नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय दस

सतिपट्ठान

~ सम्यकस्मृति की आर्य साधना ~



कोई कामचोर «अनातापी» कैसे होता है?

आम आदमी सोचता है, ‘अनुत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव उत्पन्न हुए, तो अनर्थ होगा’—तब भी वह तत्परता नहीं जगाता। ‘उत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव त्यागे न गए, तो अनर्थ होगा’—तब भी वह तत्परता नहीं जगाता। ‘अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न न हुए, तो अनर्थ होगा’—तब भी वह तत्परता नहीं जगाता। ‘उत्पन्न कुशल स्वभाव खत्म हुए, तो अनर्थ होगा’—तब भी वह तत्परता नहीं जगाता।

— इस तरह कोई व्यक्ति कामचोर होता है।


आतापी —

और कोई तत्पर «आतापी» कैसे होता है?

भिक्षु सोचता है —

• ‘अनुत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव उत्पन्न हुए, तो अनर्थ होगा’—और वह तत्परता जगाता है।

• ‘उत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव त्यागे न गए, तो अनर्थ होगा’—और वह तत्परता जगाता है।

• ‘अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न न हुए, तो अनर्थ होगा’—और वह तत्परता जगाता है।

• ‘उत्पन्न कुशल स्वभाव खत्म हुए, तो अनर्थ होगा’—और वह तत्परता जगाता है।

— इस तरह भिक्षु तत्पर होता है।

«सं.नि.१६:२»

सम्पजानो

भिक्षु सचेत कैसे होता है?

• उसे संवेदनाएँ उत्पन्न होते हुए, स्थित होते हुए, व्यय होते हुए पता चलती हैं।

• उसे विचार उत्पन्न होते हुए, स्थित होते हुए, व्यय होते हुए पता चलते हैं।

• उसे नज़रिए उत्पन्न होते हुए, स्थित होते हुए, व्यय होते हुए पता चलते हैं।

— इस तरह भिक्षु सचेत होता है।

«सं.नि.४७:३५»

सतिमा

कोई भिक्षु स्मरणशील कैसे होता है?

• वह काया को [मात्र] काया देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।

संवेदना को [मात्र] संवेदना देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।

चित्त को [मात्र] चित्त देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।

स्वभाव को [मात्र] स्वभाव देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।

— इस तरह भिक्षु स्मरणशील होता है।

स्मरणशील रहो भिक्षुओं, और सचेत रहो! यह हमारा [=सभी बुद्धों का] आपको संदेश है।

«सं.नि.४७:३५»


चार स्मृतिप्रस्थान की साधना करना क्या है?

• भिक्षु काया के उत्पत्ति-स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है, काया के व्यय-स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है, काया के उत्पत्ति व व्यय स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।

• वह संवेदना के उत्पत्ति-स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है, संवेदना के व्यय-स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है, संवेदना के उत्पत्ति व व्यय स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।

• वह चित्त के उत्पत्ति-स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है, चित्त के व्यय-स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है, चित्त के उत्पत्ति व व्यय स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।

• वह स्वभाव के उत्पत्ति-स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है, स्वभाव के व्यय-स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है, स्वभाव के उत्पत्ति व व्यय स्वभाव पर गौर करते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।

— यह चार स्मृतिप्रस्थान की साधना है।

और चार स्मृतिप्रस्थान की साधना करानेवाला प्रगतिपथ क्या है?

बस यही—आर्य अष्टांगिक मार्ग ही चार स्मृतिप्रस्थान की साधना करानेवाला प्रगतिपथ है।

«सं.नि.४७:४०»


सतिपठ्ठानसुत्त

यह चार स्मृतिप्रस्थान एकतरफ़ा 1 «एकायनो» मार्ग है, भिक्षुओं—सत्वों की विशुद्धि के लिए, शोक विलाप लाँघने के लिए, दर्द व्यथा विलुप्त करने के लिए, सही तरीक़ा पाने के लिए, निर्वाण साक्षात्कार के लिए। कौन से चार?

यहाँ भिक्षुओं, भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। चित्त को चित्त देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।


«कायानुपस्सना आनापान»

कैसे भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है? भिक्षु जंगल में, पेड़ तले, या ख़ालीगृह «सुञ्ञागार» जाकर पालथी मारकर, शरीर सीधा रख, स्मरणशील होकर बैठता है। स्मरणशील होकर वह साँस लेता है; स्मरणशील होकर वह साँस छोड़ता है।

• लंबी-साँस लेते हुए उसे पता चलता «पजानाति» है कि “मैं लंबी-साँस ले रहा हूँ।” लंबी-साँस छोड़ते हुए पता चलता है कि “मैं लंबी-साँस छोड़ रहा हूँ।”

• छोटी-साँस लेते हुए उसे पता चलता है कि “मैं छोटी-साँस ले रहा हूँ।” छोटी-साँस छोड़ते हुए पता चलता है कि “मैं छोटी-साँस छोड़ रहा हूँ।”

• संपूर्ण शरीर महसूस करते हुए वह साँस लेना सीखता «सिक्खति» है; संपूर्ण शरीर महसूस करते हुए वह साँस छोड़ना सीखता है।

• कायिक-रचना 2 शान्त करते हुए वह साँस लेना सीखता है; कायिक-रचना शान्त करते हुए वह साँस छोड़ना सीखता है।

जैसे किसी निपुण बढई को औजार लंबा घुमाते हुए पता चलता है कि ‘मैं लंबा घुमा रहा हूँ।’ छोटा घुमाते हुए पता चलता है कि ‘मैं छोटा घुमा रहा हूँ।’

उसी तरह लंबी-साँस लेते हुए उसे पता चलता है कि “मैं लंबी-साँस ले रहा हूँ।” लंबी-साँस छोड़ते हुए पता चलता है कि “मैं लंबी-साँस छोड़ रहा हूँ।” छोटी-साँस लेते हुए उसे पता चलता है कि “मैं छोटी-साँस ले रहा हूँ।” छोटी-साँस छोड़ते हुए पता चलता है कि “मैं छोटी-साँस छोड़ रहा हूँ।” संपूर्ण शरीर महसूस करते हुए वह साँस लेना सीखता है; संपूर्ण शरीर महसूस करते हुए वह साँस छोड़ना सीखता है। कायिक-रचना शान्त करते हुए वह साँस लेना सीखता है; कायिक-रचना शान्त करते हुए वह साँस छोड़ना सीखता है।

— इस तरह वह अपनी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी [सभी] काया को काया देखते हुए रहता है। अथवा काया का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह काया है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित [स्वतंत्र] होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है।


«इरियापथ»

फिर उसे चलते हुए पता चलता रहता है कि ‘चल रहा हूँ।’ खड़े हुए पता चलता रहता है कि ‘खड़ा हूँ।’ बैठे हुए पता चलता रहता है कि ‘बैठा हूँ।’ लेटे हुए पता चलता रहता है कि ‘लेटा हूँ।’ जैसे जैसे काया अवस्था लेती है, वैसे वैसे उसे पता चलता रहता है।

इस तरह वह अपनी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है। अथवा काया का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह काया है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है।


«सम्पजानपब्बं»

फिर भिक्षु आगे बढ़ते व लौट आते सचेत होता है। नज़र टिकाते व नज़र हटाते वह सचेत होता है। [अंग] सिकोड़ते व पसारते वह सचेत होता है। संघाटी पात्र व चीवर धारण करते वह सचेत होता है। खाते पीते चबाते स्वाद लेते वह सचेत होता है। पेशाब व शौच करते वह सचेत होता है। चलते खड़े रहते बैठते सोते जागते बोलते मौन होते वह सचेत होता है।

इस तरह वह अपनी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है। अथवा काया का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह काया है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है।


«पटिकूलमनसिकार»

फिर भिक्षु अपनी काया को पैर तल से ऊपर, माथे के केश से नीचे, त्वचा से ढ़की, नाना प्रकार की गंदगियों से भरी हुई मनन करता रहता है—‘मेरी इस काया में है—केश, लोम, नाखून, दाँत, त्वचा, माँस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली, ह्रदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा, आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी, मस्तिष्क, पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी, आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ो में तरल, मूत्र।’

जैसे खुली बोरी में चावल, गेहूं, मूंग, राजमा, तिल, कनकी आदि नाना प्रकार का अनाज भरा हो। कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष उसे नीचे उड़ेलकर पता करें—‘यह चावल है, यह गेहूं है, यह मूंग है, यह राजमा है, यह तिल है, यह कनकी है।’

उसी तरह भिक्षु अपनी काया को पैर तल से ऊपर, माथे के केश से नीचे, त्वचा से ढ़की, नाना प्रकार की गंदगियों से भरी हुई मनन करता रहता है—“मेरी इस काया में है—केश, लोम, नाखून, दाँत, त्वचा, माँस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली, ह्रदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा, आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी, मस्तिष्क, पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी, आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ो में तरल, मूत्र।”

इस तरह वह अपनी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है। अथवा काया का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह काया है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है।


«धातुमनसिकार»

फिर भिक्षु यह काया—चाहे जिस अवस्था में हो, जिस परिस्थिति में हो—धातु के अनुसार मनन करता रहता है—‘इस काया में पृथ्वीधातु है; जलधातु है; अग्निधातु है; वायुधातु है।’

जैसे कोई कसाई गाय को काटकर चौराहे पर उसका अलग-अलग ढेर बनाकर बैठे। उसी तरह वह यह काया—चाहे जिस अवस्था में हो, जिस परिस्थिति में हो—धातुओं के अनुसार मनन करता रहता है—‘इस काया में पृथ्वीधातु है; जलधातु है; अग्निधातु है; वायुधातु है।’

इस तरह वह अपनी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है। अथवा काया का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह काया है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है।


«नवसिवथिक»

फिर भिक्षु श्मशान में पड़ी लाश देखें—

(१) एक दिन पुरानी, दो दिन पुरानी, तीन दिन पुरानी—फूल चुकी; नीली पड़ चुकी; पीब रिसती। तब वह अपनी काया से तुलना करता है—‘मेरी काया भी इसी स्वभाव की है। आगे यही होना है। यह टाला नहीं जा सकता।’

इस तरह वह अपनी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है। अथवा काया का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह काया है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है।

फिर भिक्षु श्मशान में पड़ी लाश देखें—

(२) कौवों द्वारा नोची जाती, चीलों द्वारा नोची जाती, गिद्धों द्वारा नोची जाती, बगुलों द्वारा नोची जाती, कुत्तों द्वारा चबाई जाती, बाघ द्वारा चबाई जाती, तेंदुए द्वारा चबाई जाती, सियार द्वारा चबाई जाती, अथवा विविध जंतुओं द्वारा खायी जाती। तब वह अपनी काया से तुलना करता है—‘मेरी काया भी इसी स्वभाव की है। आगे यही होना है। यह टाला नहीं जा सकता।’

इस तरह वह अपनी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है। अथवा काया का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह काया है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है।

फिर वह श्मशान में पड़ी लाश देखें —

(३) मांसयुक्त, रक्त से सनी, नसों से बँधी, हड्डी-कंकालवाली…

(४) मांसरहित, रक्त से सनी, नसों से बँधी, हड्डी-कंकालवाली…

(५) मांसरहित, रक्तरहित, नसों से बँधी, हड्डी-कंकालवाली…

(६) मांसरहित, रक्तरहित, नसों से बिना बँधी, हड्डियां जहाँ-वहाँ बिखरी हुई—कही हाथ की हड्डी; कही पैर की; कही टखने की हड्डी; कही जाँघ की; कही कुल्हे की हड्डी; कही कमर की; कही पसली; कही पीठ की हड्डी; कही कंधे की हड्डी; कही गर्दन की; कही ठोड़ी की हड्डी; कही दाँत; कही खोपड़ी। तब वह अपनी काया से तुलना करता है—‘मेरी काया भी इसी स्वभाव की है। आगे यही होना है। यह टाला नहीं जा सकता।’

इस तरह वह अपनी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है। अथवा काया का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह काया है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है।

फिर वह श्मशान में पड़ी लाश देखें—

(७) हड्डिया शंख जैसे सफ़ेद हो चुकी…

(८) वर्षोंपश्चात हड्डियों का ढ़ेर लगा हुआ…

(९) हड्डिया सड़कर चूर्ण बन चुकी हो। तब वह अपनी काया से तुलना करता है—‘मेरी काया भी इसी स्वभाव की है। आगे यही होना है। यह टाला नहीं जा सकता।’

इस तरह वह अपनी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी काया को काया देखते हुए रहता है। अथवा काया का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा काया का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह काया है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु काया को काया देखते हुए रहता है।


«वेदनानुपस्सना»

और फिर भिक्षुओं, भिक्षु संवेदना को संवेदना देखते हुए कैसे रहता है? यहाँ भिक्षु को सुख महसूस करते हुए पता चलता रहता है कि ‘मैं सुख महसूस कर रहा हूँ।’ दर्द महसूस करते हुए पता चलता रहता है कि ‘मैं दर्द महसूस कर रहा हूँ।’ नसुख-नदर्द महसूस करते हुए पता चलता रहता है कि ‘मैं नसुख-नदर्द महसूस कर रहा हूँ।’

«सामिस» भौतिक सुख महसूस करते हुए पता चलता रहता है कि ‘मैं भौतिक सुख महसूस कर रहा हूँ।’ «निरामिस» आध्यात्मिक सुख महसूस करते हुए पता चलता रहता है कि ‘मैं आध्यात्मिक सुख महसूस कर रहा हूँ।’ भौतिक दर्द महसूस करते हुए पता चलता रहता है कि ‘मैं भौतिक दर्द महसूस कर रहा हूँ।’ आध्यात्मिक दर्द महसूस करते हुए पता चलता रहता है कि ‘मैं आध्यात्मिक दर्द महसूस कर रहा हूँ।’ भौतिक नसुख-नदर्द महसूस करते हुए पता चलता रहता है कि ‘मैं भौतिक नसुख-नदर्द महसूस कर रहा हूँ।’ आध्यात्मिक नसुख-नदर्द महसूस करते हुए पता चलता रहता है कि ‘मैं आध्यात्मिक नसुख-नदर्द महसूस कर रहा हूँ।’

इस तरह वह अपनी संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है; अथवा अपनी व बाहरी संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है। अथवा संवेदना का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा संवेदना का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा संवेदना का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह संवेदना है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है।


«चित्तानुपस्सना»

और फिर भिक्षुओं, भिक्षु चित्त को चित्त देखते हुए कैसे रहता है? यहाँ भिक्षु को रागपूर्ण चित्त [साफ़ तौरपर] पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित «सङखित्त» चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा «विक्खित्त» चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’

बढ़ा हुआ «महग्गत» चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा «अमहग्गत» चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर «उत्तर» चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर «अनुत्तर» चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’

इस तरह वह अपने चित्त को चित्त देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी चित्त को चित्त देखते हुए रहता है; अथवा अपने व बाहरी चित्त को चित्त देखते हुए रहता है। अथवा चित्त का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा चित्त का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा चित्त का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह चित्त है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु चित्त को चित्त देखते हुए रहता है।


«धम्मानुपस्सना—नीवरण»

और फ़िर भिक्षुओं, भिक्षु स्वभाव को स्वभाव देखते हुए कैसे रहता है? यहाँ कोई भिक्षु पाँच व्यवधान «पञ्च नीवरण» स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है।

• यहाँ भिक्षु को भीतर कामेच्छा होने पर [साफ़ तौरपर] पता चलता है कि “मेरे भीतर कामेच्छा है।” अथवा कामेच्छा न होने पर पता चलता है कि “मेरे भीतर कामेच्छा नहीं है।” कैसे अनुत्पन्न कामेच्छा की उत्पत्ति होती है, उसे पता चलता है। कैसे उत्पन्न कामेच्छा खत्म होती है, उसे पता चलता है। और कैसे खत्म हुई कामेच्छा की दुबारा उत्पत्ति न होगी, उसे पता चलता है।

• भीतर दुर्भावना होने पर उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर दुर्भावना है।” अथवा दुर्भावना न होने पर पता चलता है कि “मेरे भीतर दुर्भावना नहीं है।” कैसे अनुत्पन्न दुर्भावना की उत्पत्ति होती है, उसे पता चलता है। कैसे उत्पन्न दुर्भावना खत्म होती है, उसे पता चलता है। और कैसे खत्म हुई दुर्भावना की दुबारा उत्पत्ति न होगी, उसे पता चलता है।

• भीतर सुस्ती व तंद्रा होने पर उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर सुस्ती व तंद्रा है।” अथवा सुस्ती व तंद्रा न होने पर पता चलता है कि “मेरे भीतर सुस्ती व तंद्रा नहीं है।” कैसे अनुत्पन्न सुस्ती व तंद्रा की उत्पत्ति होती है, उसे पता चलता है। कैसे उत्पन्न सुस्ती व तंद्रा खत्म होती है, उसे पता चलता है। और कैसे खत्म हुई सुस्ती व तंद्रा की दुबारा उत्पत्ति न होगी, उसे पता चलता है।

• भीतर बेचैनी व पश्चाताप होने पर उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर बेचैनी व पश्चाताप है”। अथवा बेचैनी व पश्चाताप न होने पर पता चलता है कि “मेरे भीतर बेचैनी व पश्चाताप नहीं है।” कैसे अनुत्पन्न बेचैनी व पश्चाताप की उत्पत्ति होती है, उसे पता चलता है। कैसे उत्पन्न बेचैनी व पश्चाताप खत्म होती है, उसे पता चलता है। और कैसे खत्म हुई बेचैनी व पश्चाताप की दुबारा उत्पत्ति न होगी, उसे पता चलता है।

• भीतर अनिश्चितता होने पर उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर अनिश्चितता है।” अथवा अनिश्चितता न होने पर पता चलता है कि “मेरे भीतर अनिश्चितता नहीं है।” कैसे अनुत्पन्न अनिश्चितता की उत्पत्ति होती है, उसे पता चलता है। कैसे उत्पन्न अनिश्चितता खत्म होती है, उसे पता चलता है। और कैसे खत्म हुई अनिश्चितता की दुबारा उत्पत्ति न होगी, उसे पता चलता है।

इस तरह वह अपने स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा अपने व बाहरी स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा स्वभाव का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा स्वभाव का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा स्वभाव का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह स्वभाव है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु पाँच व्यवधान स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है।


«खन्ध»

और फ़िर भिक्षुओं, भिक्षु पाँच आधार-संग्रह «पञ्च उपादानक्खन्ध» स्वभावों को स्वभाव देखते हुए कैसे रहता है?

कोई भिक्षु [पता करता है]—‘यह रूप है; यह रूप की उत्पत्ति है; यह रूप की विलुप्ती है। यह संवेदना है; यह संवेदना की उत्पत्ति है; यह संवेदना की विलुप्ती है। यह नज़रिया [नज़रिया] है; यह नज़रिया की उत्पत्ति है; यह नज़रिया की विलुप्ती है। यह रचना है; यह रचना की उत्पत्ति है; यह रचना की विलुप्ती है। यह चैतन्यता है; यह चैतन्यता की उत्पत्ति है; यह चैतन्यता की विलुप्ती है।’3

इस तरह वह अपने स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा अपने व बाहरी स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा स्वभाव का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा स्वभाव का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा स्वभाव का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह स्वभाव है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु पाँच आधार संग्रह स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है।


«आयतन»

फ़िर भिक्षु छह भीतरी-बाहरी आयाम स्वभावों को स्वभाव देखते हुए कैसे रहता है?

• यहाँ भिक्षु आँख [साफ़ तौरपर] पता करता है; रूप पता करता है; दोनों पर आधारित जो बंधन «संयोजन» पैदा होता है, उसे पता करता है। अनुत्पन्न बंधन कैसे उत्पन्न होता है, वह पता करता है। उत्पन्न बंधन कैसे छोड़ा जाता है, वह पता करता है। और छूटा बंधन कैसे दुबारा उत्पन्न न हो, वह पता करता है।

• वह कान पता करता है; आवाज़ पता करता है; दोनों पर आधारित जो बंधन पैदा होता है, उसे पता करता है। अनुत्पन्न बंधन कैसे उत्पन्न होता है, वह पता करता है। उत्पन्न बंधन कैसे छोड़ा जाता है, वह पता करता है। और छूटा बंधन कैसे दुबारा उत्पन्न न हो, वह पता करता है।

• वह नाक पता करता है; गंध पता करता है; दोनों पर आधारित जो बंधन पैदा होता है, उसे पता करता है। अनुत्पन्न बंधन कैसे उत्पन्न होता है, वह पता करता है। उत्पन्न बंधन कैसे छोड़ा जाता है, वह पता करता है। और छूटा बंधन कैसे दुबारा उत्पन्न न हो, वह पता करता है।

• वह जीभ पता करता है; स्वाद पता करता है; दोनों पर आधारित जो बंधन पैदा होता है, उसे पता करता है। अनुत्पन्न बंधन कैसे उत्पन्न होता है, वह पता करता है। उत्पन्न बंधन कैसे छोड़ा जाता है, वह पता करता है। और छूटा बंधन कैसे दुबारा उत्पन्न न हो, वह पता करता है।

• वह काया पता करता है; संस्पर्श पता करता है; दोनों पर आधारित जो बंधन पैदा होता है, उसे पता करता है। अनुत्पन्न बंधन कैसे उत्पन्न होता है, वह पता करता है। उत्पन्न बंधन कैसे छोड़ा जाता है, वह पता करता है। और छूटा बंधन कैसे दुबारा उत्पन्न न हो, वह पता करता है।

• वह मन पता करता है; स्वभाव पता करता है; दोनों पर आधारित जो बंधन पैदा होता है, उसे पता करता है। अनुत्पन्न बंधन कैसे उत्पन्न होता है, वह पता करता है। उत्पन्न बंधन कैसे छोड़ा जाता है, वह पता करता है। और छूटा बंधन कैसे दुबारा उत्पन्न न हो, वह पता करता है।

इस तरह वह अपने स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा अपने व बाहरी स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा स्वभाव का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा स्वभाव का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा स्वभाव का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह स्वभाव है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु छह भीतरी-बाहरी आयाम स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है।


«बोज्झङग»

फिर भिक्षु सात संबोधि-अंग स्वभावों को स्वभाव देखते हुए कैसे रहता है?

• यहाँ भिक्षु में भीतर स्मृति संबोधिअंग हो, तो उसे [साफ़ तौरपर] पता चलता है कि “मेरे भीतर स्मृति संबोधिअंग है।” अथवा भीतर स्मृति संबोधिअंग न हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर स्मृति संबोधिअंग नहीं है।” अनुत्पन्न स्मृति संबोधिअंग कैसे उत्पन्न होता है, उसे पता चलता है। और उत्पन्न स्मृति संबोधिअंग विकसित होकर परिपूर्ण कैसे होता है, उसे पता चलता है।

• भीतर स्वभाव-जाँच संबोधिअंग हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर स्वभाव-जाँच संबोधिअंग है।” अथवा भीतर स्वभाव-जाँच संबोधिअंग न हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर स्वभाव-जाँच संबोधिअंग नहीं है।” अनुत्पन्न स्वभाव-जाँच संबोधिअंग कैसे उत्पन्न होता है, उसे पता चलता है। और उत्पन्न स्वभाव-जाँच संबोधिअंग विकसित होकर परिपूर्ण कैसे होता है, उसे पता चलता है।

• भीतर ऊर्जा संबोधिअंग हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर ऊर्जा संबोधिअंग है।” अथवा भीतर ऊर्जा संबोधिअंग न हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर ऊर्जा संबोधिअंग नहीं है।” अनुत्पन्न ऊर्जा संबोधिअंग कैसे उत्पन्न होता है, उसे पता चलता है। और उत्पन्न ऊर्जा संबोधिअंग विकसित होकर परिपूर्ण कैसे होता है, उसे पता चलता है।

• भीतर प्रफुल्लता संबोधिअंग हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर प्रफुल्लता संबोधिअंग है।” अथवा भीतर प्रफुल्लता संबोधिअंग न हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर प्रफुल्लता संबोधिअंग नहीं है।” अनुत्पन्न प्रफुल्लता संबोधिअंग कैसे उत्पन्न होता है, उसे पता चलता है। और उत्पन्न प्रफुल्लता संबोधिअंग विकसित होकर परिपूर्ण कैसे होता है, उसे पता चलता है।

• भीतर प्रशान्ति संबोधिअंग हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर प्रशान्ति संबोधिअंग है।” अथवा भीतर प्रशान्ति संबोधिअंग न हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर प्रशान्ति संबोधिअंग नहीं है।” अनुत्पन्न प्रशान्ति संबोधिअंग कैसे उत्पन्न होता है, उसे पता चलता है। और उत्पन्न प्रशान्ति संबोधिअंग विकसित होकर परिपूर्ण कैसे होता है, उसे पता चलता है।

• भीतर समाधि संबोधिअंग हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर समाधि संबोधिअंग है।” अथवा भीतर समाधि संबोधिअंग न हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर समाधि संबोधिअंग नहीं है।” अनुत्पन्न समाधि संबोधिअंग कैसे उत्पन्न होता है, उसे पता चलता है। और उत्पन्न समाधि संबोधिअंग विकसित होकर परिपूर्ण कैसे होता है, उसे पता चलता है।

• भीतर तटस्थता संबोधिअंग हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर तटस्थता संबोधिअंग है।” अथवा भीतर तटस्थता संबोधिअंग न हो, तो उसे पता चलता है कि “मेरे भीतर तटस्थता संबोधिअंग नहीं है।” अनुत्पन्न तटस्थता संबोधिअंग कैसे उत्पन्न होता है, उसे पता चलता है। और उत्पन्न तटस्थता संबोधिअंग विकसित होकर परिपूर्ण कैसे होता है, उसे पता चलता है।

इस तरह वह अपने स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा बाहरी स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा अपने व बाहरी स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा स्वभाव का उत्पत्ति-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा स्वभाव का व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है; अथवा स्वभाव का उत्पत्ति व व्यय-स्वभाव देखते हुए रहता है। अथवा उसकी स्मृति स्थापित हो जाती है—‘यह स्वभाव है।’ और जब तक यह ज्ञान, यह याद बनी रहती है, वह अनाश्रित होकर रहता है। दुनिया का आधार नहीं लेता। इस तरह कोई भिक्षु सात संबोधिअंग स्वभावों को स्वभाव देखते हुए रहता है।


अब भिक्षुओं, जो इन चार स्मृतिप्रस्थान का इस तरह ७ वर्षों तक अभ्यास करें, उसे दो में से एक फ़ल अपेक्षित है—अभी यही परमज्ञान «अञ्ञा» [=अरहंतफल], अथवा आधार शेष बचने पर अनागामिता [=अनागामिफल]।

अरे छोड़ो ७ वर्ष भिक्षुओं! जो इन चार स्मृतिप्रस्थान का इस तरह ६ वर्षों तक… ५ वर्षों तक… ४ वर्षों तक… ३ वर्षों तक… २ वर्षों तक… १ वर्ष तक… ७ महीने तक अभ्यास करें, उसे दो में से एक फ़ल अपेक्षित है—अभी यही परमज्ञान, अथवा आधार शेष बचने पर अनागामिता।

अरे छोड़ो ७ महीने भिक्षुओं! जो इन चार स्मृतिप्रस्थान का इस तरह ६ महीने तक… ५ महीने तक… ४ महीने तक… ३ महीने तक… २ महीने तक… १ महीने तक… आधे महीने तक… मात्र ७ दिनों तक अभ्यास करें, उसे दो में से एक फ़ल अपेक्षित है—अभी यही परमज्ञान, अथवा आधार शेष बचने पर अनागामिता।

यह चार स्मृतिप्रस्थान एकतरफ़ा मार्ग है भिक्षुओं—सत्वों की विशुद्धि के लिए, शोक विलाप लाँघने के लिए, दर्द व्यथा विलुप्त करने के लिए, सही तरीक़ा पाने के लिए, निर्वाण साक्षात्कार के लिए। यह जो कहा, इस बारे में कहा है।

«मा.नि.१०»


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  1. एकायनो मग्गो’ का अनुवाद अनेक दशकों तक ‘इकलौता मार्ग’ जैसे होता था। किंतु भन्ते ञाणमोली के पश्चात अनुवादकों ने उसके पूर्वसंदर्भ की ओर गौर किया, और पाया कि दरअसल उसका अर्थ है—ऐसा रास्ता जो मात्र एक ही मंज़िल पर ले जाए, जिसमे भिन्न दिशाओं में दुसरे रास्तें न खुलते हो। आजकल ठीक वन वे की तरह। ↩︎

  2. मा.नि.४४ के अनुसार आती-जाती साँस या आश्वास-प्रश्वास ही कायिक-रचना होती है। भिन्न-भिन्न तरह से साँस लेकर हम भिन्न-भिन्न तरह से शरीर महसूस करते है, और उसकी रचना करते है। ↩︎

  3. पञ्चउपादानक्खन्ध की उत्पत्ति व विलुप्ति के लिए अध्याय ८ के पृष्ठ १२६ ‘समाधि विकसित करों’ पाठ देखें। ↩︎