नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

बहुरूपिया बाघ

आचार्य मन ने बताया कि चियांग माई के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले ज्यादातर लोगों ने पहले कभी भिक्षु नहीं देखे थे। जो लोग बड़े शहरों में जाते थे, सिर्फ वही भिक्षुओं के बारे में जानते थे।

जब आचार्य मन और एक अन्य भिक्षु यात्रा पर निकले, तो वे एक पहाड़ी गाँव से लगभग डेढ़ मील दूर जंगल में रहने लगे। उन्होंने पेड़ों के नीचे आश्रय लिया और वहां रहने लगे। सुबह जब वे गाँव में भिक्षा लेने गए, तो गाँव वालों ने उनसे पूछा कि वे कौन हैं और यहाँ क्यों आए हैं। आचार्य मन ने बताया कि वे भोजन के लिए भिक्षा मांगने आए हैं। गाँव वाले इस बात से अनजान थे, तो उन्होंने पूछा कि इसका क्या मतलब है। जब आचार्य मन ने कहा कि वे चावल का दान लेने आए हैं, तो उन्होंने पूछा कि उन्हें पका हुआ चावल चाहिए या कच्चा। आचार्य मन ने पका हुआ चावल मांगा, गाँव वालों ने थोड़ा-थोड़ा चावल उनके भिक्षापात्र में डाल दिया। इसके बाद दोनों भिक्षु अपने शिविर में लौट गए और साधारण चावल खाकर अपना दिन बिताने लगे।

गाँव वालों को उन पर संदेह था, क्योंकि उन्होंने पहले कभी भिक्षुओं को नहीं देखा था। उसी शाम गाँव के मुखिया ने सबको इकट्ठा किया और एक घोषणा की। उसने कहा कि जंगल में दो ‘छिपे हुए बाघ’ आ गए हैं। उसका मतलब था कि ये भिक्षु किसी खतरे की तरह हो सकते हैं। उसने लोगों को सावधान किया कि वे जंगल में अकेले न जाएं, खासकर महिलाएँ और बच्चे। पुरुषों को यदि जाना हो, तो समूह में और हथियार लेकर जाना चाहिए।

जब गाँव में यह बात हो रही थी, तब आचार्य मन ध्यान कर रहे थे। उन्होंने यह सब सुना और जाना कि गाँव वाले उन्हें खतरनाक समझ रहे हैं। यह जानकर उन्हें दुख हुआ, लेकिन उन्होंने क्रोध नहीं किया। इसके बजाय, उन्होंने गाँव वालों के लिए करुणा महसूस की। उन्हें चिंता हुई कि अगर ये लोग झूठी बातों पर विश्वास करते रहेंगे, तो इसका बुरा परिणाम उनके कर्मों पर पड़ेगा।

अगली सुबह, आचार्य मन ने अपने शिष्य से कहा, “गाँव के मुखिया ने हमें ‘छिपे हुए बाघ’ कहा है। उनका मानना है कि हम भिक्षु के वेश में आए हैं ताकि गाँव वालों को धोखा दें और उनका नुकसान करें। इसलिए वे हम पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। यदि हम अभी यहाँ से चले जाएँ, तो उनकी यह गलतफहमी बनी रहेगी, और इससे उनका भविष्य भी बिगड़ सकता है। इसलिए हमें धैर्य रखना होगा और तब तक यहाँ रहना होगा, जब तक वे समझ न जाएँ कि हम उनके लिए कोई खतरा नहीं हैं।”

गाँव वाले उन पर नजर रखने लगे। तीन-चार हथियारबंद लोग नियमित रूप से जंगल में जाकर देखते कि वे क्या कर रहे हैं। कभी वे दूर से देखते, कभी ध्यान करते हुए आचार्य मन के पास आ जाते। वे पूरे क्षेत्र का निरीक्षण करते और फिर चले जाते। यह सिलसिला कई हफ्तों तक चलता रहा।

गाँव वालों को इस बात की चिंता नहीं थी कि भिक्षुओं के पास पर्याप्त भोजन है या नहीं। भिक्षा में उन्हें अधिकतर सादा चावल मिलता, जो कभी पर्याप्त होता, तो कभी बहुत कम। कई बार उन्हें केवल पानी पीकर ही गुजारा करना पड़ता। इस तरह, जंगल में उनका जीवन कठिनाई भरा था, लेकिन फिर भी उन्होंने धैर्य और करुणा के साथ सब सहन किया।

आचार्य मन और उनके शिष्य के पास कोई गुफा या चट्टान नहीं थी जहाँ वे शरण ले सकते। इसलिए, वे पेड़ों के नीचे रहते और सोते थे, जिससे उन्हें धूप और बारिश सहनी पड़ती थी। जब उस क्षेत्र में बारिश होती, तो पूरे दिन पानी बरसता रहता। जब बारिश कम होती और चीजें थोड़ी सूख जातीं, तो वे सूखी पत्तियाँ और घास इकट्ठा करके एक अस्थायी छप्पर बनाने की कोशिश करते, ताकि मौसम से थोड़ी सुरक्षा मिल सके। हालाँकि यह बहुत असुविधाजनक था, फिर भी इससे उन्हें दिन-प्रतिदिन जीवित रहने में मदद मिलती थी।

भारी बारिश के दौरान, वे ठंडी हवा से बचने के लिए अपने तंबू-छतरियों के नीचे कपड़े की चादर लटकाकर शरण लेते थे। लेकिन बारिश के साथ तेज़ हवाएँ भी चलती थीं, जो पहाड़ों से नीचे आतीं और उनकी छतरियाँ उड़ा देतीं, उनका सामान भिगो देतीं, और वे खुद भी भीगकर काँपने लगते। दिन में होने पर वे देख सकते थे कि क्या करना है, लेकिन रात में यह स्थिति और भी कठिन हो जाती थी। बारिश और तेज़ हवा से पेड़ों की शाखाएँ टूटकर गिरती थीं, जिससे वे हमेशा खतरे में रहते थे। उन्हें यह भी पता नहीं होता था कि वे इस मुश्किल समय से सुरक्षित बाहर निकल पाएँगे या नहीं।

इन कठिनाइयों के बीच, उन्होंने बस धैर्य से सब सहन किया। उन्हें गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास और अपने अस्तित्व की अनिश्चितता को झेलना पड़ा, जबकि वे गाँव वालों के विश्वास जीतने का इंतजार कर रहे थे। उन्हें केवल सादा चावल ही भिक्षा में मिलता था, वह भी कभी पर्याप्त होता तो कभी नहीं। पीने के पानी की भी बहुत दिक्कत थी। इसके लिए उन्हें पहाड़ की तलहटी तक जाकर केतली भरनी पड़ती थी और फिर पानी लेकर ऊपर आना पड़ता था।

इतनी कठिन परिस्थितियों के बावजूद, गाँव वालों ने उनकी तकलीफों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई।

कठिनाइयों के बावजूद, आचार्य मन ने चिंताओं और जिम्मेदारियों से मुक्त महसूस किया क्योंकि उनका ध्यान साधना बिना किसी बाधा के आगे बढ़ रहा था। उन्हें जंगल में जंगली जानवरों की आवाज़ सुनना बहुत अच्छा लगता था। देर रात जब वे पेड़ों के नीचे ध्यान में बैठते, तो बाघों की दहाड़ लगातार सुनाई देती। लेकिन आश्चर्य की बात थी कि ये विशाल बाघ शायद ही कभी उस जगह आते जहाँ वे बैठे होते। कभी-कभी कोई बाघ चुपके से आचार्य मन के पास आ जाता, शायद उन्हें जंगली शिकार समझकर। लेकिन जैसे ही उसने देखा कि आचार्य मन स्थिर और शांत हैं, वह घबरा जाता और तुरंत जंगल में भाग जाता।

लगभग हर दोपहर, तीन-चार आदमी उन्हें देखने आते। वे चुपचाप खड़े रहकर आपस में फुसफुसाते, लेकिन आचार्य मन उनकी उपस्थिति को नज़रअंदाज कर देते। जब वे आते, तो आचार्य मन अपने चित्त को उनके विचारों पर केंद्रित करते। निश्चित रूप से, उन ग्रामीणों को कभी संदेह नहीं हुआ कि वह जान सकते हैं कि वे क्या सोच रहे थे या किस बारे में कानाफूसी कर रहे थे। शायद उन्होंने इस संभावना पर कभी विचार ही नहीं किया कि कोई उनके विचारों को समझ सकता है। आचार्य मन ने हर आने वाले व्यक्ति पर ध्यान केंद्रित किया और पाया कि वे बस कोई गलती पकड़ने की कोशिश कर रहे थे।

इसके बावजूद, आचार्य मन ने ग़लती निकालने वालों के प्रति करुणा ही रखी। उन्हें पता था कि गाँव के अधिकतर लोग कुछ ही लोगों के भ्रामक प्रभाव में थे। कई महीनों तक गाँव वालों ने उन्हें गलत साबित करने की कोशिश की, लेकिन कुछ भी साबित नहीं कर सके। वे उन्हें भगाने की कोशिश नहीं कर रहे थे, बल्कि बस उनकी हर हरकत पर नज़र रख रहे थे। उनकी लगातार निगरानी के बावजूद, वे किसी भी गलत काम का प्रमाण नहीं ढूँढ सके।

एक शाम ध्यान में बैठे हुए, आचार्य मन को मानसिक रूप से पता चला कि गाँव के लोग उनके बारे में चर्चा करने के लिए इकट्ठा हुए हैं। उन्होंने देखा कि गाँव का मुखिया अपने लोगों से पूछ रहा था कि उनकी निगरानी का क्या नतीजा निकला। जो लोग आचार्य मन और उनके शिष्य पर नज़र रख रहे थे, उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि उन्हें कोई संदेहजनक गतिविधि नहीं मिली। वे सोचने लगे कि अगर उन्होंने संदेह के आधार पर इन भिक्षुओं के साथ बुरा व्यवहार किया, तो यह उनके लिए हानिकारक हो सकता है।

मुखिया ने पूछा, “तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?”

उन्होंने उत्तर दिया, “जहाँ तक हमने देखा, उनके आचरण में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे हमारे संदेह की पुष्टि हो। जब भी हम उन्हें देखते हैं, वे या तो ध्यान में बैठे होते हैं या शांत भाव से टहल रहे होते हैं। जो लोग धोखे से भिक्षु बनकर शिकार करने की योजना बना रहे हों, वे शायद ही ऐसा शांत व्यवहार करेंगे। अब तक अगर वे गलत इरादे रखते, तो हमें कोई न कोई संकेत मिल जाता, लेकिन हमने ऐसा कुछ नहीं देखा। अगर हम उनके साथ संदेह की भावना से व्यवहार करते रहे, तो हमें इसके बुरे परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। सही तरीका यह होगा कि हम उनसे बात करें और उनके इरादों को समझने की कोशिश करें। बिना प्रमाण के उन्हें खतरनाक मान लेना हमारे लिए नुकसानदायक हो सकता है।”

अच्छे भिक्षु मिलना मुश्किल होता है। हमें अच्छे और बुरे भिक्षुओं में अंतर करने का अनुभव है। ये भिक्षु हमारे सम्मान के योग्य हैं, इसलिए हमें जल्दबाजी में उन पर विश्वासघात का आरोप नहीं लगाना चाहिए। पूरी सच्चाई जानने के लिए हमें उनसे बात करनी चाहिए। हमें पूछना चाहिए कि वे आँखें बंद करके क्यों शांत बैठे रहते हैं और इधर-उधर क्यों घूमते हैं — वे आखिर क्या खोज रहे हैं?

गाँव वालों ने फैसला किया कि वे भिक्षुओं से सवाल पूछने के लिए एक प्रतिनिधि भेजेंगे। अगली सुबह, आचार्य मन ने अपने साथी से कहा, “गाँव वालों का मन बदलने लगा है। कल रात उन्होंने हमारी निगरानी को लेकर एक बैठक की और तय किया कि वे हमसे सीधे सवाल पूछने के लिए किसी को भेजेंगे।”

आचार्य मन का अंदाजा सही निकला। उसी दोपहर, गाँव का एक व्यक्ति उनके पास आया और पूछा, “आप आँखें बंद करके चुपचाप क्यों बैठे रहते हैं? या फिर कभी-कभी इधर-उधर क्यों घूमते हैं? आप क्या खोज रहे हैं?”

आचार्य मन ने उत्तर दिया, “मैंने अपना बुद्ध खो दिया है। मैं बैठकर और चलते हुए बुद्ध को खोज रहा हूँ।”

गाँव वाले ने पूछा, “यह बुद्ध क्या है? क्या हम इसे खोजने में आपकी मदद कर सकते हैं?”

आचार्य मन ने समझाया, “बुद्ध तीनों लोकों में सबसे अनमोल रत्न है — सर्वव्यापी ज्ञान का रत्न। अगर आप मेरी मदद करेंगे, तो यह बहुत अच्छा होगा। फिर हम सभी जल्दी और आसानी से बुद्ध को देख सकेंगे।”

गाँव वाले ने फिर पूछा, “क्या आपका बुद्ध बहुत समय से खोया हुआ है?”

आचार्य मन ने उत्तर दिया, “शुरू करने के लिए, बस १५-२० मिनट तक शांति से बैठें या धीरे-धीरे चलें। बुद्ध नहीं चाहता कि आप इसे खोजने में बहुत समय लगाएँ। अगर आप थक जाएँगे, तो खोजने की इच्छा खत्म हो जाएगी और आप इसे पूरी तरह खो देंगे। इसलिए धीरे-धीरे शुरुआत करें। अगर मैं ज्यादा समझाऊँगा, तो आपको याद रखना मुश्किल होगा और बुद्ध से मिलने का मौका कम हो जाएगा।”

यह सुनकर गाँव का आदमी वापस चला गया। उसने आचार्य मन से किसी खास तरीके से विदा नहीं ली, क्योंकि उनकी जनजाति में ऐसा कोई रिवाज नहीं था। जैसे ही वह गाँव पहुँचा, सभी लोग उत्सुकता से इकट्ठा हो गए और पूछने लगे कि क्या हुआ।

उसने गाँव वालों को बताया कि आचार्य मन आँखें बंद करके क्यों बैठते हैं और क्यों घूमते हैं — वह कोई छिपा हुआ रहस्य नहीं छिपा रहे थे, बल्कि एक अनमोल रत्न, बुद्ध को खोज रहे थे। फिर उसने बुद्ध को खोजने का सरल तरीका भी बताया।

जब गाँव वालों ने इसे समझ लिया, तो गाँव का मुखिया, महिलाएँ और बड़े बच्चे — सभी ने साधना करना शुरू कर दिया और मन ही मन ‘बुद्ध’ का उच्चारण करने लगे।

कई दिनों बाद कुछ अद्भुत हुआ। भगवान बुद्ध का धर्म एक ग्रामीण के चित्त में स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ। आचार्य मन के सुझाव के अनुसार, उसने बार-बार “बुद्धो” शब्द को मन में दोहराया और उसके भीतर शांति और स्थिरता आ गई।

कुछ दिन पहले, उस व्यक्ति ने सपना देखा था कि आचार्य मन उसके सिर के ऊपर एक बड़ी, चमकती हुई मोमबत्ती रख रहे हैं। जैसे ही मोमबत्ती उसके सिर पर रखी गई, उसका पूरा शरीर सिर से पैर तक प्रकाश से भर गया। वह बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि यह रोशनी न केवल उसे बल्कि उसके आसपास के पूरे क्षेत्र को भी प्रकाशित कर रही थी।

शांति की यह स्थिति प्राप्त करने के बाद, वह तुरंत आचार्य मन के पास पहुँचा और उन्हें अपनी उपलब्धि तथा उस अद्भुत सपने के बारे में बताया। आचार्य मन ने उसे साधना जारी रखने के लिए और मार्गदर्शन दिया। उसकी प्रगति बहुत तेज़ थी — जल्द ही, वह मानसिक रूप से अन्य लोगों के विचारों को समझने में सक्षम हो गया। उसने इस बात को बहुत ही सरल और सीधे तरीके से, वनवासियों की तरह, आचार्य मन को बताया।

कुछ समय बाद, उसने आचार्य मन से कहा कि उसने उनके चित्त को जाँचकर उसकी विशेषताओं को स्पष्ट रूप से देखा है। मुस्कुराते हुए आचार्य मन ने चंचलता से पूछा, “क्या तुमने मेरे चित्त में कुछ बुराई देखी?”

गांव वाले ने बिना हिचकिचाए उत्तर दिया, “आपके चित्त में कोई केंद्र बिंदु नहीं है — केवल एक असीम प्रकाश है जो भीतर से चमक रहा है। आपकी श्रेष्ठता दुनिया में कहीं भी बेजोड़ है। मैंने ऐसा कुछ पहले कभी नहीं देखा। आप यहाँ लगभग एक साल से हैं, लेकिन आपने मुझे यह शुरुआत में क्यों नहीं सिखाया?”

आचार्य मन ने उत्तर दिया, “मैं तुम्हें कैसे सिखा सकता था? तुमने कभी मुझसे कोई सवाल ही नहीं किया।”

उस व्यक्ति ने कहा, “मुझे नहीं पता था कि आप इतने महान गुरु हैं। अगर मुझे पहले पता होता, तो मैं जरूर सीखने आता। अब हम सभी समझ गए हैं कि आप अत्यंत बुद्धिमान व्यक्ति हैं। जब हमने आपसे पूछा था कि आप आँखें बंद करके क्यों बैठे रहते हैं और चलते-फिरते क्या खोज रहे हैं, तो आपने कहा था कि आपका बुद्ध खो गया है और हमें उसे खोजने में मदद करनी चाहिए। जब हमने बुद्ध के बारे में पूछा, तो आपने उसे एक उज्ज्वल, जगमगाता हुआ रत्न बताया, लेकिन अब हमें समझ में आया कि असली बुद्ध आपका चित्त है।

गायब बुद्ध की बात करना तो बस हमें बुद्ध के ध्यान में लगाने की एक चतुर चाल थी ताकि हमारे चित्त भी आपके चित्त की तरह उज्ज्वल हो सकें। अब हम समझ गए हैं कि आपकी एकमात्र इच्छा यही है कि हम अपने भीतर बुद्ध को खोजें, जिससे हमारा जीवन सच्चे कल्याण और सुख से भर जाए।”

इस व्यक्ति की धर्म प्राप्ति की खबर पूरे गाँव में तेजी से फैल गई। अब सभी बुद्ध ध्यान में रुचि लेने लगे, यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी इसे अपनाने लगे। इससे आचार्य मन के प्रति गाँव वालों की आस्था और मजबूत हो गई। उनकी शिक्षा के प्रति श्रद्धा बढ़ती गई और फिर कभी किसी ने ‘छिपे हुए बाघ’ की बात नहीं की।

जिस व्यक्ति ने सबसे पहले ध्यान सीखा था, वह प्रतिदिन भिक्षाटन के बाद आचार्य मन का भिक्षापात्र लेकर वन में जाता था। आचार्य मन के भोजन करने के बाद, वह उनके पास बैठकर अपने साधना को लेकर सलाह लेता था। जिन दिनों उसे कोई जरूरी काम होता, वह किसी और को कहकर आचार्य मन को संदेश भिजवा देता कि वह उस दिन भिक्षापात्र उठाने नहीं आ सकेगा। हालाँकि गाँव में बहुत से लोगों ने ध्यान सीख लिया था, लेकिन यह पहला व्यक्ति सबसे निपुण था।

जब लोग संतुष्ट होते हैं, तो बाकी चीजें अपने आप ठीक हो जाती हैं। पहले गाँव वालों को आचार्य मन की दिनचर्या में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे इस बात की भी परवाह नहीं करते थे कि वे कैसे खाते-पीते हैं, कैसे रहते हैं या उनका जीवन कैसा है। लेकिन जब उनमें श्रद्धा जागी, तो वे उनकी जरूरतों का ध्यान रखने लगे। बिना कुछ कहे ही, उन्होंने उनके लिए जंगल में चलने का रास्ता बना दिया। उनके लिए एक झोपड़ी और एक चबूतरा भी बनाया ताकि वे वहाँ बैठकर भोजन कर सकें।

हालाँकि, उनकी मदद के साथ हल्की-फुल्की मज़ाक भी जुड़ा था। वे चिढ़ाते हुए कहते, “देखो, यह ध्यान पथ पूरी तरह झाड़ियों से भरा हुआ है। इसे पार करने के लिए तो जंगली सूअर होना पड़ेगा! और फिर भी, तुम यहाँ चलने पर जोर देते हो। तुम सच में अजीब हो। जब हम पूछते हैं कि यह पथ क्यों है, तो तुम कहते हो कि यह बुद्धो को खोजने की जगह है। जब हम पूछते हैं कि तुम आँखें बंद करके क्यों बैठे रहते हो, तो फिर वही जवाब — बुद्धो की तलाश कर रहा हूँ! तुम एक सर्वोच्च गुरु हो, लेकिन यह बात कभी खुद नहीं बताते। सच में, तुम सबसे अनोखे व्यक्ति हो जिन्हें हमने कभी जाना है, और हमें तुम वैसे ही पसंद हो।”

वे आगे कहते, “तुम्हारा बिस्तर? यह तो गिरे हुए सड़े-गले पत्तों से बना हुआ है, जो बदबू मारते हैं। तुम इतने महीनों तक इसमें कैसे सोए? यह तो सूअर की माँद जैसा दिखता है! अब हमें तुम पर इतनी दया आ रही है कि रोने का मन कर रहा है। हम कितने मूर्ख थे! हमें यह समझने में बहुत देर लगी कि तुम कितने महान व्यक्ति हो। उससे भी बुरा यह कि कुछ लोगों ने तुम पर गलत इरादे रखने का आरोप लगाया और दूसरों को भी तुम्हारे खिलाफ कर दिया। लेकिन अब पूरा गाँव तुम्हारा सम्मान करता है और तुम पर पूरी तरह विश्वास करता है।”

आचार्य मन ने मुस्कुराते हुए कहा, “जब पहाड़ी जनजाति के लोग किसी पर भरोसा करते हैं और सम्मान देने का निर्णय लेते हैं, तो वे इसे पूरे मन से निभाते हैं। उनकी वफादारी बिना शर्त होती है। यदि जरूरत पड़े, तो वे अपने जीवन का बलिदान भी दे सकते हैं। वे जो सिखाया जाता है, उसे पूरी ईमानदारी से अपनाते हैं और उसी के अनुसार खुद को ढालते हैं।”

समय के साथ, जब वे ध्यान साधना में अधिक निपुण हो गए, तो आचार्य मन ने उन्हें ध्यान के समय को बढ़ाने की सलाह दी। वे उन लोगों के साथ एक साल से अधिक रहे — एक साल के फरवरी से अगले साल के अप्रैल तक। लेकिन फिर जाने का समय आ गया।

गाँव वालों के लिए यह विदाई कठिन थी। वे नहीं चाहते थे कि आचार्य मन उन्हें छोड़कर जाएँ। उन्होंने उनसे कहा, “यदि तुम यहाँ मर भी जाओ, तो हम तुम्हारे अंतिम संस्कार की पूरी जिम्मेदारी लेंगे।”

उनका प्रेम और भक्ति अटूट थी क्योंकि उन्होंने स्वयं ध्यान साधना के सकारात्मक परिणाम देखे थे। उन्होंने अपने पुराने व्यवहार के लिए क्षमा भी माँगी। आचार्य मन ने उन्हें क्षमा कर दिया और कहा कि अब उनका प्रायश्चित पूरा हो चुका है। इसका अर्थ था कि अब वे दोनों कहीं और जाने के लिए स्वतंत्र थे।

लेकिन यह विदाई आसान नहीं थी। जब गाँव वालों को पता चला कि आचार्य मन जाने वाले हैं, तो पूरा गाँव उनके चारों ओर एकत्र हो गया। सभी रोने लगे, उनसे विनती करने लगे कि वे न जाएँ। जंगल उनके शोक से गूंज उठा, मानो वे किसी मृत व्यक्ति के लिए विलाप कर रहे हों।

आचार्य मन ने उन्हें शांत किया और समझाया कि यह दुख उचित नहीं है। उन्होंने उन्हें आत्म-संयम रखने और धर्म के मार्ग पर चलने की सलाह दी।

जब वे चुप हो गए, तो ऐसा लगा जैसे उन्होंने उनके जाने की बात मान ली हो। वह जंगल के अपने आश्रय से बाहर निकलने लगे। लेकिन तभी कुछ अनपेक्षित हुआ। पूरे गांव के लोग, जिनमें बच्चे भी थे, उनके पीछे दौड़ पड़े। रास्ते में उन्होंने उन्हें घेर लिया और उनकी जरूरत की चीजें छीनने लगे। किसी ने उनका छाता, किसी ने कटोरा और किसी ने पानी की केतली ले ली। कुछ लोगों ने उनके कपड़े पकड़ लिए, तो कुछ ने उनके हाथ-पैर पकड़कर उन्हें वापस खींचने की कोशिश की — बिल्कुल छोटे बच्चों की तरह। वे उन्हें जाने नहीं देना चाहते थे।

आचार्य मन को फिर से समझाना पड़ा कि उन्हें क्यों जाना है। उन्हें शांत करने में काफी समय लग गया। आखिरकार, जब गांववाले मान गए और वे चलने लगे, तो लोग फिर से रोने लगे और उन्हें रोकने दौड़ पड़े। इस तरह कई घंटे बीत गए, फिर जाकर वे वहां से निकल पाए। इस बीच, पूरे जंगल में हलचल मच गई थी। यह नज़ारा देखने वालों के लिए भावनात्मक रूप से बहुत गहरा था। पहले उन्हें ‘छिपा हुआ बाघ’ कहा जाता था, लेकिन अब गांववालों के दिल में उनके लिए गहरी श्रद्धा और प्रेम उमड़ आया था।

आखिरकार, गांव के ये लोग अपने भावनाओं पर काबू नहीं रख सके। वे रोते हुए और विनती करते हुए उनके पास आ गए। उनकी आवाजें एक साथ मिलकर गूंज उठीं — “कृपया जल्दी वापस आइए, हमें ज्यादा समय तक अकेला मत छोड़िए। हमें आपकी बहुत याद आएगी, हमारा दिल टूट रहा है।”

जो जगह पहले संदेह और असंतोष से भरी थी, वहीं अब स्नेह और प्रेम से भरी विदाई का दृश्य था। आचार्य मन ने वहां के लोगों के मन में प्रेम और श्रद्धा की भावना जगा दी थी, जो एक सच्चे बौद्ध भिक्षु की पहचान होती है। बुद्ध के सच्चे शिष्य किसी से घृणा नहीं करते और दूसरों पर दोष नहीं लगाते। अगर कोई उनसे नफरत करता है, तो वे उसके प्रति प्रेम और करुणा का भाव रखते हैं। वे कभी किसी के दुर्व्यवहार से दुखी नहीं होते और न ही बैर की भावना पालते हैं।

प्रेम और करुणा से भरा चित्त क्रोध और दुख से जलते लोगों के लिए शांति और सहारा बनता है। ऐसे निर्मल और दयालु चित्त में वे गुण होते हैं जो संसार में दुर्लभ हैं।

बाद में जब आचार्य मन ने यह घटना सुनाई, तो हम भी पहाड़ी जनजाति के लोगों की भावनाओं से खुद को जोड़ने से नहीं रोक पाए। हमारे मन में जंगल के उन उथल-पुथल भरे दृश्यों की एक साफ़ छवि उभर आई — जैसे हम कोई फिल्म देख रहे हों। हम उन ग्रामीणों की गहरी आस्था को महसूस कर सकते थे, जो इस महान व्यक्ति के लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार थे। वे बस यही चाहते थे कि उन्हें उनके स्नेह और करुणा का अनुभव करने का अवसर मिले, जिससे उनका जीवन समृद्ध हो सके। इसी कारण वे रोए, उनसे विनती की, उनके हाथ-पैर पकड़े और उनके चीवर व अन्य सामान को खींच लिया, जब तक कि वे फिर से उस छोटी-सी जगह पर न लौट आए, जो उनके लिए संतोष और शांति का स्रोत थी।

यह एक अत्यंत मार्मिक दृश्य था, लेकिन अब आगे बढ़ने का समय आ गया था। इस संसार की अस्थिरता को कोई नकार नहीं सकता। परिवर्तन की यह धारा हर चीज़ को आगे बढ़ाती है — इसे रोका नहीं जा सकता। जब सही समय आया, तो आचार्य मन को जाना पड़ा, हालांकि वे ग्रामीणों की गहरी भावनाओं को समझते थे, जो उनके प्रति स्नेह और लगाव से भरे थे।

पहाड़ी जनजाति के लोगों ने कभी उन्हें ‘छिपा हुआ बाघ’ कहा था, लेकिन वास्तव में वे एक ‘निर्मल चित्त वाले’ व्यक्ति थे, जो इस संसार के लिए असीम पुण्य का आधार थे। उन्होंने अपनी प्रकृति के अनुसार निर्णय लिया — और अधिक लोगों को लाभ पहुँचाने के लिए आगे बढ़ गए।

बौद्ध धर्म हमारी अनमोल विरासत है, जो सदियों से हमारे अस्तित्व का हिस्सा रहा है। लेकिन शायद यह भी आचार्य मन की तरह ही गलतफहमी और विरोध का शिकार हो सकता है। ऐसे लोग भी हैं जो बौद्ध सिद्धांतों और परंपराओं के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हैं, और यह विरासत उनके हाथों क्षति का सामना कर सकती है। सच कहें तो, यह प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है, इसलिए हमें सजग रहना चाहिए। यदि हम अपने उत्तरदायित्वों को नहीं निभाते, तो हम इस अमूल्य धरोहर को खो देंगे — और तब हमारे पास पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा।

आचार्य मन ने सुगतो के मार्ग का अनुसरण किया। जब वे जंगलों और पहाड़ों में रहते थे, तो वे पहाड़ी आदिवासियों, देवताओं, ब्रह्मा, प्रेत, नाग और गरुड़ की सहायता करते थे। वे हमेशा किसी न किसी रूप में दुनिया की मदद करते थे। समाज में उन्होंने भिक्षुओं, भिक्षुओं, भिक्षुणियों और आम लोगों को शिक्षा दी, बिना किसी भेदभाव के। हर जगह लोग उनकी शिक्षाओं को सुनने के लिए आते थे और उनसे बहुत लाभ प्राप्त करते थे। उनकी शिक्षा हमेशा सुसंगत और प्रभावशाली होती थी, जिसे कोई और आसानी से नहीं दोहरा सकता था।

जब वे चियांग माई के पहाड़ों में रहते थे, तो वहां के पहाड़ी लोग दोपहर में उनके धर्म प्रवचन सुनकर आनंदित होते थे। रात में, वे देवताओं को धर्म सिखाते थे और उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करते थे। देवताओं को शिक्षा देना एक महत्वपूर्ण कार्य था, क्योंकि उनके स्तर पर खड़े होने के लिए उतनी ही गहरी ध्यान-शक्ति वाले किसी अन्य भिक्षु को पाना कठिन था। इंसानों को शिक्षा देना अपेक्षाकृत आसान था, क्योंकि सुनने वाले लोग यदि प्रयास करते, तो कुछ न कुछ सीख सकते थे। लेकिन आचार्य मन का संबंध देवताओं से विशेष रूप से गहरा था, और इसलिए उनकी जीवनी में अलग-अलग समय और स्थानों पर उनके अनुभवों का वर्णन मिलता है।

कुछ समय पहले की बात है, मैं एक वरिष्ठ विपश्यना आचार्य के दर्शन के लिए गया। वे अत्यंत दयालु और सौम्य स्वभाव के थे और पूरे थाईलैंड में भिक्षुओं और आम लोगों द्वारा सम्मानित किए जाते थे। जब मैं पहुँचा, तो वे अपने कुछ शिष्यों के साथ धर्म पर चर्चा कर रहे थे। मैंने भी उनके साथ बैठकर इस चर्चा का लाभ उठाया।

हमने पहले धर्म के व्यावहारिक पहलुओं पर चर्चा की और फिर आचार्य मन के विषय पर पहुँचे। यह आचार्य, जो कभी चियांग माई के पहाड़ों में आचार्य मन के साथ साधना कर चुके थे, ने उस दिन मुझे कई अद्भुत घटनाएँ सुनाईं। उन घटनाओं को शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। मैं उनमें से कुछ को यहाँ साझा कर रहा हूँ।

उन्होंने बताया कि आचार्य मन की पवित्रता निर्विवाद थी, लेकिन इसके अलावा, उनके पास कई अनूठी क्षमताएँ भी थीं, जो उनके शिष्यों को अचंभित कर देती थीं और उन्हें सतर्क बनाए रखती थीं। उन्होंने कहा कि आचार्य मन की कई असामान्य क्षमताओं को वे पूरी तरह याद भी नहीं कर सकते, लेकिन उन्होंने मुझे कुछ घटनाएँ बताईं जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकती हैं।

उन्होंने कहा: “आचार्य मन को हमेशा पता होता था कि मैं क्या सोच रहा हूँ – मैं और क्या कह सकता हूँ? ऐसा लगता था जैसे मैं दिन-रात किसी निगरानी में हूँ। मैं अपने मन पर पूरी सतर्कता रखता था, फिर भी वे मेरे भटके हुए विचारों को पकड़ लेते थे और उन्हें सबके सामने प्रकट कर देते थे। उनके साथ रहने के दौरान मेरा ध्यान काफी अच्छा था, लेकिन फिर भी मन को पूरी तरह नियंत्रित कर पाना आसान नहीं था। हमें अपने विचारों की शक्ति को कभी भी कम नहीं आँकना चाहिए। कितने लोग अपने विचारों को इतनी देर तक रोक सकते हैं कि वे प्रभावी रूप से शांत हो जाएँ? इसलिए मैं हमेशा सावधान रहता था, क्योंकि वे मेरे विचारों को मुझसे बेहतर समझते थे! कभी-कभी, वे ऐसे विचार सामने लाते थे जिन्हें मैं खुद भूल चुका होता था, और अचानक वे याद आ जाते थे।”

मैंने आचार्य से पूछा कि क्या आचार्य मन कभी उन्हें डांटते थे। उन्होंने उत्तर दिया: “कभी-कभी वे ऐसा करते थे; लेकिन अधिकतर, वे मेरे विचारों को पढ़कर उन्हें धर्म सिखाने के तरीके के रूप में इस्तेमाल करते थे। जब अन्य भिक्षु भी सुन रहे होते, तो मुझे शर्मिंदगी महसूस होती। लेकिन सौभाग्य से, आचार्य मन कभी किसी का नाम नहीं लेते थे — वे केवल विचार के गुणों और दोषों के बारे में बात करते थे।”

मैं यह जानना चाहता था कि उसे क्यों लगता था कि आचार्य मन कभी-कभी उसे डांटते थे। उसने कहा: “क्या तुम ‘पुथुज्जन’ शब्द जानते हो? इसका मतलब है ऐसा मन जो एक पत्थर के पहाड़ से भी सख्त होता है, जिसे नियंत्रित करना मुश्किल होता है। यह अच्छे या बुरे, सही या गलत विचारों में फर्क नहीं करता। यही कारण था कि आचार्य मन मुझे डांटते थे।”

मैंने उससे पूछा कि क्या आचार्य मन के डांटने से उसे डर लगता था। उसने कहा, “मैं क्यों न डरता? भले ही मेरा शरीर न कांपता हो, लेकिन मन जरूर कांपता था। कई बार तो मैं सांस लेना भी भूल जाता था। मुझे पूरा यकीन है कि आचार्य मन सच में लोगों के मन को पढ़ सकते थे — मैंने खुद इसे अनुभव किया है। वे मेरे विचारों को जान लेते थे और बाद में मुझसे इस बारे में बात करते थे। कई बार मेरे मन में अकेले कहीं जाने का विचार आता था, और अगर यह रात को होता, तो अगली सुबह जैसे ही मैं उनसे मिलता, वे तुरंत बोल पड़ते: ‘तुम कहाँ जाने की सोच रहे हो? यहाँ रहना ही अच्छा है। धर्म सुनना और साधना करना कहीं जाने से बेहतर है।’ वे कभी भी मेरे जाने को स्वीकार नहीं करते थे। मुझे लगता है कि वे चिंतित रहते थे कि कहीं मेरा ध्यान साधना बिगड़ न जाए, इसलिए वे हमेशा मुझे अपनी देखरेख में रखना चाहते थे।”

“मुझे उनसे जो डर लगता था, वह यह था कि दिन हो या रात, जब भी मैं अपना ध्यान उनकी ओर लगाता, तो मैं उन्हें मुझे घूरते हुए पाता। ऐसा लगता था कि वे कभी आराम नहीं करते! कुछ रातों में तो मैं लेटने की भी हिम्मत नहीं करता था, क्योंकि मुझे लगता था कि वे मेरे सामने बैठे मुझे देख रहे हैं और हर पल मेरी निगरानी कर रहे हैं। जब भी मैं अपना ध्यान बाहरी चीजों पर केंद्रित करता, तो भी मैं उन्हें वहीं अपनी ओर देखते हुए महसूस करता। इस कारण मेरी स्मृति हमेशा सतर्क बनी रहती थी।”

“उनके शिष्य होने के नाते, हमें हर समय सतर्क रहना पड़ता था। जब हम उनके साथ भिक्षाटन पर जाते, तो हमें अपने विचारों पर कड़ा नियंत्रण रखना होता था और मन को इधर-उधर भटकने से रोकना पड़ता था। अगर हम असावधान होते, तो हमें उनकी डांट सुननी पड़ती — कभी-कभी तुरंत। इस वजह से हम हमेशा अपने विचारों को संभाल कर रखते थे। फिर भी, आचार्य मन हमें सीख देने के लिए हमेशा कुछ न कुछ खोज ही लेते थे, और वह हमेशा किसी अच्छे कारण से ही बोलते थे।

शाम की सभा में वे कभी-कभी किसी अजीब बात पर डांटने लगते, जो हमें समझ नहीं आती थी। जब सभा खत्म होती, तो भिक्षु आपस में पूछते कि आचार्य मन किसके विचारों की ओर इशारा कर रहे थे। आखिरकार, किसी न किसी भिक्षु को यह स्वीकार करना पड़ता था कि वह सच में ऐसा ही कुछ सोच रहा था। आचार्य मन के साथ रहना एक अनोखा अनुभव था। उनकी उपस्थिति ने हम सभी के भीतर एक गहरी सावधानी और अनुशासन की भावना विकसित कर दी थी।”

उसने मुझे यह भी बताया कि जब वह पहली बार चियांग माई आया था, तो वह एक स्थानीय विहार में ठहरा था। वहाँ एक घंटे से भी कम समय में उसने देखा कि एक कार विहार के मैदान में आई और सीधे उसी झोपड़ी के सामने रुकी, जहाँ वह ठहरा था।

जब मैंने देखा कि कौन आया है, तो वहाँ आचार्य मन खड़े थे! मैं जल्दी से नीचे गया और सम्मानपूर्वक पूछा कि वे क्यों आए हैं। उन्होंने बिना झिझक कहा कि वे मुझे लेने आए हैं। उन्होंने बताया कि एक रात पहले ही उन्हें पता चल गया था कि मैं यहाँ आऊँगा। मैंने पूछा कि क्या किसी ने उन्हें यह सूचना दी थी। उन्होंने जवाब दिया कि यह अलग बात है कि उन्हें कैसे पता चला - बस उन्हें मालूम था और वे यहाँ आना चाहते थे, इसलिए आ गए। यह सुनकर मैं घबरा गया। जितना अधिक मैं इस बारे में सोचता, उतना ही ज्यादा चिंतित होता। बाद में, जब मैं उनके साथ रहने लगा, तो मेरे सारे डर सही साबित हुए।

अगर हम ध्यान से और अहंकार से मुक्त होकर उनके धर्म प्रवचन सुनते, तो हमें बहुत आनंद आता। लेकिन अगर कोई भिक्षु सांसारिक विचारों में उलझा हुआ सुनता, तो प्रवचन जल्द ही उसे भीतर से जला देते। आचार्य मन इस बात की परवाह नहीं करते थे कि उनके शब्द किसके भीतर की क्लेशों को चोट पहुँचाएँगे – उनका धर्म सीधा उन बिंदुओं पर प्रहार करता, जहाँ ये सबसे सक्रिय होते।

कभी-कभी वे किसी भिक्षु का नाम लेकर सीधे उससे पूछते, ‘कल रात तुम इस तरह ध्यान क्यों कर रहे थे? यह तरीका सही नहीं है, तुम्हें ऐसे करना चाहिए।’ या, ‘आज सुबह तुम इस तरह क्यों सोच रहे थे? अगर खुद को नुकसान से बचाना है, तो ऐसे विचार मत रखो। तुम बुद्ध द्वारा बताए मार्ग पर क्यों नहीं चलते? हम यहाँ गलत सोच और दृष्टिकोण से मुक्ति पाने के लिए साधना कर रहे हैं, न कि इन गलत विचारों में उलझने के लिए।’ जो भिक्षु सच्चाई स्वीकार कर लेते, वे शांति में रहते, और आचार्य मन उनसे ज़्यादा कुछ नहीं कहते। लेकिन अगर कोई बहानेबाज़ी करता या खुद को बचाने की कोशिश करता, तो आचार्य मन उसे तुरंत टोक देते। हालाँकि, अगर वह अपनी गलती मान लेता और सुधार करता, तो फिर कोई बात नहीं होती और मामला वहीं समाप्त हो जाता।


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