मेरे सब्रह्मचारी भिक्षुओं के साथ वर्षों से धर्माभ्यास करते हुए, धर्मचर्चा करते हुए, धर्म समझकर साधना कर, धर्म-प्रतिपादन करते हुए, मुझे अक़्सर एक ऐसे पुस्तक की ज़रूरत महसूस होती थी—
१. जो सभी के लिए उपयुक्त हो, तथा सभी को सरलतापूर्वक समझ आये—चाहे वह कभी धर्म न सुना आम आदमी हो, या धर्म-सुने उपासक, उपासिका, साधक या भिक्षु हो,
२. जो विमुक्ति और विमोक्ष छूने के लिए आवश्यक मूल-सूत्रों और सिद्धांतों से अवगत भी कराए, और बार-बार दर्शन भी कराते रहें; जो भले ही पहली-बार पढ़कर शायद न समझे, किंतु कुछ समय देने पर, धारण कर साधना करने पर, अंततः उसका बहुआयामी, गहरा अर्थ भेद पाने में सक्षमता आए, और सफलता मिलें,
३. जो धातु-विशेष भिन्न साधकों के भिन्न प्रगतिपथों पर प्रकाश तो डाले ही, किंतु जो विभिन्न पायदानों पर खड़े सभी साधकों के लिए उपयुक्त भी हो; अर्थात, जो सभी साधकों को अंतिम-फ़ल तक निजी, व्यक्ति-विशेष मार्गदर्शन करते रहें,
४. जो हमेशा सिरहाने होते हुए, साधकों को इस तरह आध्यात्मिक साथ देते रहें, मानो भगवान स्वयं दीर्घकालीन हित व सुख जानते हुए—जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी सिकोड़ी-बाँह पसारे, या पसारी-बाँह सिकोड़े—वैसे आगे उपस्थित होकर, बार-बार अपनी ब्रह्मस्वर अमृतवाणी से शान्ति प्रदान करते रहें, सांत्वना देते रहें, सम्यक-मार्ग पर रखें, अग्रसर होने के लिए प्रोत्साहन भी देते रहें, और वक़्त आने पर फटकारें भी।
मैंने अन्य किसी साहित्य का उपयोग न कर, मात्र ‘पालि पञ्चनिकाय’ से ही सुत्तों को इकठ्ठा किया है, जिसके कारण निम्नलिखित है;
ई.पू.४८३ के लगभग भगवान के महापरिनिर्वाण पश्चात सद्धम्म को विशुद्ध अवस्था में टिकाए रखने के लिए उस समय ‘संघ के पितामह’ समझे जानेवाले भन्ते महाकश्यप ने भिक्षु-संगीति की पहल की। उन्होंने राजगृह, बिहार की सप्तपर्णी गुफ़ा में पाँच-सौ अर्हन्तों के साथ वर्षावास करते हुए, विनय के साथ-साथ ‘पालि पञ्चनिकाय’ का संगायन कराया, जिसे सुगत-विदित, सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘सद्धम्म’ माना गया।
याद रहें, प्रथम-संगीति या इसके लगभग सौ वर्षों पश्चात ई.पू.३८३ में हुई द्वितीय-संगीति में भी ‘सुत्तपिटक’ या ‘अभिधम्मपिटक’ इन शब्दों का उल्लेख तक नहीं मिलता। किंतु लगभग ढाई-सौ वर्षोंपश्चात, ई.पू.२४८ में तृतीय-संगीति हुई, जिसमें खुद्दकनिकाय के अंतर्गत कुछ नया साहित्य जोड़ा गया। उसे कुल मिलाकर ‘सुत्तपिटक’ कहा गया, जबकि ‘माटिका’ नामक शिक्षाओं को ‘अभिधम्मपिटक’ के रूप में विकसित किया गया। और इसी के साथ अब तक संवृत व सुरक्षित रखा गया सद्धम्म बाहरी मिलावट के लिए खुलता ही चला गया।
आगे चलकर पालि साहित्य की ‘त्रिपिटक’ के रूप में उत्क्रांति होने लगी, और अनेक शताब्दियों तक बाहरी ‘अप्रमाणित’ हिस्से भी इसमें जोड़े जाते रहें। ‘सद्धम्म’ होने का प्रमाणपत्र देने वाले, या सद्धम्म की कसौटी पर जांच-परखने वाले विश्वसनीय महाश्रावक अर्हन्तों के अभाव में अनेक भाषातत्वज्ञ भिक्षुओं ने आगे चलकर विवादास्पद और अतिशयोक्तिपूर्ण बाहरी ग्रन्थ भी लिखे, जैसे अट्ठकथाएँ, विशुद्धिमग्गो, मिलिन्दपञ्ह, विमुत्तिमग्गो, टिका, अनुटिका इत्यादि। यह बाहरी ग्रन्थ प्रथम-संगीति के लगभग नौ-सौ वर्षोंपश्चात लिपिबद्ध हुए थे, जो कई बार मूल ‘पालि पञ्चनिकाय’ के मुलभुत-सूत्रों या धर्म-सिद्धांतों के विपरीत भी जाते थे। किंतु विषयात्मक-रूप से व्यवस्थित व परिष्कृत होने के कारण उन्हें पसंद किया गया, और आज तक वे ‘पांडित्यपूर्ण’ माने जाकर, पढ़े जाते और संदर्भित होते हैं।
और आगे चलकर लोगों ने जिस तरह सम्यक-समाधि की आवश्यकता को दरकिनार कर, ‘चार झान’ अवस्थाओं को बाईपास करते हुए, अन्य ध्यान-साधनाएँ और विधियाँ निकाली, जिसमें ‘सूखी विपस्सना’ विधि भी शामिल है, वे भी मूल बुद्धवाणी के विपरीत जाती हैं। भगवान ने आगाह भी किया था कि आगे चलकर मार-वशीभूत लोग ऐसा ही करेंगे—समाधि-झान में खोट निकाल, उससे भयभीत करा, उसे नहीं करना चाहेंगे, और आर्य-फ़ल से वंचित रहेंगे। या अपनी भिन्न परिभाषा वाली झान-अवस्था का ईजात करेंगे, और आर्य-फ़ल से वंचित रहेंगे।
आर्य-फ़ल पाना इतना भी कठिन नहीं कि कई कल्प या कई जीवन तक न मिलें। भगवान तो अनागामी या अरहन्तपद के लिए अधिक से अधिक सात-वर्षों की साधना बताते है। किंतु बाहरी अधम्म-मिलावटों के कारण आजकल लोग ‘चार आर्यसत्य’ न समझते हुए, ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ की परिशुद्ध साधना न कर, ‘पारमिताएं’ इकठ्ठा करने में ही संतोष महसूस करते हैं। मेरी भी धम्म में शुरुवात ऐसी ही मिथ्या-धारणा के साथ हुई। किंतु जब मैंने प्राचीनतम ‘पालि पञ्चनिकाय’ स्वयं पढ़ा, और पाया कि भगवान ने भिक्षु-भिक्षुणियों, उपासक-उपासिकाओं को कभी पारमिताएं इकठ्ठा करने कहा ही नहीं; बल्कि मात्र ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ की साधना करने ही कहा, तब मुझे बड़ी हैरत हुई। उपासक-जीवन में ही आगे विशुद्ध सद्धम्म पढ़ते हुए, साथ ही साधना करते हुए, अंततः मैं भी कहने को मजबूर हुआ—‘उत्तम, हे गोतम! अतिउत्तम! जैसे उलटे हुए को कोई सीधा करें, या छिपे हुए को कोई खोल दे, या भटके हुए को कोई मार्ग दिखाए, या अँधेरे में कोई दीप जलाकर दिखाए, जिससे अच्छी आँखोंवाला साफ़ देख पाए—उसी तरह आपने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म एवं संघ की!’ और मैं भी सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गया।
मेरी व्यक्तिगत राय है कि यदि लोग अब तक सुना-हुआ धर्म भूल जाए, अपनी सभी पूर्व-धारणाएँ त्याग दे, और मात्र एक मौक़ा ठीक से अनुवादित ‘पालि-पञ्चनिकाय’ को दे—मानो सब भुलाकर भगवान के समक्ष बैठे हो—तो प्रथम आर्य-फ़ल चौकानेवाली शीघ्र-गति से मिलेगा।
मैं यह दावा नहीं कर सकता कि यह पुस्तक परिपूर्ण या त्रुटिहीन है। किंतु यह पुस्तक एक ऐसी परियोजना है, जहाँ किसी अन्य बाहरी-व्यक्ति को व्यक्तिगत-स्तर पर निकाले पूर्वाग्रहित अर्थ, परिभाषा व सुझावों को भगवान के बहुआयामी, गहरे व बहुअर्थपूर्ण सद्धम्म पर थोपने का मौका ही न मिले, या इसकी नौबत आए भी तो कम-से-कम। मैं आशा करता हूँ कि ऐसा करके हम भगवान को मौका दे पाएँगे कि वे अपने अंदाज़ में हमें ऐसा अकालिक धम्म बताए, जो पुनः पढने पर अपने भिन्न पहलु, भिन्न आयाम की गहराई खोलते जाए, और हमारी प्रज्ञा का स्तर ऊँचा उठाते जाए।
मैंने अनेक वर्षों तक ‘पालि पञ्चनिकाय’ में से साधना-संबंधित मूल सुत्तों को इकठ्ठा करते हुए, उन्हें विषयात्मक-रूप से क्रमबद्ध कर, उसे अपने आप में एक स्वचलित प्रवाह देने का प्रयास किया है, जिसमें अध्याय-परिचय द्वारा भी पूर्वधारणा पनपने को जगह न मिलें। एक ऐसी पहल, जिसमें भगवान बुद्ध और श्रोताओं के बीच कोई न आए। और समकालीन श्रोताओं को भी कहने का मौका मिलें, ‘आश्चर्य है भगवान, अद्भुत है!’
इसके लिए मैंने पूज्य गुरुवर थानिसारो भिक्खु (www.dhammatalks.org) के अनेक पालि-अंग्रेजी अनुवादों और पुस्तकों से मदद ली, ख़ास तौर पर Wings to Awakening इत्यादि। मैंने धम्म के अधिकतर सैद्धांतिक शब्द, जैसे ‘सञ्ञा’, ‘सङखार’, ‘सति’ इत्यादि, जिनका अर्थ घुमा-घुमाकर अत्याधिक विकृतीकरण हो चूका, उन्हें उनके प्रायोगिक व ऐतिहासिक पूर्वसंदर्भ में नये, आसान तरह से पुनर्व्याख्यित करने का प्रयास किया है। बेहतरीन व विश्वसनीय अंग्रेजी-अनुवादों के लिए मैंने थानिसारो भिक्खु के अलावा भिक्खु बोधि (Wisdom Publications), भिक्खु सुजातो (www.suttacentral.net), T.W. Rhys Davids का उपयोग किया है। इनके अलावा मैंने राहुल सांकृत्यायन, भिक्खु आनन्द कौसल्यायन, और भिक्खु जगदीश कश्यप द्वारा हिंदी-अनुवादों से भी मदद ली। उनके अलावा मैंने मूल पालि का सन्दर्भ लेते हुए, विभिन्न पालि-अंग्रेजी शब्दकोषों से भी उचित व्याख्या ली। मुझे लगता है कि इस तरह अनेक भाषानुवाद और पहलुओं का अभ्यास करते हुए धम्म के प्रति मेरी समझ अधिक गहरी होती गयी, जिसका निचोड़ मैंने यहाँ इस पुस्तक में देने का प्रयास किया है।
मेरे सब्रह्मचारी भिक्खु कोलित व भिक्खु अभिभु ने मुझे हर तरह से स्नेहपूर्ण सहयोग व सुझाव दिए, प्रेरित किया, और अनेक बार धैर्य की सीमा बढाते हुए मेरे अनुवादों में सैकड़ों दुरुस्तीयाँ की, और प्रवाह उत्पन्न किया, जिनके सिवाय यह पुस्तक शायद कभी न बन पाती। मैं उनका हमेशा ऋणी रहूँगा! बहन और पिता की ओर से अनेक सुझाव, दुरुस्तीयाँ व सहयोग मिलता रहा, जिनका नाम यहाँ उल्लेख करना शायद उन्हें अटपटा लगे। श्रामणेर प्रज्ञारक्खित ने अनेक तरह से मदद की। आकाश उज्वल ने कवरपेज डिज़ाइन किया। छोटी-बड़ी सहायता अन्य लोगों से मिलती रहीं। इसके अलावा जो त्रुटियाँ रह गयी, उनके लिए मैं स्वयं ज़िम्मेदार हूँ।
और इस पुस्तक को छापकर मुफ़्त वितरण के लिए चुनिंदा पुण्यवान लोगों ने दान दिया हैं, और दे ही रहे हैं। उनका दानपुण्य धर्म में अतुल्य रहेगा। अंततः मैं पुनः माता-पिता, भाई-बहनों व कॉलेज के मित्रों को भी धन्यवाद देता रहूँगा, जिन्होंने पल-पल पर मेरा ह्रदय असीमित प्रेम और विश्वास से भरते हुए, आलोचनात्मक-बुद्धि विकसित कराने में मदद की।
आजकल की दुनिया अचानक अप्रत्याशित ढ़ंग और गति से बदल रही है—चाहे अर्थव्यवस्थाएँ हो, या भूराजनीतिक-समीकरण; जलवायु-परिवर्तन हो, या उत्पन्न होती नयी बीमारियाँ; टूटते आपसी-रिश्ते हो, या विक्षिप्त होती मनोवस्थाएँ; पतन होता आध्यात्मिक-जीवन हो, या अदृश्य-रूप से होता हमला; आम लोग भी महसूस कर पा रहे है कि दुनिया में कुछ अजीब ज़रूर घट रहा है। कौन जानता है आगे क्या होगा? याद रहें, भगवान ने कभी पाँच-हज़ार वर्षों का बुद्धसासन, या द्वितीय-बुद्धसासन का जिक्र नहीं किया, बल्कि केवल पाँच-सौ वर्षों का कहा, जिसमें लोगों को बिना मिलावट का सद्धम्म सुनने मिलेगा। आगे चलकर धर्म के नाम पर आशापूर्ण भविष्यवाणियाँ तो चल पड़ती ही हैं, लेकिन भगवान के अनुसार अच्छे दिन बीत चुके। नामी पश्चिमी खगोल-भौतिकवैज्ञानिकों ने भी पृथ्वी के भविष्य को लेकर जहाँ अपने हाथ उठा लिए, मैं सहानुभूति रखता हूँ कि इतनी डगमगाती दुनिया में धर्म-साधना करना आसान नहीं।
मुझे लगता है कि यह समय मौन रहकर, अकेले साधना करने के लिए उचित नहीं। याद रहें कि आध्यात्मिक-प्रगति हमेशा सीधी या एक-गति में कभी नहीं होती; उतार-चढ़ाव होते ही हैं। प्रज्ञावान व्यक्ति समय व परिस्थिति देखकर अपने गियर बदलता है, रास्ता नहीं। रास्ता तो आर्य अष्टांगिक-मार्ग ही रहें, किंतु रफ़्तार तेज़ या धीमे की जा सकती है, ताकि कलपुर्जे सलामत बचें, और यात्रा में अत्याधिक कष्ट भी न हो।
मेरा सुझाव है कि जो लोग साधना न कर पाए, वह मात्र पुस्तक पढ़कर ह्रदय-परिवर्तन भी करते रहें, तब भी बहुत पा लेंगे; मृत्युपरान्त सुगति की आशंका बढ़ेगी। दुनिया से उम्मीद न रखें, मात्र आर्य-मार्ग में ही आशा की किरण देखें। दुनिया ढ़हती है तो ढ़हने दे, उसके साथ अपना चित्त भी न ढ़हने दे। बल्कि उसे ऐसा आधार देने का प्रयास करें, जो कभी नहीं ढ़हता—निर्वाण।
—भिक्खु कश्यप
(तारीख: ३ अक्टूबर २०२१)