ब्रह्मविहारादि
~ ब्रह्मविहार, चेतोविमुक्ति, आनापान, समथ-विपस्सना इत्यादि ~
करणीय मेत्ता —
ध्येयकुशल सन्तपद-अभिलाषी को यह करना चाहिए—
सक्षम, सीधा और स्पष्टवादी हो। आज्ञाधारक और सौम्य बने। अभिमानी न हो। संतुष्ट रहे। सहज पालनेयोग्य रहे। कम ज़िम्मेदारियाँ, कम रख-रखाव रखे। शान्तइंद्रियों के साथ निपुण व विनम्र बने। कुल-परिवारों के प्रति लालची न हो। ऐसा कृत्य कदापि न करें, जिसे देख समझदार लोग निंदा करें।
[मङ्गलकामना करें:] ‘सभी सत्व सुखपूर्ण व सुरक्षित होकर सुखी हो! जो भी प्राणी अस्तित्व में हो—चाहे दुर्बल हो या बलवान, लंबे विशाल मध्यम छोटे सूक्ष्म या स्थूल, दृश्य हो या अदृश्य, समीप हो या दूर, जन्में हो या जन्म-संभावित—सभी सत्व सुखी हो! कोई किसी के साथ धोखाधड़ी न करें, या कही किसी की घृणा न करें! क्रोधित हो या चिढ़कर किसी के प्रति दुःख की कामना न करें!’
जैसे माता अपने इकलौते पुत्र की रक्षा हेतु अपना जीवन कुर्बान करें—उसी तरह सभी सत्वों के प्रति ‘अपरिमित मानस’ की साधना करें! समस्त दुनिया के प्रति ‘मैत्रीपूर्ण अपरिमित मानस’ की साधना करें! ऊपर, नीचे, सभी ओर—बिना बाधा, बिना बैर, बिना दुर्भावना के—खड़े चलते बैठते लेटते—जब तक आलस्य न छूटे, मात्र इसी नज़रिए का अधिष्ठान बनाए रखने को अभी यही ‘ब्रह्मविहार’ करना कहते है।
मिथ्यादृष्टि में न पड़ा ऐसा शीलवान, सम्यकदर्शन-संपन्न व्यक्ति—कामुकता हटाकर पुनः गर्भ में नहीं पड़ेगा।
«खुद्दकपाठ ९»
मेत्ता करनेवाले में ग्यारह विशेषताएं आती है— वह—सुख से सोता है। सुख से जागता है। पाप-स्वप्न नहीं देखता। मनुष्यों का प्रिय होता है। अ-मनुष्यों का प्रिय होता है। देवता रक्षा करते है। अग्नि विष या शस्त्र मार न पाते। चित्त तुरंत समाधिस्त होता है। चेहरे का रंग खिलता है। बेहोशी में मौत न होती। परमार्थ न भेद पाए, तब भी ब्रह्मलोक जाता है। «अं.नि.११:१६»
ब्रह्मविहार चेतोविमुत्ति • भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा छोड़, दुर्भावना छोड़, भ्रम छोड़, सचेत व स्मरणशील होकर मैत्रीपूर्ण चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में… ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… बिना बैर, बिना दुर्भावना के विस्तृत, विशालकाय, अपरिमित मैत्रीपूर्ण चित्त इस सर्वव्यापी ब्रह्मांड में फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। जैसे कोई बलवान पुरुष ज़ोरदार शंखनाद कर सरलतापूर्वक सभी दिशाओं को सूचित करें। उसी तरह भिक्षु मेत्ता चेतोविमुक्ति की साधना करें, बार-बार करें तो सीमित पापकर्म नहीं टिक पाते, नहीं रह पाते। • भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा छोड़, दुर्भावना छोड़, भ्रम छोड़, सचेत व स्मरणशील होकर करुणापूर्ण चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में… ऊपर… नीचे… तत्र-सर्वत्र… बिना बैर, बिना दुर्भावना के विस्तृत, विशालकाय, अपरिमित करुणापूर्ण चित्त सर्वव्यापी ब्रह्मांड में फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। जैसे बलवान पुरुष ज़ोरदार शंखनाद कर सरलतापूर्वक सभी दिशाओं को सूचित करें। उसी तरह भिक्षु करुणा चेतोविमुक्ति की साधना करें, बार-बार करें तो सीमित पापकर्म नहीं टिक पाते, नहीं रह पाते। • भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा छोड़, दुर्भावना छोड़, भ्रम छोड़, सचेत व स्मरणशील होकर प्रसन्न चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में… ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… बिना बैर, बिना दुर्भावना के विस्तृत, विशालकाय, अपरिमित प्रसन्न चित्त इस सर्वव्यापी ब्रह्मांड में फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। जैसे बलवान पुरुष ज़ोरदार शंखनाद कर सरलतापूर्वक सभी दिशाओं को सूचित करें। उसी तरह भिक्षु मुदिता चेतोविमुक्ति की साधना करें, बार-बार करें तो सीमित पापकर्म नहीं टिक पाते, नहीं रह पाते। • भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा छोड़, दुर्भावना छोड़, भ्रम छोड़, सचेत व स्मरणशील होकर तटस्थ चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में… ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… बिना बैर, बिना दुर्भावना के विस्तृत, विशालकाय, अपरिमित तटस्थ चित्त इस सर्वव्यापी ब्रह्मांड में फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। जैसे बलवान पुरुष ज़ोरदार शंखनाद कर सरलतापूर्वक सभी दिशाओं को सूचित करें। उसी तरह भिक्षु तटस्थता चेतोविमुक्ति की साधना करें, बार-बार करें तो सीमित पापकर्म नहीं टिक पाते, नहीं रह पाते। «सं.नि.४२:८»
• मेत्ता चेतोविमुक्ति कैसे विकसित होती है? उसका ध्येय क्या है? उसकी ऊँचाई क्या है? उसका पुरस्कार एवं परिपूर्णता क्या है? कोई भिक्षु मैत्री के साथ स्मृति संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह मैत्री के साथ स्वभाव-जाँच संबोधिअंग… ऊर्जा संबोधिअंग… प्रफुल्लता संबोधिअंग… प्रशान्ति संबोधिअंग… समाधि संबोधिअंग… तटस्थता संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह घिनौनी उपस्थिति में जब चाहे ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है। वह घिनरहित उपस्थिति में जब चाहे ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है। वह घिनौनी व घिनरहित दोनों की उपस्थिति में जब चाहे, मात्र ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है, या मात्र ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है, या वह जब चाहे दोनों हटाकर ‘तटस्थ सचेत व स्मरणशील’ होकर रहता है। या वह ‘अच्छाई विमोक्ष’ में प्रवेश कर रहता है। जिसने आगे अधिक न भेदन किया हो, मैं कहता हूँ, उसके लिए मेत्ता चेतोविमुक्ति की ऊँचाई अच्छाई विमोक्ष छूती है। • करुणा चेतोविमुक्ति कैसे विकसित होती है? उसका ध्येय क्या है? उसकी ऊँचाई क्या है? उसका पुरस्कार एवं परिपूर्णता क्या है? कोई भिक्षु करुणा के साथ स्मृति संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह करुणा के साथ स्वभाव-जाँच संबोधिअंग… ऊर्जा संबोधिअंग… प्रफुल्लता संबोधिअंग… प्रशान्ति संबोधिअंग… समाधि संबोधिअंग… तटस्थता संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह घिनौनी उपस्थिति में जब चाहे ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है। वह घिनरहित उपस्थिति में जब चाहे ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है। वह घिनौनी व घिनरहित दोनों की उपस्थिति में जब चाहे, मात्र ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है, या मात्र ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है, या वह जब चाहे दोनों हटाकर ‘तटस्थ सचेत व स्मरणशील’ होकर रहता है। या वह रूप नज़रिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नज़रिए ओझल होने पर, विविध नज़रियों पर ध्यान न देकर—‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] ‘अनंत आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। जिसने आगे अधिक न भेदन किया हो, मैं कहता हूँ, उसके लिए करुणा चेतोविमुक्ति की ऊँचाई अनंत आकाश-आयाम विमोक्ष छूती है। • मुदिता चेतोविमुक्ति कैसे विकसित होती है? उसका ध्येय क्या है? उसकी ऊँचाई क्या है? उसका पुरस्कार एवं परिपूर्णता क्या है? कोई भिक्षु प्रसन्नता के साथ स्मृति संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह प्रसन्नता के साथ स्वभाव-जाँच संबोधिअंग… ऊर्जा संबोधिअंग… प्रफुल्लता संबोधिअंग… प्रशान्ति संबोधिअंग… समाधि संबोधिअंग… तटस्थता संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह घिनौनी उपस्थिति में जब चाहे ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है। वह घिनरहित उपस्थिति में जब चाहे ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है। वह घिनौनी व घिनरहित दोनों की उपस्थिति में जब चाहे, मात्र ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है, या मात्र ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है, या वह जब चाहे दोनों हटाकर ‘तटस्थ सचेत व स्मरणशील’ होकर रहता है। या वह अनंत आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर—‘चैतन्यता अनंत है’ [देखते हुए] ‘अनंत चैतन्यता-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। जिसने आगे अधिक न भेदन किया हो, मैं कहता हूँ, उसके लिए मुदिता चेतोविमुक्ति की ऊँचाई अनंत चैतन्यता-आयाम विमोक्ष छूती है। • तटस्थता चेतोविमुक्ति कैसे विकसित होती है? उसका ध्येय क्या है? उसकी ऊँचाई क्या है? उसका पुरस्कार एवं परिपूर्णता क्या है? कोई भिक्षु तटस्थता के साथ स्मृति संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह तटस्थता के साथ स्वभाव-जाँच संबोधिअंग… ऊर्जा संबोधिअंग… प्रफुल्लता संबोधिअंग… प्रशान्ति संबोधिअंग… समाधि संबोधिअंग… तटस्थता संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह घिनौनी उपस्थिति में जब चाहे ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है। वह घिनरहित उपस्थिति में जब चाहे ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है। वह घिनौनी व घिनरहित दोनों की उपस्थिति में जब चाहे, मात्र ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहता है, या मात्र ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहता है, या वह जब चाहे दोनों हटाकर ‘तटस्थ सचेत व स्मरणशील’ होकर रहता है। या वह अनंत चैतन्यता-आयाम पूर्णतः लाँघकर—‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। जिसने आगे अधिक न भेदन किया हो, मैं कहता हूँ, उसके लिए तटस्थता चेतोविमुक्ति की ऊँचाई सूना-आयाम विमोक्ष छूती है। «सं.नि.४६:५४»
राहुल ओवाद 1 • पृथ्वी के अनुरूप साधना करो, राहुल। पृथ्वी के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। जैसे लोग पृथ्वी पर पवित्र-वस्तु रखते है, गंदगी भी डालते है—टट्टी मूत्र थूंक पीब या रक्त भी! परंतु पृथ्वी खौफ़ लज्जा व घिन महसूस नहीं करती। उसी तरह जब तुम पृथ्वी के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। • जल के अनुरूप साधना करो, राहुल। जल के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। जैसे लोग जल में पवित्र-वस्तु धोते है, गंदगी भी धोते है—टट्टी मूत्र थूंक पीब या रक्त भी! परंतु जल खौफ़ लज्जा व घिन महसूस नहीं करती। उसी तरह जब तुम जल के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। • अग्नि के अनुरूप साधना करो, राहुल। अग्नि के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। जैसे लोग अग्नि में पवित्र-वस्तु जलाते है, गंदगी भी जलाते है—टट्टी मूत्र थूंक पीब या रक्त भी! परंतु अग्नि खौफ़ लज्जा व घिन महसूस नहीं करती। उसी तरह जब तुम अग्नि के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। • वायु के अनुरूप साधना करो, राहुल। वायु के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। जैसे वायु पवित्र-वस्तुएँ छूकर बहती है, गंदगी भी छूकर बहती है—टट्टी मूत्र थूंक पीब या रक्त भी! परंतु वायु खौफ़ लज्जा व घिन महसूस नहीं करती। उसी तरह जब तुम वायु के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। • आकाश के अनुरूप साधना करो, राहुल। आकाश के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। जैसे आकाश में कुछ स्थापित नहीं होता! उसी तरह जब तुम आकाश के अनुरूप साधना करोगे, तो इंद्रियों पर टकराते प्रिय-अप्रिय स्पर्श तुम्हारे चित्त को वशीभूत न कर पाएँगे। • मेत्ता की साधना करो, राहुल। मेत्ता की साधना करने पर दुर्भावना छूट जाएगी। • करूणा की साधना करो, राहुल। करूणा की साधना करने पर हिंसक वृत्ति छूट जाएगी। • मुदिता की साधना करो, राहुल। मुदिता की साधना करने पर बोरियत छूट जाएगी। • तटस्थता की साधना करो, राहुल। तटस्थता की साधना करने पर चिड़चिड़ छूट जाएगी। • अनाकर्षक की साधना करो, राहुल। अनाकर्षक की साधना करने पर राग छूट जाएगा। • अनित्य नज़रिए की साधना करो, राहुल। अनित्य नज़रिए की साधना करने पर “मैं हूँ” अहंभाव «अस्मिमान» छूट जायेगा। • आनापान-स्मृति की साधना करो, राहुल। आनापान-स्मृति की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। कैसे? भिक्षु जंगल में, पेड़ तले या ख़ालीगृह जाकर पालथी मारकर, शरीर सीधा रख, स्मरणशील होकर बैठता है। स्मरणशील होकर वह साँस लेता है। स्मरणशील होकर वह साँस छोड़ता है। • लंबी-साँस लेते हुए उसे पता चलता «पजानाति» है कि ‘मैं लंबी-साँस ले रहा हूँ।’ लंबी-साँस छोड़ते हुए पता चलता है कि ‘मैं लंबी-साँस छोड़ रहा हूँ।’ • छोटी-साँस लेते हुए उसे पता चलता है कि ‘मैं छोटी-साँस ले रहा हूँ।’ छोटी-साँस छोड़ते हुए पता चलता है कि ‘मैं छोटी-साँस छोड़ रहा हूँ।’ • संपूर्ण शरीर महसूस करते हुए वह साँस लेना सीखता «सिक्खति» है। संपूर्ण शरीर महसूस करते हुए वह साँस छोड़ना सीखता है। • कायिक-रचना शान्त करते हुए वह साँस लेना सीखता है। कायिक-रचना शान्त करते हुए वह साँस छोड़ना सीखता है। • प्रफुल्लता महसूस करते हुए वह साँस लेना सीखता है। प्रफुल्लता महसूस करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • सुख महसूस करते हुए साँस लेना सीखता है। सुख महसूस करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • चित्त-रचना महसूस करते हुए साँस लेना सीखता है। चित्त-रचना महसूस करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • चित्त-रचना शान्त करते हुए साँस लेना सीखता है। चित्त-रचना शान्त करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • चित्त महसूस करते हुए साँस लेना सीखता है। चित्त महसूस करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • चित्त प्रसन्न करते हुए साँस लेना सीखता है। चित्त प्रसन्न करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • चित्त स्थिर करते हुए साँस लेना सीखता है। चित्त स्थिर करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • चित्त विमुक्त करते हुए साँस लेना सीखता है। चित्त विमुक्त करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • अनित्य स्वभाव देखते हुए साँस लेना सीखता है। अनित्य स्वभाव देखते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • वैराग्य लेते हुए साँस लेना सीखता है। वैराग्य लेते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • निरोध करते हुए साँस लेना सीखता है। निरोध करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। • त्यागते हुए साँस लेना सीखता है। त्यागते हुए साँस छोड़ना सीखता है। राहुल, आनापान-स्मृति की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। इस तरह जब कोई आनापान-स्मृति की साधना करता है, बार-बार करता है, तो अंतिम-साँस छूटते हुए भी उसे पता चलता है। वह अंजान नहीं रहता। «मा.नि.६२»
समथ विपस्सना दुनिया में यह चार तरह के व्यक्ति पाए जाते है। कौन-से चार? • किसी व्यक्ति को भीतर से मानस की निश्चलता «चेतोसमथ» प्राप्त होती है, किंतु ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध नहीं «अधिपञ्ञाधम्मविपस्सनाय»। • किसी व्यक्ति को ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध प्राप्त होता है, किंतु भीतर से मानस की निश्चलता नहीं। • किसी व्यक्ति को न भीतर से मानस की निश्चलता प्राप्त होती है, न ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध ही। • और किसी व्यक्ति को भीतर से मानस की निश्चलता भी प्राप्त होती है, और ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध भी। (१) जिस व्यक्ति को भीतर से मानस की निश्चलता प्राप्त हो, किंतु ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध नहीं—वह ऐसे व्यक्ति के पास जाए जिसे ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध प्राप्त हो, और पूछे—“रचनाओं को कैसे देखें? रचनाओं को कैसे जाँचें? रचनाओं का कैसे अंतर्बोध करें?” तब अगले व्यक्ति ने स्वयं जैसे देखा हो, महसूस किया हो, उस तरह उत्तर देगा—“रचनाओं को इस तरह देखें। रचनाओं को इस तरह जाँचें। रचनाओं का इस तरह अंतर्बोध करें।” तब वह [सुनकर, साधना कर] अंततः ऐसा व्यक्ति बन जाएगा—जिसे भीतर से मानस की निश्चलता भी प्राप्त हो, ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध भी। (२) जिस व्यक्ति को ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध प्राप्त हो, किंतु भीतर से मानस की निश्चलता नहीं—वह ऐसे व्यक्ति के पास जाए जिसे भीतर से मानस की निश्चलता प्राप्त हो, और पूछे—“चित्त को स्थिर कैसे करें? चित्त को स्थित कैसे करें? चित्त को एकाग्र कैसे करें? चित्त को समाहित कैसे करें?” तब अगले व्यक्ति ने स्वयं जैसे देखा हो, महसूस किया हो, उस तरह उत्तर देगा—“चित्त को इस तरह स्थिर करें। चित्त को इस तरह स्थित करें। चित्त को इस तरह एकाग्र करें। चित्त को इस तरह समाहित करें।” तब वह [सुनकर, साधना कर] अंततः ऐसा व्यक्ति बन जाएगा—जिसे ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध भी प्राप्त हो, भीतर से मानस की निश्चलता भी। (३) जिस व्यक्ति को न भीतर से मानस की निश्चलता प्राप्त हो, न ही ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध—वह ऐसे व्यक्ति के पास जाए जिसे भीतर से मानस की निश्चलता भी प्राप्त हो, और ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध भी, और पूछे—“चित्त को स्थिर कैसे करें? चित्त को स्थित कैसे करें? चित्त को एकाग्र कैसे करें? चित्त को समाहित कैसे करें? और रचनाओं को कैसे देखें? रचनाओं को कैसे जाँचें? रचनाओं का कैसे अंतर्बोध करें?” तब अगले व्यक्ति ने स्वयं जैसे देखा हो, महसूस किया हो, उस तरह उत्तर देगा—“चित्त को इस तरह स्थिर करें। चित्त को इस तरह स्थित करें। चित्त को इस तरह एकाग्र करें। चित्त को इस तरह समाहित करें। और रचनाओं को इस तरह देखें। रचनाओं को इस तरह जाँचें। रचनाओं का इस तरह अंतर्बोध करें।” तब वह [सुनकर, साधना कर] अंततः ऐसा व्यक्ति बन जाएगा—जिसे भीतर से मानस की निश्चलता भी प्राप्त हो, ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध भी। (४) और जिस व्यक्ति को भीतर से मानस की निश्चलता भी प्राप्त हो, और ऊँचे अन्तर्ज्ञान द्वारा धर्मस्वभाव का अंतर्बोध भी—उसका कर्तव्य है कि वह बहाव थामने के लिए उन कुशल धर्मस्वभावों को ऊँचा उठाकर स्थापित करने का प्रयास करें। «अं.नि.४:९४»
[आनंद भन्ते:] मित्रों, मेरी उपस्थिति में जब कोई भिक्षु या भिक्षुणी अरहन्तपद प्राप्ति की घोषणा करते है, चार में से किसी एक के ज़रिए करते है। कौन से चार? (१) कोई भिक्षु अंतर्बोधपूर्व निश्चलता विकसित करता है। जब अंतर्बोधपूर्व निश्चलता विकसित करें—तब मार्ग जन्म लेता है। उस मार्गपर वह चलता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है। जब उस मार्गपर वह चलता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, तब उसके बंधन «संयोजन» टूट जाते है, सुप्त-अवस्था «अनुसय» समाप्त हो जाती है। (२) कोई भिक्षु निश्चलतापूर्व अंतर्बोध विकसित करता है। जब निश्चलतापूर्व अंतर्बोध विकसित करें—तब मार्ग जन्म लेता है। उस मार्गपर वह चलता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है। जब उस मार्गपर वह चलता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, तब उसके बंधन टूट जाते है, सुप्त-अवस्था समाप्त हो जाती है। (३) कोई भिक्षु निश्चलता व अंतर्बोध दोनों जोड़कर विकसित करता है। जब निश्चलता व अंतर्बोध जोड़कर विकसित करें—तब मार्ग जन्म लेता है। उस मार्गपर वह चलता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है। जब उस मार्गपर वह चलता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, तब उसके बंधन टूट जाते है, सुप्त-अवस्था समाप्त हो जाती है। (४) और किसी भिक्षु के मानस में ‘धर्म की बेचैनी’2 काबू में होती है। और एक समय आता है जब उसका चित्त भीतर से स्थिर हो जाता है, स्थित हो जाता है, एकाग्र हो जाता है, समाहित हो जाता है—तब मार्ग जन्म लेता है। उस मार्गपर वह चलता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है। जब उस मार्गपर वह चलता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, तब उसके बंधन टूट जाते है, सुप्त-अवस्था समाप्त हो जाती है। मेरी उपस्थिति में जब कोई भिक्षु या भिक्षुणी अरहन्तपद प्राप्ति की घोषणा करते है, इन चार में से किसी एक के ज़रिए करते है। «अं.नि.४:१७०»
अपने पुत्र राहुल को आनापान साधना-विधि सिखाने पूर्व, भगवान ने उसे पाँच धातुओं के प्रति अनात्म-नज़रिए, उनके प्रति तटस्थता, फ़िर चार ब्रह्मविहार चेतोविमुक्ति के पश्चात अशुभ-नज़रिया व अनित्य-नज़रिए की साधना करने कहा। उसे तत्पश्चात ही सोलह क़दमों-वाली आनापान स्मृति साधना सिखाई, जिन्हें आजकल दुर्भाग्यवश भुला दिया गया। सीधे आनापान-साधना पर छलाँग लगानेवाले लोगों में सूक्ष्म नज़रियों के अभाव में चित्त आनापान के लिए अपरिपक्व होता है, और इसलिए उन्हें न आवश्यक सुख मिलता है, न शान्ति, न ही आर्य-फ़ल। दिलचस्पी गवाँकर आख़िर वे ध्यान करना छोड़ देते हैं। भगवान के मूल आनापान-विधि में समथ और विपस्सना साथ जुड़ी है, जिन्हें विभाजित कर अलग नहीं किया जा सकता। वह झान विकसित करती है। उसमें साँस को सक्रियता के साथ इस तरह लेना सीखना होता है, ताकि प्रीति-सुख, संस्कार और चित्त महसूस कर, प्रसन्न कर, स्थिर करने पश्चात तब लाँघा जाए। ↩︎ अट्ठकथा के अनुसार इसका अर्थ है: अंतर्बोध धूमिल होना। ↩︎
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