Aims of Buddhist Education
लेखक: भिक्खु बोधि
आदर्श रूप से, शिक्षा इंसान के विकास का सबसे अहम जरिया है। यह एक अनपढ़ बच्चे को समझदार और जिम्मेदार वयस्क में बदलने में मदद करती है। लेकिन आज दुनिया भर में, चाहे वह विकसित देश हो या विकासशील, औपचारिक शिक्षा गंभीर संकट से जूझ रही है।
स्कूलों में पढ़ाई इतनी रूटीन और सतही हो गई है कि बच्चे इसे सीखने की एक रोमांचक यात्रा की बजाय, बस सहने की चीज़ मानने लगे हैं। यहां तक कि सबसे होशियार और मेहनती छात्र भी बोरियत महसूस करते हैं। कई बच्चों के लिए, शिक्षा की जगह नशे, गलत संगति, हिंसा और असंयमित जीवनशैली के रास्ते ज्यादा आकर्षक लगने लगते हैं।
शिक्षक भी परेशान हैं। वे जिस शिक्षा प्रणाली में काम करते हैं, उससे असंतुष्ट तो हैं, लेकिन उन्हें इसका कोई सार्थक विकल्प नहीं दिखता। इस हालत की सबसे बड़ी वजह यह है कि हमने शिक्षा के असली उद्देश्य को भुला दिया है।
असल में, “शिक्षा” [Education] का अर्थ ही है “भीतर से बाहर लाना” – यानी यह हमारे मन की समझने और सीखने की स्वाभाविक क्षमता को बाहर निकालने की प्रक्रिया है। सीखने की इच्छा इंसान के स्वभाव में होती है, जैसे शरीर को भूख और प्यास लगती है, वैसे ही मन को ज्ञान की जरूरत होती है। लेकिन आज की उलझी हुई दुनिया में, यह सीखने की भूख भी समाज की दूसरी नैतिक कमजोरियों से प्रभावित हो रही है।
जिस तरह हमारी भूख को फास्ट-फूड उद्योग स्वाद तो देता है, लेकिन असली पोषण से वंचित कर देता है, वैसे ही हमारे स्कूल भी बच्चों के दिमाग को जरूरी बौद्धिक और नैतिक पोषण देने में असफल हो रहे हैं।
शिक्षा के नाम पर छात्रों को एक तयशुदा पाठ्यक्रम के तहत चलाया जाता है, जिसका मुख्य मकसद उन्हें समाज की एक रूढ़िवादी व्यवस्था के आज्ञाकारी सेवक बनाना है। यह शिक्षा व्यवस्था भले ही सामाजिक स्थिरता बनाए रखने में मदद कर सकती हो, लेकिन यह शिक्षा का असली उद्देश्य—सत्य और नैतिकता की रोशनी से मन को प्रकाशित करना—पूरा नहीं कर पाती।
हमारी शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी समस्या इसका “वाणिज्यीकरण” है। आधुनिक औद्योगिक समाज, जो अब दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के कृषि-प्रधान इलाकों में भी गहराई से पैठ बना रहा है, यह चाहता है कि शिक्षा केवल ऐसे नागरिक तैयार करे, जो अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाने वाले उपकरण बन सकें।
लेकिन शिक्षा का यह नजरिया बौद्ध दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग है। बौद्ध शिक्षा में व्यावहारिक दक्षता का स्थान जरूर है, क्योंकि बौद्ध धर्म मध्यम मार्ग की शिक्षा देता है—जो कहता है कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक स्वस्थ शरीर और सुरक्षित समाज जरूरी है।
हालांकि, बौद्ध दृष्टि में शिक्षा सिर्फ व्यावहारिक कुशलता तक सीमित नहीं होती। यह मनुष्य की क्षमताओं को उसी रूप में परिपक्व करने का माध्यम है, जैसा कि बुद्ध ने दर्शाया था। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि बौद्ध शिक्षा केवल जानकारी देने तक सीमित न रहे, बल्कि वह जीवन के सही मूल्यों को स्थापित करने का काम भी करे।
शिक्षा केवल सामाजिक और व्यावसायिक कौशल विकसित करने तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसमें छात्रों के भीतर आध्यात्मिक उत्कृष्टता के बीज भी बोने चाहिए। आज के धर्मनिरपेक्ष समाज में औपचारिक शिक्षा मुख्य रूप से करियर निर्माण पर केंद्रित होती है, इसलिए बौद्ध देशों, जैसे श्रीलंका में, धम्म के सिद्धांतों को सिखाने की जिम्मेदारी मुख्य रूप से धम्म स्कूलों पर आती है।
धम्म स्कूलों में बौद्ध शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य चरित्र निर्माण होना चाहिए। किसी भी व्यक्ति का चरित्र उसके मूल्यों से बनता है, और मूल्य प्रेरणादायक आदर्शों से प्रभावित होते हैं। इसलिए, बौद्ध शिक्षकों का पहला काम यह तय करना होना चाहिए कि उनकी शिक्षा प्रणाली किन आदर्शों पर आधारित होगी।
यदि हम बुद्ध के उपदेशों को देखें, तो हमें पाँच प्रमुख गुण मिलते हैं, जिन्हें उन्होंने एक आदर्श शिष्य—चाहे वह भिक्षु हो या गृहस्थ—के लिए आवश्यक बताया है। ये गुण हैं:
• श्रद्धा (सद्धा) – सच्चे मार्गदर्शन और त्रिरत्न में विश्वास।
• नैतिकता (शील) – सही आचरण और सदाचार का पालन।
• उदारता (दान) – दयालुता और निःस्वार्थ सेवा की भावना।
• ज्ञान (सुतमय पन्ना) – अध्ययन और सीखने की प्रवृत्ति।
• प्रज्ञा (भवनामय पन्ना) – गहरी समझ और आत्मबोध।
इनमें से श्रद्धा और उदारता हमारे हृदय और भावनाओं से जुड़ी होती हैं, जबकि ज्ञान और प्रज्ञा बुद्धि से संबंधित हैं। नैतिकता इन दोनों को जोड़ने का काम करती है। इसके पहले तीन नियम—हत्या, चोरी, और यौन दुराचार से बचना—भावनाओं को नियंत्रित करने में मदद करते हैं, जबकि झूठ और नशीले पदार्थों से बचना मानसिक स्पष्टता और ईमानदारी विकसित करने के लिए आवश्यक है।
इसलिए, बौद्ध शिक्षा का लक्ष्य चरित्र और बुद्धि दोनों का समान रूप से विकास करना होना चाहिए, ताकि जीवन संतुलित और पूर्ण बन सके।
बौद्ध शिक्षा प्रणाली की नींव श्रद्धा पर टिकी होनी चाहिए—त्रिरत्न में विश्वास और विशेष रूप से बुद्ध को पूर्ण ज्ञानी, अद्वितीय शिक्षक और सही मार्गदर्शक के रूप में मान्यता देना। इस श्रद्धा के आधार पर, छात्रों को पाँच नैतिक नियमों (पञ्चशील) का पालन करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
वे केवल इन नियमों को रटें नहीं, बल्कि यह समझें कि इन्हें क्यों अपनाना चाहिए और आधुनिक जीवन की चुनौतियों में इन्हें कैसे लागू करना है। यही सच्ची शिक्षा है, जो जीवन को सार्थक और उन्नत बना सकती है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि छात्र इन नैतिक नियमों में निहित सकारात्मक गुणों की गहराई से सराहना करें—दया, ईमानदारी, पवित्रता, सत्यनिष्ठा और मानसिक संयम। साथ ही, वे उदारता और आत्म-बलिदान (चाग) की भावना भी विकसित करें, क्योंकि ये गुण आत्मकेंद्रितता, लालच और केवल अपनी प्रगति पर केंद्रित दृष्टिकोण को समाप्त करने के लिए आवश्यक हैं—जो आज के समाज में व्यापक रूप से फैले हुए हैं।
उदारता का अभ्यास करना केवल देने का कार्य नहीं है, बल्कि यह करुणा और त्याग को विकसित करने का साधन है—वे गुण जो स्वयं बुद्ध के पूरे जीवन और शिक्षाओं में प्रमुख रहे। यह सीखना आवश्यक है कि सहयोग प्रतिस्पर्धा से बड़ा है, आत्म-बलिदान आत्म-प्रचार से अधिक संतोषप्रद है, और सच्ची भलाई दूसरों का शोषण करने या उन पर प्रभुत्व जमाने से नहीं, बल्कि सौहार्द और सद्भावना से प्राप्त होती है।
ज्ञान (सुत) और प्रज्ञा (पन्ना) का गहरा संबंध है। ज्ञान का अर्थ है बौद्ध ग्रंथों का व्यापक अध्ययन, जिसे निरंतर पढ़ने और मनन करने से प्राप्त किया जाता है। लेकिन केवल ज्ञान पर्याप्त नहीं है। ज्ञान का सही उद्देश्य तब पूरा होता है जब यह प्रज्ञा को जन्म देने में सहायक बनता है—अर्थात् धम्म के सत्य को प्रत्यक्ष अनुभव से समझने की क्षमता।
हालाँकि, आर्य अष्टांगिक मार्ग द्वारा प्राप्त उच्चतर प्रज्ञा धम्म स्कूलों की सीमा से परे जाती है। यह प्रज्ञा ध्यान और मानसिक प्रशिक्षण से उत्पन्न होती है। फिर भी, बौद्ध शिक्षा इस प्रज्ञा की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है—छात्रों को धम्म के उन सिद्धांतों को स्पष्ट करके जो अंतर्दृष्टि से समझे जाने चाहिए।
इस प्रक्रिया में ज्ञान और प्रज्ञा एक-दूसरे के पूरक हैं—ज्ञान वह आधार प्रदान करता है जिस पर प्रज्ञा विकसित होती है। प्रज्ञा तब उत्पन्न होती है जब अध्ययन से प्राप्त विचारों और सिद्धांतों को गहरे चिंतन, विचारशील चर्चा और सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा मन में आत्मसात किया जाता है।
यही प्रज्ञा वह कुंजी है, जिसे बुद्ध ने अंतिम मुक्ति का प्रत्यक्ष साधन बताया, अमरत्व के द्वार खोलने का उपाय बताया, और जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सबसे अचूक मार्गदर्शक माना।
इस प्रकार, प्रज्ञा ही बौद्ध शिक्षा प्रणाली का शिखर और मुकुट है। शिक्षा के सभी प्रारंभिक चरण इस सर्वोच्च गुण के विकसित होने की ओर बढ़ने चाहिए। यही वह बिंदु है जहाँ शिक्षा पूर्ण होती है, और अपने सबसे सच्चे अर्थ में ‘प्रकाश’ बन जाती है। जैसा कि स्वयं बुद्ध ने अपने ज्ञानोदय की रात कहा था—“मुझमें दृष्टि, ज्ञान, प्रज्ञा, समझ और प्रकाश उत्पन्न हुआ।”
आप एक प्रख्यात थेरवादी भिक्खु, विद्वान और अनुवादक हैं। आप ने पाली बौद्ध ग्रंथों के गहन अध्ययन और उनके उत्कृष्ट अंग्रेज़ी अनुवाद के माध्यम से विश्वभर के साधकों को लाभान्वित किया है। आप अमेरिका के न्यूयॉर्क स्थित “चित्त विवेक विहार” (Chuang Yen Monastery) में निवास करते हैं, जहाँ आपने बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया है।
आपके अनुवादों में The Connected Discourses of the Buddha (संयुत्तनिकाय), The Middle Length Discourses of the Buddha (मज्झिमनिकाय) जैसे महत्त्वपूर्ण सुत्त ग्रंथ शामिल हैं, जो बौद्ध शिक्षाओं को पश्चिमी जगत में सुलभ और प्रभावशाली बनाने में सहायक रहे हैं। आपकी शिक्षाएँ तर्कसंगत, गहरी और प्रायोगिक हैं, जो आधुनिक जीवन में भी मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।
आपका योगदान न केवल बौद्ध साहित्य में अद्वितीय है, बल्कि आप सामाजिक सेवा और मानवीय कल्याण से भी जुड़े रहे हैं। आपकी शिक्षाएँ और लेखन bodhimonastery.org तथा suttacentral.net पर निःशुल्क उपलब्ध हैं। आप के लेखों को हिन्दी में यहाँ पढ़ा जा सकता हैं।
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