नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय बारह

दुक्खा पटिपदा

~ जलधातु व वायुधातु प्रभुतावाले लोगों की अतिआवश्यक साधनाएँ ~



चतु पटिपदा

चार प्रगतिपथ होते है, भिक्षुओं—

• कष्टपूर्ण प्रगतिपथ मंद विशिष्ट-ज्ञान,

• कष्टपूर्ण प्रगतिपथ शीघ्र विशिष्ट-ज्ञान,

• सुखपूर्ण प्रगतिपथ मंद विशिष्ट-ज्ञान, तथा

• सुखपूर्ण प्रगतिपथ शीघ्र विशिष्ट-ज्ञान।


(१) यह «दुक्खा पटिपदा दन्धाभिञ्ञा» कष्टपूर्ण प्रगतिपथ मंद विशिष्ट-ज्ञान क्या है?

कोई व्यक्ति सामान्यतः तीव्र रागपूर्ण स्वभाव का होता है, तो वह राग से उत्पन्न दर्द-परेशानी निरंतर महसूस करता है। या वह सामान्यतः तीव्र द्वेषपूर्ण स्वभाव का होता है, तो वह द्वेष से उत्पन्न दर्द—परेशानी निरंतर महसूस करता है। या वह सामान्यतः तीव्र मोहपूर्ण स्वभाव का होता है, तो वह मोह से उत्पन्न दर्द—परेशानी निरंतर महसूस करता है। [=जलधातु प्रभुतावाले व्यक्ति]

तब वह निरंतर «असुभानुपस्सी काये विहरति» काया का अनाकर्षक-पहलु देखते हुए रहता है। «आहारे पटिकूलसञ्ञी» आहार के प्रति प्रतिकूल नज़रियेवाला होता है। «सब्बलोके अनभिरतिसञ्ञी» सभी लोक के प्रति निरस नज़रियेवाला होता है। «सब्बसङखारेसु अनिच्चानुपस्सी» सभी रचनाओं का अनित्य-पहलू देखते हुए रहता है। तथा उसमें मौत-नज़रिया «मरणसञ्ञा» भलीभांति प्रतिष्ठित होता है।

वह सीखते व्यक्ति «सेक्ख» के पाँच बल का निश्रय लेकर रहता है—श्रद्धाबल लज्जाबल फ़िक्रबल ऊर्जाबल व अन्तर्ज्ञानबल।

परंतु उसके पाँच इंद्रिय—श्रद्धाइंद्रिय ऊर्जाइंद्रिय स्मृतिइंद्रिय समाधिइंद्रिय व अन्तर्ज्ञानइंद्रिय—दुर्बलतापूर्वक प्रकट होते है। उस दुर्बलता की वजह से वह बहाव थमने की ओर धीमे पहुँचता है।

— इसे कहते है कष्टपूर्ण प्रगतिपथ मंद विशिष्ट-ज्ञान।


(२) और यह «दुक्खा पटिपदा खिप्पाभिञ्ञा» कष्टपूर्ण प्रगतिपथ शीघ्र विशिष्ट-ज्ञान क्या है?

कोई व्यक्ति सामान्यतः तीव्र रागपूर्ण स्वभाव का होता है, तो वह राग से उत्पन्न दर्द—परेशानी निरंतर महसूस करता है। या वह सामान्यतः तीव्र द्वेषपूर्ण स्वभाव का होता है, तो वह द्वेष से उत्पन्न दर्द—परेशानी निरंतर महसूस करता है। या वह सामान्यतः तीव्र मोहपूर्ण स्वभाव का होता है, तो वह मोह से उत्पन्न दर्द—परेशानी निरंतर महसूस करता है। [=वायुधातु प्रभुतावाले व्यक्ति]

तब वह निरंतर काया का अनाकर्षक-पहलु देखते हुए रहता है। आहार के प्रति प्रतिकूल नज़रियेवाला होता है। सभी लोक के प्रति निरस नज़रियेवाला होता है। सभी रचनाओं का अनित्य-पहलू देखते हुए रहता है। तथा उसमें मौत-नज़रिया भलीभांति प्रतिष्ठित होता है।

वह सीखते व्यक्ति के पाँच बल का निश्रय लेकर रहता है—श्रद्धाबल लज्जाबल फ़िक्रबल ऊर्जाबल व अन्तर्ज्ञानबल।

परंतु उसके पाँच इंद्रिय—श्रद्धाइंद्रिय ऊर्जाइंद्रिय स्मृतिइंद्रिय समाधिइंद्रिय व अन्तर्ज्ञानइंद्रिय—तीव्रता से प्रकट होते है। उस तीव्रता की वजह से वह बहाव थमने की ओर शीघ्र पहुँचता है।

— इसे कहते है कष्टपूर्ण प्रगतिपथ शीघ्र विशिष्ट-ज्ञान।


(३) और यह «सुखा पटिपदा दन्धाभिञ्ञा» सुखपूर्ण प्रगतिपथ मंद विशिष्ट-ज्ञान क्या है?

कोई व्यक्ति सामान्यतः तीव्र रागपूर्ण स्वभाव का नहीं होता, तो वह राग से उत्पन्न दर्द—परेशानी निरंतर महसूस नहीं करता। या वह सामान्यतः तीव्र द्वेषपूर्ण स्वभाव का नहीं होता, तो वह द्वेष से उत्पन्न दर्द—परेशानी निरंतर महसूस नहीं करता। या वह सामान्यतः तीव्र मोहपूर्ण स्वभाव का नहीं होता, तो वह मोह से उत्पन्न दर्द—परेशानी निरंतर महसूस नहीं करता। [=पृथ्वीधातु प्रभुतावाले व्यक्ति]

तब वह काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त—सोच व विचार के साथ निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। फ़िर आगे सोच व विचार रुक जानेपर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहता है। तब आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशील सचेतता के साथ तटस्थता धारणकर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ स्मरणशील सुखविहारी’ कहते है—वह उस तृतीय-झान में प्रवेश कर रहता है। आगे वह सुख दर्द दोनों हटाकर, खुशी व परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता व स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है।

वह सीखते व्यक्ति के पाँच बल का निश्रय लेकर रहता है—श्रद्धाबल लज्जाबल फ़िक्रबल ऊर्जाबल व अन्तर्ज्ञानबल।

परंतु उसके पाँच इंद्रिय—श्रद्धाइंद्रिय ऊर्जाइंद्रिय स्मृतिइंद्रिय समाधिइंद्रिय व अन्तर्ज्ञानइंद्रिय—दुर्बलतापूर्वक प्रकट होते है। उस दुर्बलता की वजह से वह बहाव थमने की ओर धीमे पहुँचता है।

— इसे कहते है सुखपूर्ण प्रगतिपथ मंद विशिष्ट-ज्ञान।


(४) और यह «सुखा पटिपदा खिप्पाभिञ्ञा» सुखपूर्ण प्रगतिपथ शीघ्र विशिष्ट-ज्ञान क्या है?

कोई व्यक्ति सामान्यतः तीव्र-रागपूर्ण स्वभाव का नहीं होता—वह निरंतर राग से उत्पन्न दर्द—परेशानी महसूस नहीं करता। या वह सामान्यतः तीव्र-द्वेषपूर्ण स्वभाव का नहीं होता—वह निरंतर द्वेष से उत्पन्न दर्द—परेशानी महसूस नहीं करता। या वह सामान्यतः तीव्र-मोहपूर्ण स्वभाव का नहीं होता—वह निरंतर मोह से उत्पन्न दर्द—परेशानी महसूस नहीं करता। [=अग्निधातु प्रभुतावाले व्यक्ति]

तब वह काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त—सोच व विचार के साथ निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। फ़िर आगे सोच व विचार रुक जानेपर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहता है। तब आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशील सचेतता के साथ तटस्थता धारणकर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ स्मरणशील सुखविहारी’ कहते है—वह उस तृतीय-झान में प्रवेश कर रहता है। आगे वह सुख दर्द दोनों हटाकर, खुशी व परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता व स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है।

वह सीखते व्यक्ति के पाँच बल का निश्रय लेकर रहता है—श्रद्धाबल लज्जाबल फ़िक्रबल ऊर्जाबल व अन्तर्ज्ञानबल।

परंतु उसके पाँच इंद्रिय—श्रद्धाइंद्रिय ऊर्जाइंद्रिय स्मृतिइंद्रिय समाधिइंद्रिय व अन्तर्ज्ञानइंद्रिय—तीव्रता से प्रकट होते है। उस तीव्रता की वजह से वह बहाव थमने की ओर शीघ्र पहुँचता है।

— इसे कहते है सुखपूर्ण प्रगतिपथ शीघ्र विशिष्ट-ज्ञान।

«अं.नि.४:१६२»


[भन्ते सारिपुत्त और भन्ते महामोग्गलान की आपसी पूछताछ:]

मित्र मोग्गलान, इन चार में से किस प्रगतिपथ पर चलकर तुमने चित्त को बहावों से मुक्त कर आधारमुक्ति पायी?

— मित्र सारिपुत्त, इन चार में से [द्वितीय] ‘कष्टपूर्ण प्रगतिपथ शीघ्र विशिष्ट-ज्ञान’ प्रगतिपथ पर चलकर मैंने चित्त को बहावों से मुक्त कर आधारमुक्ति पायी।… और तुमने किस प्रगतिपथ पर चलकर चित्त को बहावों से मुक्त कर आधारमुक्ति पायी?

— मित्र मोग्गलान, मैंने [चतुर्थ] ‘सुखपूर्ण प्रगतिपथ शीघ्र विशिष्ट-ज्ञान’ प्रगतिपथ पर चलकर चित्त को बहावों से मुक्त कर आधारमुक्ति पायी।

«अं.नि.४:१६७ + ४:१६८»


दुक्खा पटिपदा

असुभानुपस्सी काये विहरति —

भिक्षुओं, अनाकर्षक-नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है। कैसे भिक्षु काया में बदसूरती देखने की साधना करता है?

भिक्षु काया को लेकर इस तरह मनन करता है —

अयं खो मे कायो

मेरी यह काया

उद्धं पादतला

पैर तल से ऊपर,

अधो केस मत्थका

माथे के केश से नीचे,

तच परियन्तो

त्वचा से ढ़की,

पूरो नानप्पकारस्स असुचिनो!

नाना प्रकार की गंदगियों से भरी है!

अत्थि इमस्मिं काये:

मेरी इस काया में है:

केसा लोमा नखा दन्ता तचो

केश लोम नाखून दाँत त्वचा

मंसं न्हारु अट्ठी अट्ठिमिञ्जं वक्कं

माँस नसें हड्डी हड्डीमज्जा तिल्ली

हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं

ह्रदय कलेजा झिल्ली गुर्दा फेफड़ा

अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं मत्थलुङगं

आँत छोटी-आँत उदर टट्टी मस्तिष्क

पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो

पित्त कफ पीब रक्त पसीना चर्बी

अस्सु वसा खेळो सिङघाणिका लसिका मुत्तं!

आँसू तेल थूक बलगम जोड़ो में तरल, एवं मूत्र।

एवं अयं मे कायो

ऐसी है मेरी काया।

उद्धं पादतला

पैर के तल से ऊपर,

अधो केस मत्थका

माथे के केश से नीचे,

तच परियन्तो

त्वचा तक सीमित,

पूरो नानप्पकारस्स असुचिनो!

नाना प्रकार की गंदगियों से भरी है!



— इस तरह भिक्षु काया में गंदगी देखते हुए रहता है। यह ‘अनाकर्षक-नज़रिया’ कहलाता है।

अनाकर्षक-नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।

जब कोई अनाकर्षक-नज़रिए में डूबा रहे, तब मैथुन-कर्म की सोच मात्र से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

जैसे मुर्ग़े का पँख या स्नायु का टुकड़ा आग में डाल दे, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह जब कोई अनाकर्षक-नज़रिए में डूबा रहे, तब मैथुन-कर्म की सोच मात्र से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

किंतु कोई अनाकर्षक-नज़रिए में डूबा रहने पर भी मैथुन-कर्म की सोच से आकर्षित होता हो, या उसमें घिन-भाव न उपस्थित हो—तब वह समझ ले कि ‘मैं अनाकर्षक-नज़रिया विकसित नहीं कर पाया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव नहीं आया। मैंने साधना का फ़ल नहीं पाया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

किंतु कोई अनाकर्षक-नज़रिए में डूबा रहे, और मैथुन-कर्म की सोच मात्र से उसका चित्त दूर सिकुड़े, विपरीत झुके, पीछे हटे, खिंचा न चला जाए; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाए, तब वह समझ ले कि ‘मैंने अनाकर्षक-नज़रिया विकसित कर लिया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने साधना का फ़ल पा लिया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

अनाकर्षक-नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है—ऐसा कहा गया था, जो इस बारे में था।

«अं.नि.१०:६० + अं.नि.७:४६»


आहारे पटिकूलसञ्ञी

भिक्षुओं, आहार-प्रतिकूल नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है। और कैसे भिक्षु आहार-प्रतिकूल नज़रिए की साधना करता है?

चार आहार होते हैं—अस्तित्व पाए सत्वों को पालने के लिए, अथवा जन्म ढूँढते सत्वों को आधार देने के लिए। कौन-से चार? स्थूल या सूक्ष्म भौतिक-आहार, दूसरा संपर्क, तीसरा मनोसंचेतना, तथा चौथा चैतन्यता।

(१) भौतिक-आहार के प्रति कैसा भाव होना चाहिए?

कल्पना करो कि पति-पत्नी की जोड़ी कुछ भोजन बाँधकर रेगिस्तान से गुज़र रही हो। साथ इकलौता पुत्र हो—नवजात प्रिय व आकर्षक। तब उनका भोजन समाप्त हो जाए, किंतु रेगिस्तान का एक हिस्सा पार करना रह जाए। तब वे सोचे—‘हमारा भोजन समाप्त हो गया, किंतु रेगिस्तान का एक हिस्सा पार करना रह गया। क्या हो जो हम अपने इकलौते पुत्र को मार दे, और उसका माँस सुखाकर खाए। हो सकता है हम पति-पत्नी पुत्र-माँस खाकर रेगिस्तान के बचे हिस्से से जीवित निकल पाए। वरना हम तीनों नहीं बचेंगे!’

तब वह अपने इकलौते पुत्र—नवजात प्रिय व आकर्षक, को मार देते है, और उसका माँस सुखाकर खाते है। पुत्र-माँस चबाते हुए वे छाती पीटते है—“ओह! हमारे पुत्र, कहाँ चले गए? ओह! हमारे इकलौते पुत्र, कहाँ चले गए?”

तो क्या लगता है भिक्षुओं? क्या वे पति-पत्नी उस भोजन को मज़े के लिए, या मदहोशी के लिए, या सुडौलता के लिए, या सौंदर्य के लिए खायेंगे?

“नहीं, भन्ते।”

क्या वे उस भोजन को मात्र रेगिस्तान से जीवित बच निकलने के लिए ही नहीं खायेंगे?

“हाँ, भन्ते।”

उसी तरह का भाव, मैं कहता हूँ भिक्षुओं, भौतिक आहार के प्रति होना चाहिए!

जैसे रंग लाख हल्दी नील या लालिमा हो—तभी कोई चित्रकार फ़लक दीवार या कपड़े पर सभी अंगप्रत्यंगों वाला स्त्रीचित्र या पुरुषचित्र रंग पाता है। उसी तरह जहाँ भौतिक आहार के लिए दिलचस्पी, मज़ा व तृष्णा हो, वहाँ चैतन्यता पड़कर बढ़ने लगती है। जहाँ चैतन्यता पड़कर बढ़ने लगे, वहाँ नाम-रूप प्रज्वलित होता है। जहाँ नाम-रूप प्रज्वलित हो, वहाँ रचनाओं की वृद्धि होने लगती है। जहाँ रचनाओं की वृद्धि होने लगे, वहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन होने लगता है। और जहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन होने लगे, वहाँ मैं कहता हूँ—भविष्य में जन्म बुढ़ापा मौत के साथ-साथ शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा भी पीछे लग जाती है।

किंतु, जैसे किसी छतवाले निवास या कक्ष के उत्तर, दक्षिण या पूर्व दिशा में खिड़की हो। जब सूरज उगे, और सूर्यकिरण खिड़की से होकर भीतर प्रवेश करें, तब वह कहाँ पड़ेगी?

“पश्चिमी दीवार पर, भन्ते!”

यदि पश्चिमी दीवार न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“जमीन पर, भन्ते!”

यदि जमीन न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“जल पर, भन्ते!”

और, यदि जल भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“तब कही नहीं, भन्ते!

उसी तरह जहाँ भौतिक आहार के लिए न दिलचस्पी, न मज़ा, न तृष्णा हो, वहाँ चैतन्यता न पड़कर बढ़ने नहीं लगती। जहाँ चैतन्यता न पड़े, न बढ़ने लगे, वहाँ नाम-रूप प्रज्वलित नहीं होता। जहाँ नाम-रूप प्रज्वलित न हो, वहाँ रचनाओं की वृद्धि नहीं होती। जहाँ रचनाओं की वृद्धि न हो, वहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन नहीं होता। और जहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन न हो, वहाँ भविष्य में जन्म बुढ़ापा मौत नहीं होती। उसे मैं कहता हूँ—तब शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा नहीं होती।

जब भौतिक आहार का मूलस्वरूप पता चले, तब पाँच कामगुण के प्रति दिलचस्पी पता चलती है। जब पाँच कामगुण के प्रति दिलचस्पी पता चले, तब कोई बंधन नहीं बचता, जिस वजह भिक्षु दुबारा इस [काम] लोक लौट आए। [=अनागामीफ़ल]


(२) और संपर्क-आहार के प्रति कैसा भाव होना चाहिए?

कल्पना करो कि एक गाय, चमड़ी उधेड़ी हुई, दीवार से सटकर खड़ी हो—तब दीवार के जीवजंतु [उसका उधेड़ा माँस] चबाने टूट पड़े। वह पेड़ से सटकर खड़ी हो, तब पेड़ के जीवजंतु चबाने टूट पड़े। वह जलाशय से सटकर खड़ी हो, तब जलाशय के जीवजंतु चबाने टूट पड़े। वह खुली हवा में खड़ी हो, तब हवा के जीवजंतु चबाने टूट पड़े। वह चमड़ी उधेड़ी गाय जहाँ-जहाँ खड़ी हो, वहाँ-वहाँ के जीवजंतु चबाने टूट पड़े।

उसी तरह का भाव, मैं कहता हूँ भिक्षुओं, [इंद्रिय] संपर्क-आहार के प्रति होना चाहिए!

जैसे रंग लाख हल्दी नील या लालिमा हो—तभी कोई चित्रकार फ़लक दीवार या कपड़े पर सभी अंगप्रत्यंगों वाला स्त्रीचित्र या पुरुषचित्र रंग पाता है। उसी तरह जहाँ संपर्क-आहार के लिए दिलचस्पी, मज़ा व तृष्णा हो, वहाँ चैतन्यता पड़कर बढ़ने लगती है। जहाँ चैतन्यता पड़कर बढ़ने लगे, वहाँ नाम-रूप प्रज्वलित होता है। जहाँ नाम-रूप प्रज्वलित हो, वहाँ रचनाओं की वृद्धि होने लगती है। जहाँ रचनाओं की वृद्धि होने लगे, वहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन होने लगता है। और जहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन होने लगे, वहाँ मैं कहता हूँ—भविष्य में जन्म बुढ़ापा मौत के साथ-साथ शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा भी पीछे लग जाती है।

किंतु, जैसे किसी छतवाले निवास या कक्ष के उत्तर, दक्षिण या पूर्व दिशा में खिड़की हो। जब सूरज उगे, और सूर्यकिरण खिड़की से होकर भीतर प्रवेश करें, तब वह कहाँ पड़ेगी?

“पश्चिमी दीवार पर, भन्ते!”

यदि पश्चिमी दीवार न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“जमीन पर, भन्ते!”

यदि जमीन न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“जल पर, भन्ते!”

और, यदि जल भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“तब कही नहीं, भन्ते!

उसी तरह जहाँ [इंद्रिय] संपर्क-आहार के लिए न दिलचस्पी, न मज़ा, न तृष्णा हो, वहाँ चैतन्यता न पड़कर बढ़ने नहीं लगती। जहाँ चैतन्यता न पड़े, न बढ़ने लगे, वहाँ नाम-रूप प्रज्वलित नहीं होता। जहाँ नाम-रूप प्रज्वलित न हो, वहाँ रचनाओं की वृद्धि नहीं होती। जहाँ रचनाओं की वृद्धि न हो, वहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन नहीं होता। और जहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन न हो, वहाँ भविष्य में जन्म बुढ़ापा मौत नहीं होती। उसे मैं कहता हूँ—तब शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा नहीं होती।

जब संपर्क-आहार का मूलस्वरूप पता चले, तब तीन संवेदनाएँ [सुख, दर्द और नसुख-नदर्द] पता चलती है। जब तीन संवेदनाएँ मूलस्वरूप में पता चले, तब आगे कुछ करने के लिए शेष नहीं बचता। [=अरहन्तफ़ल]


(३) और मनोसंचेतना आहार के प्रति कैसा भाव होना चाहिए?

कल्पना करो कि एक अंगारे भरा गड्ढा हो—पुरुष-लंबाई से गहरा, न लपटे न धुँवा फेकते अंगारों से धधकता हुआ। तब एक पुरुष आए, जिसे अपने प्राण प्यारे हो, मौत से नफ़रत; जिसे सुख की चाह हो, दर्द से घृणा। तब दो बलवान पुरुष आए, और उसकी बाँह पकड़कर घसीटते हुए उसे अंगारेभरे गड्ढे तक लाए।

उस पुरुष की चेतना होगी—दूर हट जाना। उसकी इच्छा होगी—दूर हट जाना। उसकी अभिलाषा होगी—दूर हट जाना। क्यो? क्योंकि वह सोचेगा—‘यदि मैं इस अंगारेभरे गड्ढे में गिर जाऊ, तो उस कारणवश मेरी मौत होगी, या मौत जैसी पीड़ा।’

उसी तरह का भाव, मैं कहता हूँ भिक्षुओं, मनोसंचेतना-आहार के प्रति होना चाहिए।

जैसे रंग लाख हल्दी नील या लालिमा हो—तभी कोई चित्रकार फ़लक दीवार या कपड़े पर सभी अंगप्रत्यंगों वाला स्त्रीचित्र या पुरुषचित्र रंग पाता है। उसी तरह जहाँ मनोसंचेतना-आहार के लिए दिलचस्पी, मज़ा व तृष्णा हो, वहाँ चैतन्यता पड़कर बढ़ने लगती है। जहाँ चैतन्यता पड़कर बढ़ने लगे, वहाँ नाम-रूप प्रज्वलित होता है। जहाँ नाम-रूप प्रज्वलित हो, वहाँ रचनाओं की वृद्धि होने लगती है। जहाँ रचनाओं की वृद्धि होने लगे, वहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन होने लगता है। और जहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन होने लगे, वहाँ मैं कहता हूँ—भविष्य में जन्म बुढ़ापा मौत के साथ-साथ शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा भी पीछे लग जाती है।

किंतु, जैसे किसी छतवाले निवास या कक्ष के उत्तर, दक्षिण या पूर्व दिशा में खिड़की हो। जब सूरज उगे, और सूर्यकिरण खिड़की से होकर भीतर प्रवेश करें, तब वह कहाँ पड़ेगी?

“पश्चिमी दीवार पर, भन्ते!”

यदि पश्चिमी दीवार न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“जमीन पर, भन्ते!”

यदि जमीन न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“जल पर, भन्ते!”

और, यदि जल भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“तब कही नहीं, भन्ते!

उसी तरह जहाँ मनोसंचेतना-आहार के लिए न दिलचस्पी, न मज़ा, न तृष्णा हो, वहाँ चैतन्यता न पड़कर बढ़ने नहीं लगती। जहाँ चैतन्यता न पड़े, न बढ़ने लगे, वहाँ नाम-रूप प्रज्वलित नहीं होता। जहाँ नाम-रूप प्रज्वलित न हो, वहाँ रचनाओं की वृद्धि नहीं होती। जहाँ रचनाओं की वृद्धि न हो, वहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन नहीं होता। और जहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन न हो, वहाँ भविष्य में जन्म बुढ़ापा मौत नहीं होती। उसे मैं कहता हूँ—तब शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा नहीं होती।

जब मनोसंचेतना-आहार का मूलस्वरूप पता चले, तब तीन तरह की तृष्णाएँ [कामतृष्णा, अस्तित्वतृष्णा और अनस्तित्वतृष्णा] पता चलती हैं। जब तीन तरह की तृष्णाएँ मूलस्वरूप में पता चले, तब आगे कुछ करने के लिए शेष नहीं बचता।


(४) चैतन्यता-आहार के प्रति कैसा भाव होना चाहिए?

कल्पना करो कि कोई चोर पकड़ा जाए और राजा के आगे पेश किया जाए। [सैनिक कहें:] “यह अपराधी चोर है, महाराज! आपको जो उचित लगे, दंड दे।”

तब राजा कहता है—“सैनिकों, इसे ले जाओ! सुबह इसे सौ भाले भोंको!” तब उसे सुबह सौ भाले भोंक दिया जाता है।

राजा दोपहर को पूछे—“सैनिकों, क्या हाल है उसका?”

“अब भी जीवित है, महाराज!”

“जाओ, दोपहर को इसे सौ भाले भोंको!” तब उसे दोपहर को सौ भाले भोंक दिया जाता है।

राजा शाम को पूछे—“सैनिकों, क्या हाल है उसका?”

“अब भी जीवित है, महाराज!”

“जाओ, शाम को इसे सौ भाले भोंको!” तब उसे शाम को सौ भाले भोंक दिया जाता है।

— तो क्या लगता है भिक्षुओं? इस तरह तीन सौ भाले भोंक दिए जानेपर क्या उसे उस कारणवश दर्द-पीड़ा होगी?

“भन्ते। यदि मात्र एक भाला भोंक दिया जाए, तो उस कारणवश उसे भयंकर दर्द-पीड़ा होगी। तीन सौ भालों का कहना ही क्या!”

उसी तरह का भाव, मैं कहता हूँ भिक्षुओं, चैतन्यता-आहार के प्रति होना चाहिए!

जैसे रंग लाख हल्दी नील या लालिमा हो—तभी कोई चित्रकार फ़लक दीवार या कपड़े पर सभी अंगप्रत्यंगों वाला स्त्रीचित्र या पुरुषचित्र रंग पाता है। उसी तरह जहाँ चैतन्यता-आहार के लिए दिलचस्पी, मज़ा व तृष्णा हो, वहाँ चैतन्यता पड़कर बढ़ने लगती है। जहाँ चैतन्यता पड़कर बढ़ने लगे, वहाँ नाम-रूप प्रज्वलित होता है। जहाँ नाम-रूप प्रज्वलित हो, वहाँ रचनाओं की वृद्धि होने लगती है। जहाँ रचनाओं की वृद्धि होने लगे, वहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन होने लगता है। और जहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन होने लगे, वहाँ मैं कहता हूँ—भविष्य में जन्म बुढ़ापा मौत के साथ-साथ शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा भी पीछे लग जाती है।

किंतु, जैसे किसी छतवाले निवास या कक्ष के उत्तर, दक्षिण या पूर्व दिशा में खिड़की हो। जब सूरज उगे, और सूर्यकिरण खिड़की से होकर भीतर प्रवेश करें, तब वह कहाँ पड़ेगी?

“पश्चिमी दीवार पर, भन्ते!”

यदि पश्चिमी दीवार न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“जमीन पर, भन्ते!”

यदि जमीन न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“जल पर, भन्ते!”

और, यदि जल भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?

“तब कही नहीं, भन्ते!

उसी तरह जहाँ चैतन्यता-आहार के लिए न दिलचस्पी, न मज़ा, न तृष्णा हो, वहाँ चैतन्यता न पड़कर बढ़ने नहीं लगती। जहाँ चैतन्यता न पड़े, न बढ़ने लगे, वहाँ नाम-रूप प्रज्वलित नहीं होता। जहाँ नाम-रूप प्रज्वलित न हो, वहाँ रचनाओं की वृद्धि नहीं होती। जहाँ रचनाओं की वृद्धि न हो, वहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन नहीं होता। और जहाँ आगे भविष्यकाल के लिए अस्तित्व का पुनरुत्पादन न हो, वहाँ भविष्य में जन्म बुढ़ापा मौत नहीं होती। उसे मैं कहता हूँ—तब शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा नहीं होती।

जब चैतन्यता-आहार का मूलस्वरूप पता चले, तब नाम-रूप पता चलता है। जब नाम-रूप मूलस्वरूप में पता चले, तब कुछ करने के लिए आगे शेष नहीं बचता।

जब कोई आहार-प्रतिकूल नज़रिए में डूबा रहे, तब स्वाद के प्रति तृष्णा मात्र से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि वह तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

जैसे मुर्ग़े का पँख या स्नायु का टुकड़ा आग में डाल दे, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह जब कोई आहार-प्रतिकूल नज़रिए में डूबा रहे, तब स्वाद के प्रति तृष्णा मात्र से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि वह तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

किंतु कोई आहार-प्रतिकूल नज़रिए में डूबा रहने पर भी स्वाद के प्रति तृष्णा से आकर्षित होता हो, या घिन-भाव उपस्थित न हो—तब वह समझ ले कि ‘मैं आहार-प्रतिकूल नज़रिया विकसित नहीं कर पाया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव नहीं आया। मैंने साधना का फ़ल नहीं पाया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

किंतु कोई आहार-प्रतिकूल नज़रिए में डूबा रहे, और स्वाद के प्रति तृष्णा मात्र से उसका चित्त दूर सिकुड़े, विपरीत झुके, पीछे हटे, खिंचा न चला जाए; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाए, तब वह समझ ले कि ‘मैंने आहार-प्रतिकूल नज़रिया विकसित कर लिया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने साधना का फ़ल पा लिया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

आहार-प्रतिकूल नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है—ऐसा कहा गया था, जो इस बारे में था।

«सं.नि.१२:६३ + सं.नि.१२:६४ + अं.नि.७:४६»


सब्बलोके अनभिरतिसञ्ञी

सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिया क्या है?

यदि भिक्षु को किसी दुनिया के प्रति आसक्ति हो, या चित्त का स्थिराव, टिकाव या झुकाव हो—तब उन्हें त्यागकर वह अनासक्त रहता है। यह सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिया कहलाता है।

सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।

जब कोई सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिए में डूबा रहे, तब सांसारिक चकाचौंध से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

जैसे मुर्ग़े का पँख या स्नायु का टुकड़ा आग में डाल दे, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह जब किसी का चित्त सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिए में डूबा रहे, तब सांसारिक चकाचौंध से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

किंतु यदि किसी भिक्षु का चित्त सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिए में डूबा रहने पर भी सांसारिक चकाचौंध से आकर्षित होता हो, या घिन-भाव उपस्थित न हो—तब वह समझ ले कि ‘मैं सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिया विकसित नहीं कर पाया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव नहीं हुआ। मैंने साधना का फ़ल नहीं पाया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

और कोई ‘सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिए’ में डूबा रहे, और ‘सांसारिक चकाचौंध’ से उसका चित्त दूर सिकुड़े, विपरीत झुके, पीछे हटे, खिंचा न चला जाए; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाए—तब वह समझ ले कि ‘मैंने सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिया विकसित कर लिया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने साधना का फ़ल पा लिया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है—ऐसा कहा गया था, जो इस बारे में था।

«अं.नि.१०:६० + अं.नि.७:४६»


सब्बसङखारेसु अनिच्चानुपस्सी

अनित्य-नज़रिया क्या है?

भिक्षु जंगल जाता है, या पेड़ तले जाता है, या ख़ाली जगह जाता है, और चिंतन करता है—‘रूप अनित्य होते है। संवेदनाएँ अनित्य होती है। नज़रिए अनित्य होते है। रचनाएँ अनित्य होती है। चैतन्यताएँ अनित्य होती है।’

इस तरह वह पाँच आधार-संग्रह का अनित्य पहलू देखते हुए रहता है। यह अनित्य-नज़रिया कहलाता है।

अनित्य-नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।

जब कोई अनित्य-नज़रिए में डूबा रहे, तब लाभ सत्कार व कीर्ति से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

जैसे मुर्ग़े का पँख या स्नायु का टुकड़ा आग में डाल दे, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह जब कोई अनित्य-नज़रिए में डूबा रहे, तब लाभ सत्कार व कीर्ति से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

किंतु कोई अनित्य-नज़रिए में डूबा रहने पर भी ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’ से आकर्षित होता हो, या घिन-भाव उपस्थित न हो—तब वह समझ ले कि ‘मैं अनित्य-नज़रिया विकसित नहीं कर पाया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव नहीं आया। मैंने साधना का फ़ल नहीं पाया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

और कोई अनित्य-नज़रिए में डूबा रहे, और लाभ सत्कार व कीर्ति से उसका चित्त दूर सिकुड़े, विपरीत झुके, पीछे हटे, खिंचा न चला जाए; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाए—तब वह समझ ले कि ‘मैंने अनित्य-नज़रिया विकसित कर लिया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने साधना का फ़ल पा लिया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

अनित्य-नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है—ऐसा कहा गया था, जो इस बारे में था।

«अं.नि.१०:६० + अं.नि.७:४६»


«यतो यतो सम्मसति,
खन्धानं उदयब्बयं
लभती पीतिपामोज्जं,
अमतं तं विजानतं»

जैसे जैसे, वह छुए
संग्रह का उदय-व्यय,
मिलती जाए प्रफुल्लता, प्रसन्नता।
जो जानते है, उनका अमृत वही है।

«धम्मपद ३७४»


मरणस्सति

भिक्षुओं, मौत के स्मरण की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है। और कैसे भिक्षु मौत के स्मरण की साधना करता है?

• जब दिन अस्त होकर रात्रि का आगमन हो, तो भिक्षु इस तरह चिंतन करता है—‘मेरी मौत कई कारणों से हो सकती है। मुझे साँप डंस सकता है; बिच्छू डंक मार सकता है; गोजर काट सकती है। उस तरह मेरी मौत हो तो बाधा होगी। मैं लड़खड़ाकर गिर सकता हूँ; खाया-पचाया तकलीफ़ दे सकता है; पित्त कुपित हो सकता है; कफ कुपित हो सकता है; वात कुपित हो सकता है। उस तरह मेरी मौत हो तो बाधा होगी।’

तब भिक्षु सोचता है—‘क्या कोई पाप/अकुशल स्वभाव है जो मुझसे छूटा नहीं, जिससे यदि आज रात मेरी मौत हो तो दुर्गति होगी?’

यदि उसे पता चले कि कोई पाप/अकुशल स्वभाव है जो उससे छूटा नहीं—तब उसे छोड़ने के लिए भिक्षु अत्याधिक चाह प्रयास उत्साह ज़िद लगन स्मरणशीलता व सचेतता उत्पन्न करता है।

जैसे किसी आदमी की पगड़ी या सिर में आग लग जाए, तो वह किस तरह अत्याधिक चाह प्रयास उत्साह ज़िद लगन स्मरणशीलता व सचेतता उत्पन्न कर आग बुझायेगा? उसी तरह पाप/अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए भिक्षु अत्याधिक चाह प्रयास उत्साह ज़िद लगन स्मरणशीलता व सचेतता उत्पन्न करता है।

यदि उसे पता चले कि उसमें कोई पाप/अकुशल स्वभाव नहीं, जो दुर्गति करें—तब उस कारणवश वह प्रसन्नता व प्रफुल्लता में रहें, तथा दिन-रात कुशल स्वभाव में साधनारत रहें।


• तत्पश्चात जब रात्रि अस्त होकर दिन का आगमन हो, तो भिक्षु इस तरह चिंतन करता है—‘मेरी मौत कई कारणों से हो सकती है। मुझे साँप डंस सकता है; बिच्छू डंक मार सकता है; गोजर काट सकती है। उस तरह मेरी मौत हो तो बाधा होगी। मैं लड़खड़ाकर गिर सकता हूँ; खाया-पचाया तकलीफ़ दे सकता है; पित्त कुपित हो सकता है; कफ कुपित हो सकता है; वात कुपित हो सकता है। उस तरह मेरी मौत हो तो बाधा होगी।’

तब भिक्षु सोचता है—‘क्या कोई पाप/अकुशल स्वभाव है जो मुझसे छूटा नहीं, जिससे यदि मेरी आज दिन में मौत हो तो दुर्गति होगी?’

यदि उसे पता चले कि कोई पाप/अकुशल स्वभाव है जो उससे छूटा नहीं—तब उसे छोड़ने के लिए भिक्षु अत्याधिक चाह प्रयास उत्साह ज़िद लगन स्मरणशीलता व सचेतता उत्पन्न करता है।

जैसे किसी आदमी की पगड़ी या सिर में आग लग जाए, तो वह किस तरह अत्याधिक चाह प्रयास उत्साह ज़िद लगन स्मरणशीलता व सचेतता उत्पन्न कर आग बुझायेगा? उसी तरह पाप/अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए भिक्षु अत्याधिक चाह प्रयास उत्साह ज़िद लगन स्मरणशीलता व सचेतता उत्पन्न करता है।

यदि उसे पता चले कि उसमें कोई पाप/अकुशल स्वभाव नहीं, जो दुर्गति करें—तब उस कारणवश वह प्रसन्नता व प्रफुल्लता में रहें, तथा दिन-रात कुशल स्वभाव में साधनारत रहे।

— यह ‘मौत का स्मरण’ कहलाता है।


इस तरह मौत के स्मरण की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।

जब कोई मौत के स्मरण में डूबा रहे, तब जीवन के प्रति जोश से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

जैसे मुर्ग़े का पँख या स्नायु का टुकड़ा आग में डाल दे, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह जब किसी का चित्त मौत के स्मरण में डूबा रहे, तब जीवन के प्रति जोश से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

किंतु मौत के स्मरण में डूबा रहने पर भी कोई जीवन के प्रति जोश से आकर्षित होता हो, या घिन-भाव उपस्थित न हो—तब वह समझ ले कि ‘मैं मौत का स्मरण विकसित नहीं कर पाया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव नहीं आया। मैंने साधना का फ़ल नहीं पाया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

और कोई मौत के स्मरण में डूबा रहे, और जीवन के प्रति जोश से उसका चित्त दूर सिकुड़े, विपरीत झुके, पीछे हटे, खिंचा न चला जाए; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाए—तब वह समझ ले कि ‘मैं मौत का स्मरण विकसित कर लिया। मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने साधना का फ़ल पा लिया।’ इस तरह वह सचेत हो जाए।

मौत के स्मरण की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है—ऐसा कहा गया था, जो इस बारे में था।

«अं.नि.६:२० + अं.नि.७:४६»


भिक्षुओं, ऐसे भिक्षु लापरवाह «प्रमादी» कहलाते है, और मौत के स्मरण की साधना बहाव थामने के लिए धीमे करते है—

• जो मौत के स्मरण की साधना यह सोचते हुए करते है—‘अरे! मैं केवल एक दिन-रात तक भी जीवित बचूँ, और बुद्ध शिक्षा पर ध्यान दे पाऊँ, तो बहुत पा लूँगा!’

• और… जो यह सोचते हुए करते है—‘अरे! मैं केवल दिनभर [=१२ घंटे] भी जीवित बचूँ, और बुद्ध शिक्षा पर ध्यान दे पाऊँ, तो बहुत पा लूँगा!’

• और… जो यह सोचते हुए करते है—‘अरे! मैं केवल भोजन करने तक भी जीवित बचूँ, और बुद्ध शिक्षा पर ध्यान दे पाऊँ, तो बहुत पा लूँगा!’

• और… जो यह सोचते हुए करते है—‘अरे! मैं भोजन के केवल चार निवाले चबाकर निगलने तक भी जीवित बचूँ, और बुद्ध शिक्षा पर ध्यान दे पाऊँ, तो बहुत पा लूँगा!’

— ऐसे भिक्षु लापरवाह कहलाते है, और मौत के स्मरण की साधना बहाव थामने के लिए धीमे करते है।


परंतु —

• जो मौत के स्मरण की साधना यह सोचते हुए करते है—‘अरे! मैं केवल एक निवाला चबाकर निगलने तक भी जीवित बचूँ, और बुद्ध शिक्षा पर ध्यान दे पाऊँ, तो बहुत पा लूँगा!’

• और… जो यह सोचते हुए करते है—‘अरे! मैं साँस लेकर छोड़ने तक भी जीवित बचूँ, या साँस छोड़कर लेने तक भी जीवित बचूँ, और बुद्ध शिक्षा पर ध्यान दे पाऊँ, तो बहुत पा लूँगा!’

ऐसे भिक्षु सतर्क «अप्रमादी» कहलाते है, और मौत के स्मरण की साधना बहाव थामने के लिए तीव्रता से करते है।

इसलिए भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए—‘हम सतर्क रहेंगे! और मौत के स्मरण की साधना बहाव थामने के लिए तीव्रता से करेंगे!’

«अं.नि.६:१९»


जल्द ही यह काया
ज़मीन पर पड़ी मिलेगी,
— चेतनाहीन —
जैसे लकड़ी का अनुपयोगी टुकड़ा।

«धम्मपद ४१»



जीवित-इंद्रिय कटकर,
सभी प्राणियों की मौत होगी।
यह निश्चित है,
जीवन नहीं।

पाँच बल

भिक्षुओं, सीखते व्यक्ति के पाँच बल होते है। कौन-से पाँच? श्रद्धाबल लज्जाबल फ़िक्रबल ऊर्जाबल व अन्तर्ज्ञानबल।

• श्रद्धाबल क्या है?

जैसे किसी राजसी गढ़ पर भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए ध्वजखंभ «एसिका» स्थापित किया जाता है—गहराई तक गड़ा, मज़बूती से स्थापित, अविचल और स्थिर!

उसी तरह भिक्षु ‘श्रद्धा’ स्थापित करता है। तथागत की बोधि को लेकर वह आश्वस्त होता है—‘सच में, भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या व आचरणसंपन्न, सुयशस्वी, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देव व मनुष्य के गुरु, बोधिप्राप्त पवित्र भगवाँ!’

ऐसी ध्वजखंभ-रूपी श्रद्धा स्थापित कर, भिक्षु अकुशल का त्याग करता है, कुशलता को बढ़ाता है। पाप का त्याग करता है, निष्पापता को बढ़ाता है। स्वयं का परिशुद्धतापूर्वक ख्याल रखता है। इस तरह वह श्रद्धासंपन्न रहता है। यही उसका श्रद्धाबल होता है।


• लज्जाबल क्या है?

जैसे कोई राजसी गढ़ भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए गहरी एवं चौड़ी खाई «परिखा» से घिरा होता है।

उसी तरह भिक्षु में लज्जा होती है। उसे कायिक दुराचरण, वाचिक दुराचरण या मानसिक दुराचरण करने में शर्म आती है। वह पाप/अकुशल स्वभाव में लिप्त होने पर लज्जित होता है।

ऐसी खाई-रूपी ‘लज्जा’ में स्थापित हो, भिक्षु अकुशल का त्याग करता है, कुशलता को बढ़ाता है। पाप का त्याग करता है, निष्पापता को बढ़ाता है। स्वयं का परिशुद्धतापूर्वक ख्याल रखता है। इस तरह वह लज्जासंपन्न रहता है। यही उसका लज्जाबल होता है।


• फ़िक्रबल क्या है?

जैसे कोई राजसी गढ़ भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए ऊँचे एवं विस्तृत घेरावमार्ग «अनुपरियायपथो» से घिरा होता है।

उसी तरह भिक्षु फ़िक्रमंदी से घिरा होता है। उसे कायिक दुराचरण, वाचिक दुराचरण या मानसिक दुराचरण करने में डर लगता है। वह पाप/अकुशल स्वभाव में लिप्त होने पर भयभीत होता है।

ऐसी घेरावमार्ग-रूपी ‘फ़िक्र’ से घिरा, भिक्षु अकुशल का त्याग करता है, कुशलता को बढ़ाता है। पाप का त्याग करता है, निष्पापता को बढ़ाता है। स्वयं का परिशुद्धतापूर्वक ख्याल रखता है। इस तरह वह फ़िक्रसंपन्न रहता है। यही उसका फ़िक्रबल होता है।


• ऊर्जाबल क्या है?

जैसे किसी राजसी गढ़ के भीतर भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए शक्तिशाली विशाल सेना «बहुबलकायो पटिवसति» नियुक्त की जाती है—हाथीरोही सेना, अश्वरोही सेना, रथिक सेना, धनुर्धर सेना, ध्वजरोही सेना, निवास-आपूर्ति अधिकारी, भोजन-आपूर्ति सैनिक, लोकप्रिय राजकुमार, छापामार वीर सेना, पैदल सेना, एवं गुलाम सेना!

उसी तरह भिक्षु ऊर्जा बढ़ाकर रहता है—अकुशल स्वभाव त्यागने के लिए, और कुशल स्वभाव धारण करने के लिए। वह निश्चयबद्ध, दृढ़ व पराक्रमी होता है। कुशल स्वभाव के प्रति अपने कर्तव्य से जी नहीं चुराता।

ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना—रूपी ‘ऊर्जा’ बढ़ाकर, भिक्षु अकुशल का त्याग करता है, कुशलता को बढ़ाता है। पाप का त्याग करता है, निष्पापता को बढ़ाता है। स्वयं का परिशुद्धतापूर्वक ख्याल रखता है। इस तरह वह ऊर्जासंपन्न रहता है। यही उसका ऊर्जाबल होता है।


• अन्तर्ज्ञानबल क्या है?

जैसे कोई राजसी गढ़ भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए ऊँची, मोटी व पक्की रक्षार्थ दीवार «पाकारो» से घेरी जाती है।

उसी तरह भिक्षु में आर्य व भेदक अन्तर्ज्ञान होता है—उदय-व्यय पता करने योग्य, दुःखों का सम्यक अंत करानेवाला!

ऐसे पक्के ‘अन्तर्ज्ञान’ से घिरा, भिक्षु अकुशल का त्याग करता है, कुशलता को बढ़ाता है। पाप का त्याग करता है, निष्पापता को बढ़ाता है। स्वयं का परिशुद्धतापूर्वक ख्याल रखता है। इस तरह वह अन्तर्ज्ञानसंपन्न रहता है। यही उसका अन्तर्ज्ञानबल होता है।

— यह सीखते व्यक्ति के पाँच बल है।

इसलिए भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए, ‘हम उस श्रद्धाबल से संपन्न होंगे, जो [धर्म] सीखते व्यक्ति का श्रद्धाबल हो। हम उस लज्जाबल से संपन्न होंगे, जो सीखते व्यक्ति का लज्जाबल हो। हम उस फ़िक्रबल से संपन्न होंगे, जो सीखते व्यक्ति का फ़िक्रबल हो। हम उस ऊर्जाबल से संपन्न होंगे, जो सीखते व्यक्ति का ऊर्जाबल हो। हम उस अन्तर्ज्ञानबल से संपन्न होंगे, जो सीखते व्यक्ति का अन्तर्ज्ञानबल हो।


जैसे गंगा नदी पूरब की ओर बहती है; पूरब की ओर ढलती है; पूरब की ओर ही झुकती है। उसी तरह जब भिक्षु पाँच बलों की साधना करता है, विकसित कर परिपूर्ण करता है—तब वह निर्वाण की ओर बहता है; निर्वाण की ओर ढलता है; निर्वाण की ओर ही झुकता है।

और किस तरह कोई पाँच बलों की साधना करें, विकसित कर परिपूर्ण करें, जिससे वह निर्वाण की ओर बहे.. ढले.. झुके?

जब कोई भिक्षु पाँच बलों की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, बार-बार कर परिपूर्ण करता है, और अंततः उन्हें भी त्याग देता है—तब वह निर्वाण की ओर बहता है, निर्वाण की ओर ढलता है, निर्वाण की ओर झुकता है।

«अं.नि.५:२ + ७:६३»


पाँच इंद्रिय

भिक्षुओं, यह पाँच इंद्रिय है। कौन-से पाँच? श्रद्धाइंद्रिय ऊर्जाइंद्रिय स्मृतिइंद्रिय समाधिइंद्रिय व अन्तर्ज्ञानइंद्रिय।

• श्रद्धाइंद्रिय क्या है?

भिक्षु में श्रद्धा होती है। तथागत की बोधि को लेकर वह आश्वस्त होता है—‘सच में भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या व आचरणसंपन्न, सुयशस्वी, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देव व मनुष्य के गुरु, बोधिप्राप्त पवित्र भगवाँ!’ यह उसकी श्रद्धाइंद्रिय है।

जिसे बुद्ध शिक्षा «बुद्धसासन» पर श्रद्धा हो, जो गहराई भेदने के लिए जीता हो, उसे धर्मानुसार ऐसा लगता है—‘भगवान शास्ता है! मैं तो श्रावक हूँ! भगवान जानते है! मैं नहीं!’ जिसे शास्ता की शिक्षा में श्रद्धा हो, जो गहराई भेदने के लिए जीता हो, उसे शास्ता की शिक्षा स्वास्थ्यवर्धन व पोषण देती है।

जिस भिक्षु को शास्ता की शिक्षा में श्रद्धा हो, जो गहराई भेदने के लिए जीता हो, उसे धर्मानुसार ऐसा लगता है—‘ख़ुशी से अपना रक्त-मांस सूखा दूँ! मात्र नसें व कंकाल ही छोड़ूँ! परंतु जब तक वह न पा लूँ, जिसे पौरुष-दृढ़ता पौरुष-ऊर्जा व पौरुष-प्रयास से पाया जाता है—तब तक मैं अपनी ऊर्जा को राहत नहीं दूँगा!’

जिस भिक्षु को शास्ता की शिक्षा में श्रद्धा हो, जो गहराई भेदने के लिए जीता हो, उसे दो में से एक फ़ल अपेक्षित होता है—अभी यही परमज्ञान [=अरहन्तफ़ल], अथवा आधार शेष बचने पर अनागामिता।

श्रद्धाइंद्रिय कहाँ देखी जाती है?

श्रोतापन्न के चार अंग में। अर्थात—

• सत्पुरुष से संगति होना,

• [परिशुद्ध] सद्धर्म सुनना,

• उचित बात [=आर्यसत्यों] पर गौर करना,

• धर्मानुसार ही धर्म के प्रगतिपथ पर चलना [मन-मुताबिक नहीं]।


• ऊर्जाइंद्रिय क्या है?

भिक्षु ऊर्जा बढ़ाकर रहता है—अकुशल स्वभाव त्यागने के लिए, और कुशल स्वभाव धारण करने के लिए। वह निश्चयबद्ध, दृढ़ व पराक्रमी होता है। कुशल स्वभाव के प्रति अपने कर्तव्य से जी नहीं चुराता।

• अनुत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव आगे उत्पन्न न हो—उसके लिए भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

• उत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए, भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

• अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न करने के लिए, भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

• और उत्पन्न कुशल स्वभाव टिकाए रखने, आगे लाने, वृद्धि करने, प्रचुरता लाने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए, भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

यह उसकी ऊर्जाइंद्रिय है। यही चार सम्यक-प्रधान—समाधि की पूर्वआवश्यकताएँ भी है।


• स्मृतिइंद्रिय क्या है?

जैसे किसी राजसी गढ़ का भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए चतुर समर्थ व बुद्धिमान द्वारपाल «दोवारिको» होता है—जो संदेहास्पद लोगों [~अकुशल स्वभावों] को बाहर रखे, और परिचित भले लोगों [~कुशल स्वभावों] को ही भीतर प्रवेश दे।

उसी तरह भिक्षु स्मरणशील होता है, याददाश्त में बहुत तेज़! पूर्वकाल में की गई, पूर्वकाल में कही गई बात भी स्मरण रखता, तथा अनुस्मरण कर पाता!

तब वह काया को काया देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। चित्त को चित्त देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए। स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है—तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा व नाराज़ी हटाते हुए।

यही चार स्मृतिप्रस्थान—समाधि के निमित्त होते है।

ऐसी द्वारपाल-रूपी स्मृति स्थापित कर, भिक्षु अकुशल का त्याग करता है, कुशलता को बढ़ाता है। पाप का त्याग करता है, निष्पापता को बढ़ाता है। स्वयं का परिशुद्धतापूर्वक ख्याल रखता है। इस तरह वह स्मृतिसंपन्न रहता है। यह उसकी स्मृतिइंद्रिय है।


• समाधिइंद्रिय क्या है?

• कोई भिक्षु त्याग-आलंबन बनाकर समाधि लगाता है, चित्त-एकाग्र करता है। वह काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त—सोच व विचार के साथ निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है।

• फ़िर आगे सोच व विचार रुक जानेपर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहता है।

• तब आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशील सचेतता के साथ तटस्थता धारणकर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ स्मरणशील सुखविहारी’ कहते है—वह उस तृतीय-झान में प्रवेश कर रहता है।

• आगे वह सुख दर्द दोनों हटाकर, खुशी व परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता व स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है।

— यह उसकी समाधिइंद्रिय है।


• अन्तर्ज्ञानइंद्रिय क्या है?

भिक्षु में आर्य व भेदक अन्तर्ज्ञान होता है—उदय-व्यय पता करने योग्य, दुःखों का सम्यक अंत करानेवाला!

यह अन्तर्ज्ञानइंद्रिय कहाँ देखी जाती है?

— चार आर्यसत्यों में!

• ‘यह दुःख है’ उसे मूलस्वरूप पता चलता है।

• ‘यह दुःख उत्पत्ति है’ उसे मूलस्वरूप पता चलता है।

• ‘यह दुःख निरोध है’ उसे मूलस्वरूप पता चलता है।

• ‘यह दुःख निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है’ उसे मूलस्वरूप पता चलता है।

जिस आर्यश्रावक में श्रद्धा हो, जो ऊर्जा बढ़ाकर रहता हो, जिसकी स्मृति स्थापित हो, जिसका चित्त सम्यक रूप से समाहित हो, उससे आशा की जा सकती है कि उसे स्वयं पता चले कि—‘जन्म-जन्मांतरण की शुरुवात सोच के परे है। संसरण की निश्चित शुरुवात पता नहीं चलती, परंतु अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे सत्व जन्म-जन्मांतरण में भटक रहे है। उस अविद्या-रुपी ‘अँधेरे पिंड’ का बिना शेष बचे वैराग्य व निरोध होना—यही शान्ति है! यही सर्वोत्कृष्ट है!—सभी रचनाओं का रुक जाना! सभी अर्जित वस्तुओँ का परित्याग! तृष्णा का अंत! वैराग्य निरोध निर्वाण!’

उसका जो अन्तर्ज्ञान हो, वही उसकी अन्तर्ज्ञानइंद्रिय होती है। यह कुल पाँच इंद्रिय होते है।

«सं.नि.४८:१० + ४८:५० + ५५:५ + अं.नि.७:६३»


जब भिक्षु मात्र एक स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाए, तब उसके पाँचों इंद्रिय विकसित होते है, सुप्रतिष्ठित होते है। कौन-सा एक स्वभाव?

— सतर्कता «अप्पमाद»।

सतर्कता क्या है?

कोई भिक्षु [हमला करते] बहाव, तथा उसके साथ जन्में [अकुशल] स्वभावों के बीच अपने चित्त की रक्षा करता है। इस तरह जब भिक्षु बहाव, तथा उसके साथ जन्में स्वभावों के बीच अपने चित्त की रक्षा करें, तो श्रद्धाइंद्रिय साधना की परिपूर्णता की ओर बढ़ती है… ऊर्जाइंद्रिय… स्मृतिइंद्रिय… समाधिइंद्रिय… अन्तर्ज्ञानइंद्रिय साधना की परिपूर्णता की ओर बढ़ती है।

इस तरह जब भिक्षु मात्र एक स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाए, तो उसके पाँचों इंद्रिय विकसित होते है, सुप्रतिष्ठित होते है।

«सं.नि.४८:५६»


पमादविहारी

भिक्षु लापरवाह होकर कैसे जीता है?

जब भिक्षु आँख-इंद्रिय पर बिना संयम के रहता है, तो दिखाई देते रूपों द्वारा उसका चित्त दूषित होते रहता है। चित्त दूषित हो, तो प्रसन्नता नहीं होती। प्रसन्नता न हो, तो प्रफुल्लता नहीं होती। प्रफुल्लता न हो, तो प्रशान्ति नहीं मिलती। प्रशान्ति न मिले, तो भिक्षु पीड़ा में रहता है। पीड़ा में हो, तो चित्त समाहित नहीं हो पाता। चित्त समाहित न हो, तो धर्मस्वभाव उजागर नहीं होता। जिसे धर्मस्वभाव उजागर न हो, वह बस ‘लापरवाह होकर जीनेवाला’ «पमादविहारी» समझा जाता है।

जब भिक्षु कान-इंद्रिय… नाक-इंद्रिय… जीभ-इंद्रिय… काया-इंद्रिय… मन-इंद्रिय पर बिना संयम के रहता है, तो सुनाई देते आवाज़ों… सुँघाई देते गंधों… पता चलते स्वादों… महसूस होते संस्पर्शों… उत्पन्न होते स्वभावों द्वारा उसका चित्त दूषित होते रहता है। चित्त दूषित हो, तो प्रसन्नता नहीं होती। प्रसन्नता न हो, तो प्रफुल्लता नहीं होती। प्रफुल्लता न हो, तो प्रशान्ति नहीं मिलती। प्रशान्ति न मिले, तो भिक्षु पीड़ा में रहता है। पीड़ा में हो, तो चित्त समाहित नहीं होता। चित्त समाहित न हो, तो धर्मस्वभाव उजागर नहीं होता। जिसे धर्मस्वभाव उजागर न हो, वह बस ‘लापरवाह होकर जीनेवाला’ समझा जाता है।

इस तरह भिक्षु लापरवाह होकर जीता है।


और भिक्षु सतर्क होकर कैसे जीता है?

जब भिक्षु आँख-इंद्रिय पर संयम कर रहता है, तो दिखाई देते रूपों द्वारा उसका चित्त दूषित नहीं होता। जब चित्त दूषित न हो, तो प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी होकर चित्त समाधिस्त हो जाता है। समाहित चित्त में धर्मस्वभाव उजागर होता है। जिसे धर्मस्वभाव उजागर हो, वह बस ‘सतर्क होकर जीनेवाला’ «अप्पमादविहारी» समझा जाता है।

जब भिक्षु कान-इंद्रिय… नाक-इंद्रिय… जीभ-इंद्रिय… काया-इंद्रिय… मन-इंद्रिय पर संयम कर रहता है, तो सुनाई देते आवाज़ों… सुँघाई देते गंधों… पता चलते स्वादों… महसूस होते संस्पर्शों… उत्पन्न होते स्वभावों द्वारा उसका चित्त दूषित नहीं होता। जब चित्त दूषित न हो, तो प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी होकर चित्त समाधिस्त हो जाता है। समाहित चित्त में धर्मस्वभाव उजागर होता है। जिसे धर्मस्वभाव उजागर हो, वह बस ‘सतर्क होकर जीनेवाला’ समझा जाता है।

इस तरह भिक्षु सतर्क होकर जीता है।

«सं.नि.३५:९७»


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