समाधिकुसल
~ सम्यक समाधि में निपुणता ~
हिमवन्त —
भिक्षुओं, जिस भिक्षु में छह गुण होते है, वह पर्वतराज हिमालय को चकनाचूर कर सकता है। अविद्या का कहना ही क्या! कौन-से छह?
• भिक्षु समाधि में ‘प्रवेश पाने’ में कुशल होता है।
• समाधि को ‘स्थित करने’ में कुशल होता है।
• समाधि से ‘बाहर निकलने’ में कुशल होता है।
• समाधि के लिए ‘चित्त प्रसन्न करने’ में कुशल होता है।
• समाधि का ‘पूर्ण परिसर टहलने’ में कुशल होता है।
• समाधि की ओर ‘चित्त झुकाए रखने’ में कुशल होता है।
— जिस भिक्षु में छह गुण होते है, वह पर्वतराज हिमालय को चकनाचूर कर सकता है। अविद्या का कहना ही क्या!
«अं.नि.६:२४»
«धम्मपद ३७२»
आसवक्खय मैं कहता हूँ भिक्षुओं, बहाव जैसे थमते हो, वैसे सही उसे ही पता चलता है—जो समाधि में तल्लीन होता है। उसे नहीं पता चलता जो समाधि में लिप्त न होता हो। इसलिए समाधि ही मार्ग है, भिक्षुओं। अ-समाधि कोई मार्ग ही नहीं! «अं.नि.६:६४»
अमृत के ग्यारह प्रवेशद्वार [भन्ते आनन्द किसी दशम नामक गृहस्थ के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते है:] भगवान ऐसी अवस्थाओं की व्याख्या करते है, गृहस्थ… जिन्हें विकसित कर ‘फिक्रमंद सचेत व दृढ़निश्चयी’ भिक्षु अपना चित्त विमुक्त करें, या बहाव थामे, या योगबन्धन से सर्वोपरि राहत प्राप्त करें। कौन-सी अवस्थाएँ? कोई भिक्षु प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है… तब वह समीक्षा करता है—‘यह चेतनापूर्ण रचा गया है। किंतु जो चेतनापूर्ण रचा गया हो, वह अनित्य-स्वभाव का होता है, निरोध-स्वभाव का होता है।’ तब वही ठहरे हुए उसका चित्त बहाव के थमने तक पहुँचता है। यदि न पहुँचे, तो ‘धर्म-राग, धर्म-ख़ुशी’ के ज़रिए, और निचले पाँच संयोजन टूटने से उसका वहाँ प्रकट होना अपेक्षित होता है, जहाँ से दुबारा न लौटकर, वही परिनिवृत होते है। कोई भिक्षु द्वितीय-झान में… तृतीय-झान में… चतुर्थ-झान में… आकाश-आयाम में… चैतन्यता-आयाम में… सूने-आयाम में… मेत्ता चेतोविमुक्ति… करुणा चेतोविमुक्ति… मुदिता चेतोविमुक्ति… तटस्थता चेतोविमुक्ति में प्रवेश कर रहता है। तब वह समीक्षा करता है—‘यह चेतनापूर्ण रचा गया है। किंतु जो चेतनापूर्ण रचा गया हो, वह अनित्य-स्वभाव का होता है, निरोध-स्वभाव का होता है।’ तब वही ठहरे हुए उसका चित्त बहाव के थमने तक पहुँचता है। यदि न पहुँचे, तो ‘धर्म-राग, धर्म-ख़ुशी’ के ज़रिए, और निचले पाँच संयोजन टूटने से उसका वहाँ प्रकट होना अपेक्षित होता है, जहाँ से दुबारा न लौटकर, वही परिनिवृत होते है। — भगवान इन अवस्थाओं की व्याख्या करते है… जिन्हें विकसित कर ‘फिक्रमंद सचेत व दृढ़निश्चयी’ भिक्षु अपना चित्त विमुक्त करें, या बहाव थामे, या योगबन्धन से सर्वोपरि राहत प्राप्त करें। “भन्ते, जैसे कोई गुप्त खज़ाने का प्रवेशद्वार ढूँढ रहा हो, और यकायक ग्यारह प्रवेशद्वारों के सामने आए! उसी तरह मैं अमृत का प्रवेशद्वार ढूँढ रहा था, और यकायक ग्यारह प्रवेशद्वारों के बारे में सुनने मिला! जैसे किसी घर में ग्यारह द्वार हो। आग लगने पर कोई ग्यारह में से किसी एक द्वार से निकलकर सुरक्षित बच सकता है। उसी तरह मैं अमृत के ग्यारह में से किसी एक द्वार से निकलकर सुरक्षित बच सकता हूँ!” «मा.नि.५२»
भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि बहाव थामना प्रथम-झान के आधार पर होता है… द्वितीय-झान के आधार पर… तृतीय-झान के आधार पर… चतुर्थ-झान के आधार पर… आकाश-आयाम के आधार पर… चैतन्यता-आयाम के आधार पर… सूने-आयाम के आधार पर… न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम के आधार पर होता है… कैसे? • कल्पना करो कि कोई तीरंदाज़ पुआल या मिट्टी से बने पुतले पर अभ्यास करें। तत्पश्चात वह लंबी दूरी तक तीर चलाने में, ताबड़तोड़ सटीक निशाने लगाने में, और गहराई तक भेदने में निपुण हो जाए। उसी तरह भिक्षु… प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। तब वह [अविचलता से] देखता है कि जो धर्मस्वभाव ‘रूप संवेदना नज़रिया रचना व चैतन्यता’ से जुड़े हो—वह ‘अनित्य होते है, कष्टपूर्ण होते है, रोग होते है, फोड़ा होते है, तीर होते है, पीड़ादायक होते है, मुसीबत होते है, पराया होते है, भंग होते है, शून्य होते है, अनात्म होते है।’ और वह चित्त को कही और झुकाने के बारे में सोचता है। तब वह चित्त को अमृतधातु की ओर झुकाता है [सोचते हुए] यही शान्ति है! यही सर्वोत्कृष्ट है!—सभी रचनाओं का रुक जाना! सभी अर्जित वस्तुओँ का परित्याग! तृष्णा का अंत! वैराग्य निरोध निर्वाण!’ तब वही ठहरे हुए उसका चित्त बहाव के थमने तक पहुँचता है। यदि न पहुँचे, तो ‘धर्म-राग, धर्म-ख़ुशी’ के ज़रिए, और निचले पाँच संयोजन [= आत्मिय दृष्टि, शील या व्रतों पर अटकना, अनिश्चितता, कामराग और चिड़चिड़] टूटने से उसका वहाँ प्रकट होना अपेक्षित होता है, जहाँ से दुबारा न लौटकर, वही परिनिवृत होते है [=शुद्धवास ब्रह्मलोक]। — इस तरह बहाव का थमना प्रथम-झान के आधार पर होता है। • कल्पना करो कि कोई तीरंदाज़ पुआल या मिट्टी से बने पुतले पर अभ्यास करें। तत्पश्चात वह लंबी दूरी तक तीर चलाने में, ताबड़तोड़ सटीक निशाने लगाने में, और गहराई तक भेदने में निपुण हो जाए। उसी तरह भिक्षु… द्वितीय-झान में… तृतीय-झान में… चतुर्थ-झान में… आकाश-आयाम में… चैतन्यता-आयाम में… सूने-आयाम में प्रवेश कर रहता है। तब वह देखता है कि जो धर्मस्वभाव ‘रूप संवेदना नज़रिया रचना व चैतन्यता’ से जुड़े हो—वह ‘अनित्य होते है, कष्टपूर्ण होते है, रोग होते है, फोड़ा होते है, तीर होते है, पीड़ादायक होते है, मुसीबत होते है, पराया होते है, भंग होते है, शून्य होते है, अनात्म होते है।’ और वह चित्त को कही और झुकाने के बारे में सोचता है। तब वह चित्त को अमृतधातु की ओर झुकाता है [सोचते हुए] यही शान्ति है! यही सर्वोत्कृष्ट है!—सभी रचनाओं का रुक जाना! सभी अर्जित वस्तुओँ का परित्याग! तृष्णा का अंत! वैराग्य निरोध निर्वाण!’ तब वही ठहरे हुए उसका चित्त बहाव के थमने तक पहुँचता है। यदि न पहुँचे, तो ‘धर्म-राग, धर्म-ख़ुशी’ के ज़रिए, और निचले पाँच संयोजन टूटने से उसका वहाँ प्रकट होना अपेक्षित होता है, जहाँ से दुबारा न लौटकर, वही परिनिवृत होते है। — इस तरह बहाव का थमना द्वितीय-झान… तृतीय-झान… चतुर्थ-झान… आकाश-आयाम… चैतन्यता-आयाम… सूने-आयाम के आधार पर होता है। इस तरह जिस अवस्था तक नज़रिया उपलब्ध होता हो, वहाँ तक परमज्ञान भेदा जाता है। हालाँकि यह दो आयाम—‘न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम, और नज़रिया-संवेदना-निरोध अवस्था’—मैं कहता हूँ, वही ध्यानी भिक्षु भली-भाँति समझा सकते है, जो उस अवस्था में प्रवेश पाने में कुशल हो, उससे बाहर निकलने में कुशल हो, और जो उन अवस्थाओं का आधार लेकर आगे निकल भी चुके हो। [अर्थात, ध्यानी भिक्षु का मार्गदर्शन ले।] «अं.नि.९:३६»
सोण ओवाद [भन्ते सोण शीतलवन में निर्लिप्त एकांतवास में साधना कर रहे थे। अत्याधिक चंक्रमण-ध्यान करने से उनके कोमल तलवें फट गए, और रक्तस्त्राव होने लगा] तब उनके मानस में विचारों का सिलसिला उठा—‘भगवान के जो श्रावक ज़ोर लगाकर साधना करते है, मैं उनमें से एक हूँ। किंतु मेरा मानस «चेतस» आधार-रहित हो बहावमुक्त नहीं हो पाया! मेरे परिवार के पास धनसंपत्ति है। यह संभव है कि मैं भोग करते हुए दानपुण्य भी अर्जित करूँ! मैं क्यों न शिक्षा त्यागकर तुच्छ गृहस्थी-जीवन में लौट जाऊँ, और भोग करते हुए दानपुण्य भी अर्जित करूँ?’ उस समय भगवान गृद्धकूट पर्वत पर रहते थे। तब उन्होंने अपने मानस से भन्ते सोण के मानस में विचारों का सिलसिला उठते हुए जान लिया। और तब—जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी सिकोड़ी-बाँह पसारे, या पसारी-बाँह सिकोड़े—वैसे ही भगवान गृद्धकूट पर्वत से गायब हुए और शीतलवन में ठीक भन्ते सोण के आगे प्रकट हुए, तथा बिछे आसन पर बैठ गए। भन्ते सोण ने भगवान को अभिवादन किया, और एक-ओर बैठ गए। तब भगवान ने कहा— क्या अभी-अभी तुम्हारे मानस में विचारों का यह सिलसिला नहीं उठा—‘भगवान के जो श्रावक ज़ोर लगाकर साधना करते है, मैं उनमें से एक हूँ। किंतु मेरा मानस आधार-रहित हो बहावमुक्त नहीं हो पाया! मेरे परिवार के पास धनसंपत्ति है। यह संभव है कि मैं भोग करते हुए दानपुण्य भी अर्जित करूँ! मैं क्यों न शिक्षा त्यागकर तुच्छ गृहस्थी-जीवन में लौट जाऊँ, और भोग करते हुए दानपुण्य भी अर्जित करूँ?’ “हाँ, भन्ते।” तो क्या लगता है, सोण? क्या तुम पूर्व गृहस्थी-जीवन में वीणा बजाने में कुशल थे? “हाँ, भन्ते।” …जब तुम्हारी वीणा के तार बहुत कसे होते थे, क्या तब तुम्हारी वीणा उचित सुर में बजती थी? “नहीं, भन्ते।” …और जब तुम्हारी वीणा के तार बहुत ढ़ीले होते थे, क्या तब तुम्हारी वीणा उचित सुर में बजती थी? “नहीं, भन्ते।” …तो जब तुम्हारी वीणा के तार न बहुत कसे, न बहुत ढ़ीले, बल्कि सम होते थे, क्या तब तुम्हारी वीणा उचित सुर में बजती थी? “हाँ, भन्ते।” उसी तरह सोण, अतिउत्तेजित ऊर्जा ‘बेचैनी’ लाती है, जबकि अतिमन्द ऊर्जा ‘सुस्ती’। इसलिए तुम्हें अपनी ऊर्जा का सम्यक-सुर बाँधना चाहिए, [पाँच] इंद्रियों की सुर उससे मिलाना चाहिए, और तब अपना निमित्त पकड़ना चाहिए। “ठीक है, भन्ते।” तब भन्ते सोण को निर्देश देकर भगवान—जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी सिकोड़ी-बाँह पसारे, या पसारी-बाँह सिकोड़े—वैसे ही शीतलवन से गायब हुए और गृद्धकूट पर्वत पर प्रकट हुए। तत्पश्चात भन्ते सोण ने अपनी ऊर्जा का सम्यक-सुर बाँधा, [पाँच] इंद्रियों का सुर उससे मिलाया, और तब अपना निमित्त पकड़ा। तब निर्लिप्त एकांतवास में वह फ़िक्रमन्द सचेत व दृढ़निश्चयी होकर रहते हुए, ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हुए, जिसके लिए कुलपुत्र वाक़ई घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते है। उन्होंने स्वयं जाना और साक्षात्कार किया। उन्हें पता चला—‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ और इस तरह भन्ते सोण [अनेक] अरहंतों में से एक हुए। «अं.नि.६:५५»
निमित्त जब भिक्षु चित्त ऊँचा उठाने «अधिचित्त» का मन बनाए, उसे समय-समय पर तीन आलंबनों «निमित्त» पर ध्यान देना चाहिए। उसे समय-समय पर ‘समाधि आलंबन’ पर ध्यान देना चाहिए। उसे समय-समय पर ‘ऊर्जा-संचार «पग्गह» आलंबन’ पर ध्यान देना चाहिए। उसे समय-समय पर ‘तटस्थता आलंबन’ पर ध्यान देना चाहिए। चित्त ऊँचा उठाने का मन बनाए भिक्षु यदि केवल समाधि आलंबन पर ही ध्यान दे, तो हो सकता है उसका चित्त तत्पश्चात आलस्य से भर उठे। यदि वह केवल ऊर्जा-संचार आलंबन पर ही ध्यान दे, तो हो सकता है उसका चित्त तत्पश्चात व्याकुलता से भर उठे। यदि वह केवल तटस्थता आलंबन पर ही ध्यान दे, तो हो सकता है उसका चित्त बहाव थामने के लिए सम्यकसमाधि में स्थिर न हो पाए। किंतु जब भिक्षु समय-समय पर समाधि आलंबन पर ध्यान दे, समय-समय पर ऊर्जा-संचार आलंबन पर ध्यान दे, समय-समय पर तटस्थता आलंबन पर ध्यान दे—तब उसका चित्त मृदु, काम करने योग्य, चमकीला हो जाता है; भंगुर नहीं बचता। तब बहाव थामने के लिए उसका चित्त सम्यकसमाधि में स्थिर हो पाता है। कल्पना करो कि कोई सुनार अग्निभट्टी प्रज्वलित करें। अग्नि-भट्टी भड़काकर उसमें पात्र तपाए। चिमटे से स्वर्ण उठाकर तपाए पात्र में डाल दे। तब समय-समय पर धौंकनी से फूँके, समय-समय पर जल छिड़के, समय-समय पर गौर से देखें। अब यदि वह धौंकनी से मात्र फूँकते ही रहे, तो हो सकता है स्वर्ण जलकर भस्म हो जाए। यदि वह मात्र जल छिड़कते ही रहे, तो हो सकता है स्वर्ण ठंडा पड़ जाए। यदि वह मात्र गौर से देखते ही रहे, तो हो सकता है स्वर्ण कभी परिशुद्ध न हो पाए। किंतु जब वह समय-समय पर धौंकनी से फूँकता भी है, समय-समय पर जल भी छिड़कता है, समय-समय पर गौर से भी देखता है—तब जाकर स्वर्ण मृदु, काम करनेयोग्य, चमकीला हो जाता है; भंगुर नहीं बचता। बल्कि ढालनेयोग्य तैयार हो जाता है। तब सुनार जो आभूषण, जैसे कमरपट्टा कर्णफूल कंठहार या चेन बनाना चाहे, स्वर्ण उसकी उद्देश्यपूर्ति करेंगा। उसी तरह चित्त ऊँचा उठाने का मन बनाए भिक्षु को समय-समय पर तीन आलंबनों पर ध्यान देना चाहिए—उसे समय-समय पर समाधि-आलंबन पर ध्यान देना चाहिए। उसे समय-समय पर ऊर्जा-संचार आलंबन पर ध्यान देना चाहिए। उसे समय-समय पर तटस्थता-आलंबन पर ध्यान देना चाहिए। «अं.नि.३:१०३»
देवदह चेष्ठा कैसे सफ़ल होती है, उद्यम «पधान» कैसे सफ़ल होता है? यदि किसी भिक्षु [पृथ्वी या अग्निधातु प्रभुतावाले के सुखद प्रगतिपथ] पर दर्द का बोझ न पड़ा हो, तो वह स्वयं [ज़बरदस्ती] दर्द का बोझ उठाकर नहीं दबता। न ही वह ऐसा [झान] सुख ठुकरा देता है, जो धर्मानुसार प्रकट हुआ हो। हालाँकि वह ऐसे सुख से आसक्त भी नहीं होता। वह समझता है कि—‘जब मैं दुःख के स्त्रोत के विरुद्ध उद्यमता रचता हूँ, तब उस उद्यम-रचना के सहारे वैराग्य आता है। तथा जब मैं दुःख के कारण को तटस्थता से देखता हूँ, तब उस तटस्थता-अभ्यास के सहारे वैराग्य आता है।’ तब वह दुःख के [प्रथम] कारण के विरुद्ध उद्यमता रचता है, तथा [द्वितीय] कारण को तटस्थता से देखता है… तब [प्रथमकारण से उत्पन्न] दुःख समाप्त हो जाता है… और [द्वितीयकारण से उत्पन्न] दुःख भी समाप्त हो जाता है। — जैसे कोई पुरुष किसी स्त्री में प्रेमासक्त हो। और उसका चित्त स्त्री के प्रति तीव्र चाह, तीव्र दिलचस्पी की गिरफ्त में हो। तब वह उस स्त्री को अन्य पुरुष के साथ खड़ा देखें—गपशप करते, मज़ाक करते, हँसते हुए। तो तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या उसमें शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा उत्पन्न होगी? “ज़रूर होगी, भन्ते!” तब कल्पना करो कि बाद में उसे लगे—‘मैं इस स्त्री में प्रेमासक्त हूँ… मैं जब उसे अन्य पुरुष के साथ खड़ा देखता हूँ—गपशप करते, मज़ाक करते, हँसते हुए—तब मुझमें शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा उत्पन्न होती है। क्यों न मैं उस स्त्री के प्रति चाह व दिलचस्पी त्याग दूँ?” — तब वह उस स्त्री के प्रति ‘चाह व दिलचस्पी’ त्याग देता है। और तत्पश्चात स्त्री को पुरुष के साथ खड़ा देखता है—गपशप करते, मज़ाक करते, हँसते हुए। तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या अब उसमें शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा उत्पन्न होगी? “नहीं होगी, भन्ते!” उसी तरह किसी भिक्षु पर यदि दर्द का बोझ न पड़ा हो, तो वह स्वयं दर्द का बोझ उठाकर नहीं दबता। न ही वह ऐसा सुख ठुकरा देता है, जो धर्मानुसार प्रकट हुआ हो। … तब वह दुःख के [प्रथम] कारण के विरुद्ध उद्यमता रचता है, तथा [द्वितीय] कारण को तटस्थता से देखता है… तब [प्रथमकारण से उत्पन्न] दुःख समाप्त हो जाता है… और [द्वितीयकारण से उत्पन्न] दुःख भी समाप्त हो जाता है। तत्पश्चात कोई अन्य भिक्षु [=जल या वायुधातु-प्रभुतावाला] गौर करता है—‘जब मैं सुख-सुविधा में जीता हूँ, तब मेरे अकुशल स्वभाव बढ़ने लगते है, और कुशल घटने। किंतु जब मैं दुःख-दर्द के साथ उद्यम करता हूँ, तब मेरे अकुशल स्वभाव घटने लगते है, और कुशल बढ़ने। क्यों न मैं दुःख-दर्द के साथ ही उद्यम करूँ?” तब वह दुःख-दर्द के साथ उद्यम करता है। तब उसमें अकुशल स्वभाव घटने लगते है, और कुशल बढ़ने। तत्पश्चात वह दुःख-दर्द के साथ उद्यम नहीं करेंगा, क्योंकि जिस ध्येय से वह दुःख-दर्द के साथ उद्यम कर रहा था, वह पा लिया… कल्पना करो कि कोई तीरंदाज अपने तीर को दो अग्नि-लौ के बीच गर्म तपाकर सीधा व लचीला बनाता हो। तत्पश्चात वह अपने तीर को दो अग्नि-लौ के बीच गर्म तपाकर सीधा व लचीला नहीं बनाएगा, क्योंकि जिस ध्येय से वह तीर को गर्म तपा रहा था, वह पा लिया… उसी तरह तत्पश्चात भिक्षु दुःख-दर्द के साथ उद्यम नहीं करेंगा, क्योंकि जिस ध्येय से वह दुःख-दर्द के साथ उद्यम कर रहा था, वह पा लिया। «मा.नि.१०१»
[चतुर्थ-झान प्राप्त होने के पश्चात] मात्र तटस्थता बचती है—परिशुद्ध उजालेदार मृदुल ढ़ालनेयोग्य व चमकीली। कल्पना करो कि कोई सुनार अग्निभट्टी प्रज्वलित करें। अग्निभट्टी भड़काकर उसमें पात्र तपाए। चिमटे से स्वर्ण उठाकर तपाए पात्र में डाल दे। तब समय-समय पर धौंकनी से फूँके, समय-समय पर जल छिड़के, समय-समय पर गौर से देखें। ताकि स्वर्ण शुध्द हो जाए, परिशुद्ध हो जाए, अत्यंत परिशुद्ध हो जाए, निर्दोष हो जाए, धातुमल से मुक्त हो जाए, मृदुल ढ़ालनेयोग्य व उजालेदार हो जाए। तब सुनार जो आभूषण, जैसे कमरपट्टा कर्णफूल कंठहार या चेन बनाना चाहे, स्वर्ण उसकी उद्देश्यपूर्ति करेंगा। उसी तरह मात्र तटस्थता बचती है—परिशुद्ध उजालेदार मृदुल ढ़ालनेयोग्य व चमकीली। तब भिक्षु को पता चलता है कि ‘यदि इस ‘परिशुद्ध व उजालेदार’ तटस्थता को मैं ‘अनंत आकाश-आयाम’ की ओर मोड़ दूँ, तो मेरा चित्त उस दिशा में विकसित होगा, और मेरी तटस्थता उसका आधार व पोषण लेकर लंबे समय तक टिक जाएगा। किंतु वह रचित होगा!’ तब अस्तित्व बनाने या मिटाने के लिए वह न कुछ रचता है, न कोई इच्छा करता है। ऐसा होने पर वह दुनिया में किसी का आधार नहीं लेता। वह आधार न लेने पर चंचल नहीं होता। तब वह अविचल होकर भीतर ही भीतर परिनिवृत हो जाता है। उसे पता चलता है—‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ «मा.नि.१४०»
गावी कल्पना करो कि एक पहाड़ी गाय हो—मूर्ख, अनुभवहीन, चारागाह से अपरिचित, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी पर टहलने में अकुशल। और वह सोचे—‘मैं क्यों न ऐसी दिशा जाऊँ, जहाँ कभी न गई हो। ऐसा चारा खाऊँ, जो कभी न खाया हो। ऐसा जल पीऊँ, जो कभी न पीया हो!’ तब [जल्दबाज़ी में] वह अगले पाँव बिना दृढ़तापूर्वक रखे ही अपनी पिछली टाँगे उठा लेती है, और [परिणामतः] ऐसी दिशा न जा पाती, जहाँ कभी न गई हो। ऐसा चारा न खा पाती, जो कभी न खाया हो। ऐसा जल न पी पाती, जो कभी न पीया हो। और… उसकी पूर्व जगह पर भी सुरक्षित नहीं लौट पाती। ऐसा क्यों? क्योंकि वह गाय मूर्ख, अनुभवहीन, चारागाह से अपरिचित, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी पर टहलने में अकुशल है। उसी तरह कोई भिक्षु मूर्ख, अनुभवहीन, चारागाह से अपरिचित होता है। वह प्रथम-झान में प्रवेश करने में अकुशल होता है। वह आलंबन «निमित्त» नहीं पकड़ता, उसकी साधना नहीं करता, बार-बार नहीं करता, या स्वयं को उसमें स्थापित नहीं करता। उसे [समय से पूर्व ही] लगता है—‘मैं क्यों न द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहूँ?’ तब वह… द्वितीय-झान में प्रवेश नहीं कर पाता। तब उसे लगता है—‘मैं क्यों न प्रथम-झान में ही लौट जाऊँ?’ किंतु वह… प्रथम-झान में भी प्रवेश नहीं कर पाता। ऐसे भिक्षु को कहते है कि वह दोनों-ओर से फ़िसलकर गिर पड़ा—ठीक उसी पहाड़ी गाय की तरह, जो मूर्ख, अनुभवहीन, चारागाह से अपरिचित, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी पर टहलने में अकुशल है। अब कल्पना करो कि दूसरी पहाड़ी गाय हो—समझदार, अनुभवी, चारागाह से परिचित, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी पर टहलने में कुशल। और वह सोचे, ‘मैं क्यों न ऐसी दिशा जाऊँ, जहाँ कभी न गई हो। ऐसा चारा खाऊँ, जो कभी न खाया हो। ऐसा जल पीऊँ, जो कभी न पीया हो!’ वह अगले पाँव दृढ़तापूर्वक रखने पश्चात ही पिछली टाँगे उठाती है, और [परिणामतः] ऐसी दिशा जा पाती है, जहाँ कभी न गई हो। ऐसा चारा खा पाती है, जो कभी न खाया हो। ऐसा जल पी पाती है, जो कभी न पीया हो। और… वह पूर्व जगह पर भी सुरक्षित लौट पाती है। ऐसा क्यों? क्योंकि वह गाय समझदार, अनुभवी, चारागाह से परिचित, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी पर टहलने में कुशल है। उसी तरह ऐसा होता है कि कोई भिक्षु—समझदार, अनुभवी, चारागाह से परिचित—… प्रथम-झान में प्रवेश कर रहने में कुशल होता है। तब भिक्षु वह आलंबन पकड़ता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, स्वयं को उसमें दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। तब उसे लगता है—‘अब मैं क्यों न द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहूँ?’ तब भिक्षु द्वितीय-झान में छलाँग नहीं लगाता। बल्कि सोच व विचार शान्त होने देता है, और तत्पश्चात द्वितीय-झान में प्रवेश करता है। तब वह आलंबन पकड़ता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, स्वयं को उसमें दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। तब उसे लगता है—‘अब मैं क्यों न तृतीय-झान में प्रवेश कर रहूँ?’ तब भिक्षु तृतीय-झान में छलाँग नहीं लगाता। बल्कि समाधि से जन्मी प्रफुल्लता को शान्त होने देता है, और तत्पश्चात तृतीय-झान में प्रवेश करता है। तब वह आलंबन पकड़ता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, स्वयं को उसमें दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। तब उसे लगता है—‘अब मैं क्यों न चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहूँ?’ तब वह चतुर्थ-झान में छलाँग नहीं लगाता। बल्कि समाधि से जन्में सुख से विरक्ति लेता है, और तत्पश्चात चतुर्थ-झान में प्रवेश करता है। तब वह आलंबन पकड़ता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, स्वयं को उसमें दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। तब उसे लगता है—‘अब मैं क्यों न रूप नज़रिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नज़रिए ओझल होने पर, विविध नज़रियों पर ध्यान न देकर—‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में प्रवेश कर रहूँ?’ तब वह अनंत आकाश-आयाम में छलाँग नहीं लगाता। बल्कि अनंत आकाश-आयाम में [शांति से] प्रवेश करता है। तब वह आलंबन पकड़ता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, स्वयं को उसमें दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। तब उसे लगता है—‘अब मैं क्यों न अनंत आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्यता अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्यता-आयाम में प्रवेश कर रहूँ?’ तब वह अनंत चैतन्यता-आयाम में छलाँग नहीं लगाता। बल्कि अनंत चैतन्यता-आयाम में [शांति से] प्रवेश करता है। तब वह आलंबन पकड़ता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, स्वयं को उसमें दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। तब उसे लगता है—‘अब मैं क्यों न अनंत चैतन्यता-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में प्रवेश कर रहूँ?’ तब वह सूने-आयाम में छलाँग नहीं लगाता। बल्कि सूने-आयाम में [शांति से] प्रवेश करता है। तब वह आलंबन पकड़ता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, स्वयं को उसमें दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। तब उसे लगता है—‘अब मैं क्यों न सूना-आयाम पूर्णतः लाँघकर, न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम में प्रवेश कर रहूँ?’ तब वह न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम में छलाँग नहीं लगाता। बल्कि न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम में [शांति से] प्रवेश करता है। तब वह आलंबन पकड़ता है, उसकी साधना करता है, बार-बार करता है, स्वयं को उसमें दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। तब उसे लगता है—‘अब मैं क्यों न न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम पूर्णतः लाँघकर नज़रिया-संवेदना-निरोध में प्रवेश कर रहूँ?’ तब वह नज़रिया-संवेदना-निरोध में छलाँग नहीं लगाता। बल्कि नज़रिया-संवेदना-निरोध में [शांति से] प्रवेश करता है। जब कोई भिक्षु इस अवस्था में प्रवेश करता और निकलता है, तब उसका चित्त मृदु व काम करनेयोग्य होता है। उसके मृदु व काम करनेयोग्य चित्त के साथ ही अपरिमित-समाधि सुविकसित होती है। जब उसकी समाधि सुविकसित व अपरिमित हो जाए, तब वह आयाम खुलते ही छह विशिष्ट-ज्ञानों में जिसे जानने, प्राप्त करने की ओर चित्त मोड़े, स्वयं साक्षात्कार कर सकता है। «अं.नि.९:३५»
भगवान — भिक्षुओं, सारिपुत्त अंतर्ज्ञानी है, महा-अंतर्ज्ञानी है, गहरा-अंतर्ज्ञानी है, विस्तृत-अंतर्ज्ञानी है, आश्वस्त-अंतर्ज्ञानी है, तीव्र-अंतर्ज्ञानी है, तेज़-अंतर्ज्ञानी है, भेदक-अंतर्ज्ञानी है। ऐसा हुआ कि सारिपुत्त ने… प्रथम-झान में प्रवेश किया। तब प्रथम-झान में जो स्वभाव होते है—सोच, विचार, प्रफुल्लता, सुख, चित्त की एकाग्रता, संपर्क, संवेदना, नज़रिया, इरादा, चैतन्यता, चाह, निर्णय «अधिमोक्ख», ऊर्जा, स्मरणशीलता, तटस्थता, और गौर करना «मनसिकार»—सभी स्वभाव उसने एक-एक कर ढूँढ़ निकाले। उसको वे स्वभाव उत्पन्न होते हुए पता चले, स्थित होते हुए पता चले, व्यय होते हुए पता चले। तब उसे पता चला कि—‘पूर्व न होकर तब उनका सिलसिला इस तरह चल पड़ता है [=उत्पत्ति]। और पूर्व हो, तब वे इस तरह विलुप्त हो जाते हैं।’ तब सारिपुत्त उन स्वभावों से बिना आकर्षित हुए, बिना प्रतिकर्षित हुए—स्वतंत्र, निर्लिप्त, विमुक्त, अलगावपूर्ण व बिना अवरोधपूर्ण चित्त के साथ रहा। तब उसे लगा कि ‘निकलने का आगे मार्ग है!’ उसे आगे बढ़ने पर पता चला कि वाक़ई निकलने का मार्ग उपलब्ध था। तब सोच व विचार रुकने पर सारिपुत्त ने द्वितीय-झान में प्रवेश किया। तब द्वितीय-झान में जो स्वभाव होते है—भीतरी विश्वास, प्रफुल्लता, सुख… … तब प्रफुल्लता के शांत होनेपर सारिपुत्त ने तृतीय-झान में प्रवेश किया… चतुर्थ-झान में प्रवेश किया… आकाश-आयाम में प्रवेश किया… चैतन्यता-आयाम में प्रवेश किया… सूने-आयाम में प्रवेश किया… न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम में प्रवेश किया। सारिपुत्त को उस अवस्था से स्मृतिपूर्वक निकलने पर, पूर्व विलुप्त हुए या बदल चुके स्वभावों के बारे में पता चला। तब उसे पता चला कि—‘पूर्व न होकर तब उनका सिलसिला इस तरह चल पड़ता है। और पूर्व हो, तब वे इस तरह विलुप्त हो जाते हैं।’ तब सारिपुत्त उन स्वभावों से बिना आकर्षित हुए, बिना प्रतिकर्षित हुए—स्वतंत्र, निर्लिप्त, विमुक्त, अलगावपूर्ण व बिना अवरोधपूर्ण चित्त के साथ रहा। तब उसे लगा कि ‘निकलने का आगे मार्ग है!’ उसे आगे बढ़ने पर पता चला कि वाक़ई निकलने का मार्ग उपलब्ध था। तब सारिपुत्त ने न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम पूर्णतः लाँघकर नज़रिया-संवेदना निरोध अवस्था में प्रवेश किया। और जब उसने अन्तर्ज्ञानपूर्वक देखा, तो उसके सारे बहाव थम गए! सारिपुत्त को उस अवस्था से स्मृतिपूर्वक निकलने पर, पूर्व विलुप्त हुए या बदल चुके स्वभावों के बारे में पता चला। तब उसे पता चला कि—‘पूर्व न होकर तब उनका सिलसिला इस तरह चल पड़ता है। और पूर्व हो, तब वे इस तरह विलुप्त हो जाते हैं।’ तब सारिपुत्त उन स्वभावों से बिना आकर्षित हुए, बिना प्रतिकर्षित हुए—स्वतंत्र, निर्लिप्त, विमुक्त, अलगावपूर्ण व बिना अवरोधपूर्ण चित्त के साथ रहा। तब उसे लगा कि ‘अब इससे आगे निकलने का मार्ग नहीं!’ उसे आगे बढ़ने पर पता चला कि वाक़ई निकलने का मार्ग उपलब्ध नहीं था! यदि कोई किसी व्यक्ति का वर्णन करते हुए कहे कि ‘उसने ‘आर्यशील’ में महारत व परिपूर्णता हासिल की… ‘आर्यसमाधि’ में… ‘आर्यअन्तर्ज्ञान’ में… ‘आर्यविमुक्ति’ में महारत व परिपूर्णता हासिल की’—तब ऐसा वर्णन सारिपुत्त का सही रहेगा! … तथागत द्वारा घुमाए सर्वोपरि धर्मचक्र को वाक़ई सारिपुत्त सही तरह से घुमाते जा रहा है! «मा.नि.१११»
सप्तधातु यह सात धातुएं होती हैं—उजाला धातु, आकर्षण धातु, अनंत आकाश-आयाम धातु, अनंत चैतन्यता-आयाम धातु, सूना-आयाम धातु, न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम धातु, नज़रिया-संवेदना-निरोध धातु। “भगवान, किसका आधार लेकर यह धातुएं समझी जाती है?” — अँधेरे का आधार लेकर उजाला धातु समझी जाती है। अनाकर्षक का आधार लेकर आकर्षण धातु समझी जाती है। रूप का आधार लेकर अनंत आकाश-आयाम धातु समझी जाती है। अनंत आकाश-आयाम का आधार लेकर अनंत चैतन्यता-आयाम धातु समझी जाती है। अनंत चैतन्यता-आयाम का आधार लेकर सूना-आयाम धातु समझी जाती है। सूने-आयाम का आधार लेकर न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम धातु समझी जाती है। निरोध का आधार लेकर नज़रिया-संवेदना-निरोध धातु समझी जाती है। “भगवान, इन धातु-अवस्था तक कैसे पहुँचा जाता है?” — उजाला.. आकर्षण.. अनंत आकाश-आयाम.. अनंत चैतन्यता-आयाम.. सूना-आयाम—यह पाँच धातुएं नज़रियों की उपलब्धि द्वारा पहुँची जाती है। ‘न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम धातु’ रचनाओं के शेष होने से पहुँची जाती है। नज़रिया-संवेदना-निरोध धातु निरोध की उपलब्धि होने से पहुँची जाती है। «सं.नि.१४:११»
अट्ठ विमोक्ख महावत के नेतृत्व में दमनयोग्य हाथी एक ही दिशा में बढ़ता है—पूर्व पश्चिम उत्तर या दक्षिण… परंतु तथागत के नेतृत्व में दमनयोग्य पुरुष आठ दिशाओं [=विमोक्ष की आठ अवस्थाएँ] में बढ़ता है। (१) वह रूपी होकर [=धातु-विशेष संवेदनाएँ महसूस कर] [बाहरी] रूप देखता है—यह प्रथम दिशा है। (२) वह भीतर से अरूप नज़रियेवाला होकर [=स्वयं धातु-विशेषता लाँघकर] बाहरी [धातु-विशेष] रूप देखता है—यह द्वितीय दिशा है। (३) वह मात्र अच्छाई की ओर मुड़ता है—यह तृतीय दिशा है। (४) वह रूप नज़रिया पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नज़रिए ओझल होने पर, विविध नज़रियों पर ध्यान न देकर, ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में प्रवेश कर रहता है—यह चतुर्थ दिशा है। (५) वह अनंत आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्यता अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्यता-आयाम में प्रवेश कर रहता है—यह पाँचवी दिशा है। (६) वह अनंत चैतन्यता-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में प्रवेश कर रहता है—यह छठी दिशा है। (७) वह सूना-आयाम पूर्णतः लाँघकर न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम में प्रवेश कर रहता है—यह सातवीं दिशा है। (८) वह न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम पूर्णतः लाँघकर नज़रिया-संवेदना-निरोध में प्रवेश कर रहता है—यह आठवीं दिशा है। — यह आठ विमोक्ष होते है। भिक्षु समाधि विकसित कर, बार-बार कर अन्ततः उनका साक्षात्कार करता है। «मा.नि.१३७»
सच्छिकरणीय भिक्षुओं, चार तरह से धर्मों का साक्षात्कार करना होता है। अपनी काया से धर्म का साक्षात्कार करना होता है। अपनी स्मृति से धर्म का साक्षात्कार करना होता है। अपनी आँखों से धर्म का साक्षात्कार करना होता है। तथा अपने अन्तर्ज्ञान से धर्म का साक्षात्कार करना होता है। किससे किस धर्म का साक्षात्कार करना होता है? • अपनी काया से आठ विमोक्षों का साक्षात्कार करना होता है। • अपनी स्मृति से पूर्वजन्मों के स्मरण का साक्षात्कार करना होता है। • अपनी [दिव्य] आँखों से सत्वों के गति ज्ञान का साक्षात्कार करना होता है। • अपने अन्तर्ज्ञान से बहाव थमने का साक्षात्कार करना होता है। «अं.नि.४:१८९»
बाहिय, तुम्हें इस तरह सीखना चाहिए: • «दिट्ठे दिट्ठमत्तं भविस्सति» देखने में मात्र देखना ही होगा, • «सुते सुतमत्तं भविस्सति» सुनने में मात्र सुनना ही होगा, • «मुते मुतमत्तं भविस्सति» महसूस करने में मात्र महसूस करना ही होगा, • «विञ्ञाते विञ्ञातमत्तं भविस्सति» जानने में मात्र जानना ही होगा। जब तुम्हारे लिए ऐसा हो जाएगा—देखने में मात्र देखना, सुनने में मात्र सुनना, महसूस करने में मात्र महसूस करना, जानने में मात्र जानना—तब उन्हें लेकर [उन प्रक्रियाओं में कहीं] ‘तुम’ नहीं हो। जब उन्हें लेकर तुम नहीं हो, तो तुम नहीं रहोगे। जब तुम नहीं हो—तब तुम न यहाँ, न वहाँ, न कहीं बीच में रहोगे! बस, यही अंत है दुःखों का! «उदान १:१०»
जिसे झान नहीं, उसे अन्तर्ज्ञान नहीं।
किंतु जिसे हो झान भी, अन्तर्ज्ञान भी
—वह समीप निर्वाण के।
सारिपुत्त उदाहरण
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