ्या-दृष्टियों में फँसना ही है, जिस कारण श्रोतापन्नफ़ल नहीं मिल पाता। भगवान के अनुसार आत्म का अस्तित्व मानने से शाश्वतवाद दृष्टी, तथा आत्म का अस्तित्व नहीं मानने से उच्छेदवाद दृष्टी उत्पन्न होती है। उच्छेदवाद दृष्टी से नास्तिकता बढती है, और मरणोपरांत दुर्गति हो सकती है। ↩︎
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