नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय तेरह

अतिरित्त भावना

~ आगे के प्रगतिपथ पर आवश्यक साधनाएँ ~



पटिकुल मनसिकार —

अच्छा होगा यदि भिक्षु ‘घिनौनी स्थिति’ में रहते हुए, सही समय पर घिनरहित पक्ष देखते हुए रहे। अच्छा होगा यदि भिक्षु ‘घिनरहित स्थिति’ में रहते हुए, सही समय पर घिनौना पक्ष देखते हुए रहे। अच्छा होगा यदि भिक्षु ‘घिनौनी व घिनरहित’ दोनों की स्थिति में रहते हुए, सही समय पर मात्र ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहे, या सही समय पर मात्र ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहे, या सही समय पर दोनों हटाकर तटस्थ सचेत व स्मरणशील होकर रहे। ऐसा क्यों करें?

• ‘द्वेष उक़साने वाले स्थिति में कही मुझे द्वेष न जागे’—इस ध्येय से भिक्षु घिनौनी स्थिति में रहते हुए, सही समय पर ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहें।

• ‘दिलचस्पी आने वाले स्थिति में कही मुझे दिलचस्पी न जागे’—इस ध्येय से भिक्षु घिनरहित स्थिति में रहते हुए, सही समय पर ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहें।

• ‘द्वेष उक़साने वाले स्थिति में कही मुझे द्वेष न जागे, और ‘दिलचस्पी आने वाले स्थिति में कही मुझे दिलचस्पी न जागे’—इस ध्येय से भिक्षु घिनौनी व घिनरहित दोनों की स्थिति में रहते हुए, सही समय पर मात्र ‘घिनरहित पक्ष’ देखते हुए रहे।

• ‘दिलचस्पी आने वाले स्थिति में कही मुझे दिलचस्पी न जागे, और द्वेष उक़साने वाले स्थिति में कही मुझे द्वेष न जागे’—इस ध्येय से भिक्षु घिनौनी व घिनरहित दोनों की स्थिति में रहते हुए, सही समय पर मात्र ‘घिनौना पक्ष’ देखते हुए रहे।

• “दिलचस्पी आने वाले स्थिति में रहते हुए मुझे कही भी, किसी भी आलंबन में थोड़ी भी दिलचस्पी न जागे, और द्वेष उकसाने वाले स्थिति में रहते हुए मुझे कही भी, किसी भी आलंबन में थोड़ा भी द्वेष न जागे, और भ्रम «मोह» लाने वाले स्थिति में रहते हुए मुझे कही भी, किसी भी आलंबन में थोड़ा भी भ्रम न जागे’—इस ध्येय से भिक्षु घिनौनी व घिनरहित दोनों की स्थिति में रहते हुए, सही समय पर दोनों हटाकर ‘तटस्थ सचेत व स्मरणशील’ होकर रहें।

«अं.नि.५:१४४»


अनिच्चे दुक्खसञ्ञा

भिक्षुओं, रूप नित्य होता है या अनित्य?

“अनित्य, भन्ते।”

जो नित्य नहीं होता, वह कष्टपूर्ण होता है या सुखपूर्ण?

“कष्टपूर्ण, भन्ते।”

[उसी तरह] संवेदना… नज़रिया… रचना… चैतन्यता नित्य होती है या अनित्य?

“अनित्य, भन्ते।”

जो नित्य नहीं होती, वह कष्टपूर्ण होती है या सुखपूर्ण?

“कष्टपूर्ण, भन्ते।”

अनित्य में दुःख नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।

जब कोई अनित्य-नज़रिए में डूबा रहे, तब आलस्य, सुस्ती, निष्क्रियता, लापरवाही, अ-संकल्पबद्धता व चिंतन न करने के प्रति उसमें तीव्र भय उत्पन्न होता है—जैसे किसी तलवार उठाये हत्यारे के प्रति हो!

«अं.नि.१०:६० + अं.नि.७:४६»


दुक्खे अनत्तसञ्ञा

भिक्षुओं, रूप आत्म [=स्व] नहीं होता। यदि रूप आत्म होता, तो हमें पीड़ा [=रोग जीर्णता विघटन] में न डालता, और हम उसे कह पाते कि—‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो।’

क्योंकि रूप वाक़ई आत्म नहीं होता, इसलिए हमें पीड़ा में डालता है, और हम नहीं कह पाते कि—‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो।’

संवेदनाएँ आत्म नहीं होती। यदि संवेदनाएँ आत्म होती, तो हमें पीड़ा में न डालती, और हम उसे कह पाते कि—‘मेरी संवेदनाएँ ऐसी हो, वैसी न हो।’

क्योंकि संवेदनाएँ वाक़ई आत्म नहीं होती, इसलिए हमें पीड़ा में डालती है, और हम नहीं कह पाते कि—‘मेरी संवेदनाएँ ऐसी हो, वैसी न हो।’

नज़रिए आत्म नहीं होते। यदि नज़रिए आत्म होते, तो हमें पीड़ा में न डालते, और हम उसे कह पाते कि—‘मेरे नज़रिए ऐसे हो, वैसे न हो।’

क्योंकि नज़रिए वाक़ई आत्म नहीं होते, इसलिए हमें पीड़ा में डालते है, और हम नहीं कह पाते कि—‘मेरी नज़रिए ऐसे हो, वैसे न हो।’

रचनाएँ आत्म नहीं होती। यदि रचनाएँ आत्म होती, तो हमें पीड़ा में न डालती, और हम उसे कह पाते कि—‘मेरी रचनाएँ ऐसी हो, वैसी न हो।’

क्योंकि रचनाएँ वाक़ई आत्म नहीं होती, इसलिए हमें पीड़ा में डालती है, और हम नहीं कह पाते कि—‘मेरी रचनाएँ ऐसी हो, वैसी न हो।’

चैतन्यता आत्म नहीं होती। यदि चैतन्यता आत्म होती, तो हमें पीड़ा में न डालती, और हम उसे कह पाते कि—‘मेरी चैतन्यता ऐसी हो, वैसी न हो।’

क्योंकि चैतन्यता वाक़ई आत्म नहीं होती, इसलिए हमें पीड़ा में डालती है, और हम नहीं कह पाते कि—‘मेरी चैतन्यता ऐसी हो, वैसी न हो।’


• तो क्या मानते हो भिक्षुओं, रूप नित्य होता है या अनित्य?

“अनित्य, भन्ते।”

जो नित्य नहीं होता, वह कष्टपूर्ण होता है या सुखपूर्ण?

“कष्टपूर्ण, भन्ते।”

जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव का हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’

“नहीं, भन्ते।”


संवेदना नित्य होती है या अनित्य?

“अनित्य, भन्ते।”

जो नित्य नहीं होती, वह कष्टपूर्ण होती है या सुखपूर्ण?

“कष्टपूर्ण, भन्ते।”

जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव की हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरी है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’

“नहीं, भन्ते।”


नज़रिया नित्य होता है या अनित्य?

“अनित्य, भन्ते।”

जो नित्य नहीं होता, वह कष्टपूर्ण होता है या सुखपूर्ण?

“कष्टपूर्ण, भन्ते।”

जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव का हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’

“नहीं, भन्ते।”


रचना नित्य होती है या अनित्य?

“अनित्य, भन्ते।”

जो नित्य नहीं होती, वह कष्टपूर्ण होती है या सुखपूर्ण?

“कष्टपूर्ण, भन्ते।”

जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव की हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरी है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’

“नहीं, भन्ते।”


चैतन्यता नित्य होती है या अनित्य?

“अनित्य, भन्ते।”

जो नित्य नहीं होती, वह कष्टपूर्ण होती है या सुखपूर्ण?

“कष्टपूर्ण, भन्ते।”

जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव की हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरी है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’

“नहीं, भन्ते।”

इसलिए भिक्षुओं, जो रूप—भूत भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के सभी रूप—‘मेरे नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखना है।

जो भी संवेदना है—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की सभी संवेदनाएँ—‘मेरी नहीं, मेरी आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बनी हो, सही पता करके देखनी है।

जो भी नज़रिया है—भूत भविष्य या वर्तमान का, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के सभी नज़रिए—‘मेरे नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखना है।

जो भी रचना है—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की सभी रचनाएँ—‘मेरी नहीं, मेरी आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बनी हो, सही पता करके देखनी है।

जो भी चैतन्यता है—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की सभी चैतन्यता—‘मेरी नहीं, मेरी आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बनी हो, सही पता करके देखनी है।

इस तरह देखने से भिक्षुओं, धर्म सुने आर्यश्रावक का रूपों के प्रति मोहभंग होता है, संवेदनाओं के प्रति मोहभंग होता है, नज़रियों के प्रति मोहभंग होता है, रचनाओं के प्रति मोहभंग होता है, चैतन्यता के प्रति मोहभंग होता है।

मोहभंग होने से वैराग्य आता है। वैराग्य आने से वह विमुक्त होता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है—‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है—‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’

भिक्षु जंगल में, पेड़ तले, या ख़ालीगृह जाता है, और चिंतन करता है—‘आँखे अनात्म होती है, रूप अनात्म होते है। कान अनात्म होता है, आवाज़े अनात्म होते है। नाक अनात्म होता है, गंध अनात्म होते है। जीभ अनात्म होती है, स्वाद अनात्म होते है। काया अनात्म होती है, संस्पर्श अनात्म होते है। मन अनात्म होता है, स्वभाव अनात्म होते है।

— इस तरह छह भीतरी व बाहरी आयामों को भी वह अनात्मभाव से देखते हुए रहता है।

दुःख में अनात्म नज़रिए की साधना करना, बार-बार करना महाफ़लदायी महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।

जब कोई ‘दुःख में अनात्म नज़रिए’ में डूबा रहे, तब इस चैतन्यतासह-काया तथा बाहरी सभी आलंबनों के प्रति उसका मानस मैं-मेरापन «अहङकार-ममङकार» नहीं करता, अहंभाव «मान» लाँघता है, शान्त होकर सुविमुक्त हो जाता है।

«सं.नि.२२:५९ + अं.नि.१०:६० + अं.नि.७:४६ »


आदीनवसञ्ञा

अवगुण देखना क्या है?

भिक्षु जंगल में, पेड़ तले, या ख़ालीगृह जाता है, और चिंतन करता है—‘बड़ी पीड़ाएँ है इस शरीर की! बहुत अवगुण है! इस शरीर में विविध बीमारियां उपजती है—जैसे आँख का रोग, कान का रोग, नाक का रोग, जीभ का रोग, काया का रोग, सिर का रोग, मुँह का रोग, दाँत का रोग, होंठ का रोग, खाँसी, दमा, जुक़ाम, बुखार, बुढ़ापा, पेट दर्द, मूर्च्छित होना, दस्त, इन्फ्लूएंजा, हैजा, कोढ़, फोड़ा, दाद, टीबी, मिर्गी, त्वचा का रोग, खाज, पपड़ी निकलना, चकते पड़ना, खुजली, पीलिया, मधुमेह, बवासीर, भगंदर, अल्सर, पित्त कुपित होना, कफ कुपित होना, वात कुपित होना, तीनों दोष असंतुलित होना, मौसम बदलाव से बीमारियाँ, शरीर की सही देखभाल न करने से बीमारियाँ, पिटाई से ग्रसित, कर्म-विपाक की बीमारियाँ, ठंडी, गर्मी, भूख, प्यास, मल व मूत्र त्याग। इस तरह वह शरीर के अवगुणों पर गौर करते हुए रहता है।

— इसे कहते है अवगुण देखना।

«अं.नि.१०:६०»


अनुसय

क्या सभी सुखों के प्रति ‘दिलचस्पी सुप्त-अवस्था’ «राग अनुसय» त्यागना होता है? क्या सभी दर्दों के प्रति ‘विरोधी सुप्त-अवस्था’ «पटिघ अनुसय» त्यागना होता है? और क्या सभी नसुख-नदर्द संवेदनाओं के प्रति ‘अविद्या सुप्त-अवस्था’ «अविज्जा अनुसय» त्यागना होता है?

नहीं! सभी सुखों के प्रति दिलचस्पी सुप्त-अवस्था नहीं त्यागना होता। सभी दर्दों के प्रति विरोधी सुप्त-अवस्था नहीं त्यागना होता। और सभी नसुख-नदर्द संवेदनाओं के प्रति अविद्या सुप्त-अवस्था नहीं त्यागना होता।

बल्कि [जब राग उत्पन्न हो, तब] भिक्षु काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त—सोच व विचार के साथ निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता व सुखवाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। उस [प्रथम-झान] से वह राग त्यागता है। राग सुप्त-अवस्था में लिप्त नहीं होता। 1

[जब चिड़चिड़ हो, तब] भिक्षु सोचता है—‘अरे! मैं कब उस आयाम में प्रवेश कर रह पाऊँगा, जिसमें आर्य अभी प्रवेश कर रहते है?’ इस तरह वह ‘सर्वोपरी विमोक्ष’ के प्रति लालसा रखता है, जिस कारण [कुशल] व्यथा उत्पन्न हो। उस व्यथा के सहारे वह चिड़चिड़ त्यागता है। विरोधी सुप्त-अवस्था में लिप्त नहीं होता।

आगे वह सुख दर्द दोनों हटाकर, खुशी व परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता व स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है। उस [चतुर्थ-झान] से वह अविद्या त्यागता है। अविद्या सुप्त-अवस्था में लिप्त नहीं होता।

«मा.नि.४४»


[भन्ते सारिपुत्त को अत्याधिक सम्मान व स्नेह देनेवाले भन्ते आनन्द उन्हें पूछते है:]

मित्र सारिपुत्त, किस कारण, किस परिस्थिति से क्यों कुछ सत्व इसी जीवन में परिनिवृत नहीं होते?

मित्र आनन्द, जिन सत्वों को जैसे हो, वैसे न पता चले कि—‘यह नज़रिया [समाधि] पतन में सहायक है’, ‘यह नज़रिया [समाधि] स्थिरता में सहायक है’, ‘यह नज़रिया [ऊँची समाधि] विशिष्ठता में सहायक है’, और ‘यह नज़रिया [अंतर्ज्ञान] भेदन में सहायक है’—वे सत्व इसी जीवन में परिनिवृत नहीं होते।

और जिन सत्वों को जैसे हो, वैसे पता चले कि—‘यह नज़रिया पतन में सहायक है’, ‘यह नज़रिया स्थिरता में सहायक है’, ‘यह नज़रिया विशिष्ठता में सहायक होगा’, और ‘यह नज़रिया भेदन में सहायक है’—वे सत्व इसी जीवन में परिनिवृत होते हैं।

«अं.नि. ४:१७९»


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  1. यह उत्तर आजकल प्रचलित कुछ साधना-विधियों पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है, जो भगवान की मूलवाणी के विपरीत सिखाते है कि समाधि-झान से उत्पन्न प्रीति या सुख बड़ा ही भयावह होता है, और उसे तुरंत त्याग देना चाहिए। जबकि उससे डरने के कारण, विश्वास न करने के कारण, उसे बढ़ाकर संपूर्ण शरीर में न फ़ैलाने के कारण प्रथम-झान ‘सम्यकसमाधि’ विकसित नहीं हो पाती, और आर्यमार्ग की साधना अधूरी ही रह जाती है।

    यहाँ भगवान ज़ोर देकर कहते है कि केवल सम्यक-समाधि प्रथम-झान से उत्पन्न प्रीति-सुख का आधार लेकर ही राग-अनुशय त्यागा जा सकता है। झान-आहार के बेहतर ‘प्रणित’ प्रीति-सुख से ही मन को बार-बार लगती ‘कामुकता की भूख-प्यास’ मिट सकती है, और राग-अनुशय समाप्त हो सकता है। झान-सुख से डरने की ज़रूरत नहीं, बल्कि उसपर भरोसा कर, उसे बढ़ाकर, उसके पीछे पड़, काया में सर्वत्र फैलाकर, सम्यक-समाधि विकसित कर परिपूर्ण की जाती है। [अध्याय ५ के अंत में झान-आहार पढ़ें।]

    उसी तरह वहाँ यह भी सिखाया जाता है कि जब साधक निर्वाण विमुक्ति विमोक्ष के प्रति लालसा उत्पन्न कर ले, तो वह निर्वाण के विपरीत दिशा में जाएगा। जबकि उसके विपरीत भगवान यहाँ कहते है कि उसी लालसा से उत्पन्न व्यथा का धर्म में बड़ा उपयोग है। उसी के सहारे द्वेष-अनुशय त्यागा जा सकता है। अर्थात, हमें जब द्वेष उत्पन्न हो, तब निर्वाण के लिए रोना चाहिए, और उस द्वेष-भाव को मोड़ना चाहिए, एक कुशल-दिशा देनी चाहिए, तभी द्वेष-अनुशय समाप्त होगा। जो वाक़ई बड़ी दिलचस्प बात है।

    और सति और उपेक्खा की सर्वोच्च परिशुद्ध-अवस्था केवल चतुर्थ-झान में ही प्राप्त होती है, उसके अलावा या बाहर नहीं। किंतु प्रारंभ में ही केवल तटस्थता धारण कर चित्त सम्यक-समाधि में प्रवेश नहीं कर सकता [अगले अध्याय १४, पृष्ठ २१० में निमित्त के अंतर्गत पढ़ें]। हम सति की साधना ही इसलिए करते है कि सम्यक-समाधि के चार-झान प्राप्त कर, उसे अपने लिए हमेशा उपलब्ध कर ले। बल्कि आर्य-अष्टांगिक मार्ग के सातों अंग, सम्यक-दृष्टी से लेकर तो सम्यक-सति तक, मात्र सम्यक-समाधि विकसित करने, उसे बरकरार रखने, और उसके आधार पर प्रज्ञा विकसित कर निर्वाण पाने के लिए ही होते है। ↩︎