नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

धर्म संघर्ष

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यह समय एक बड़े मानसिक और सामाजिक संकट का समय है। ऐसा लगता है कि मानवता अपने बौद्धिक और आदिम स्वभाव के बीच खिंचाव का सामना कर रही है। एक ओर, तर्क और विवेक का युग था जिसने हमें नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। लेकिन आज, बढ़ती अस्थिरता और अनिश्चितता ने लोगों को उनकी सबसे गहरी आदिम प्रवृत्तियों की ओर मोड़ दिया है। भारत में, यह खिंचाव न केवल राजनीतिक बल्कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर गहराई से महसूस किया जा सकता है।

कोरोना महामारी ने इस प्रक्रिया को और तेज़ कर दिया। जब लोग अकेलेपन और अनिश्चितता में डूबे हुए थे, तब तर्क और वैज्ञानिकता उन्हें ठंडी और कठोर-सी प्रतीत हुई। इसके उलट, आदिम प्रवृत्ति ने एक आश्रय का अनुभव दिया—एक समुदाय का हिस्सा होने की भावना, एक कहानी में अपनी भूमिका, और समूह की सुरक्षा।

भारत में, हिंदुत्व की बढ़ती लोकप्रियता केवल राजनीतिक नहीं है; यह मनोवैज्ञानिक है। यह लोगों के “लिंबिक मस्तिष्क” से संवाद करता है—जो डर, असुरक्षा और पहचान से जुड़ा होता है। यह सरलता से कहता है: “आप खतरे में हैं, लेकिन हम आपके साथ हैं।” यह भावना सरल और शक्तिशाली है। यह लोगों को अपने सांस्कृतिक गौरव के “घाव” से जोड़ता है और उन्हें यह विश्वास दिलाता है कि वे एक महत्वपूर्ण लड़ाई का हिस्सा हैं।

लेकिन तर्क इस वातावरण में संघर्ष करता है। यह हमें जटिलताओं और अनिश्चितताओं से जूझने को कहता है। यह प्रश्न पूछता है, और उत्तर देने में समय लगता है। जब दुनिया इतनी अस्थिर लगती है, तब यह दृष्टिकोण भारी और अप्रिय लगता है। आदिम सोच तुरंत उत्तर देती है: “यह दुश्मन है। यही समाधान है।”

यही वह कारण है कि आज सामाजिक ध्रुवीकरण इतनी तेजी से बढ़ रहा है। आदिम मानसिकता समूहों को मजबूत करती है लेकिन समाज को तोड़ती भी है। “हम बनाम वे” का यह खेल हर क्षेत्र में बढ़ रहा है।

जो समुदाय तर्क और करुणा का केंद्र रहे हैं, वे भी इससे अछूते नहीं हैं। उदाहरण के लिए, चकमा बौद्ध समुदाय। उनकी बौद्ध शिक्षाओं के प्रति आस्था इस समय डगमगा रही है। न तो पुरानी कहानियां, और न ही पारंपरिक अनुष्ठान उन्हें रोक पा रहे हैं। इसके पीछे कारण यह है कि आज का मानसिक और सामाजिक वातावरण “तर्कपूर्ण शांति” की बजाय “आक्रामक पहचान” को प्राथमिकता देता है।

और इस सबके बीच, तर्कशीलता और विवेकशीलता का भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है। क्या कोई आशा बची है? शायद। लेकिन यह पुराने तरीकों से नहीं आएगी। कहानियां सुनाने या अनुष्ठान बनाने जैसे तरीके अब पर्याप्त नहीं हैं।

शायद हमें तकनीक की ओर देखना होगा। वही तकनीक, जो आज ध्रुवीकरण को बढ़ा रही है, सहानुभूति और जागरूकता फैलाने का माध्यम भी बन सकती है। कल्पना कीजिए, अगर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स आदिम प्रवृत्तियों को बढ़ाने की बजाय, लोगों को उनकी मानवता की गहराई से जोड़ें।

पर यह आसान नहीं होगा। तर्कशीलता को अब भावनाओं से जुड़ना होगा। उसे न केवल हमारे मस्तिष्क से, बल्कि हमारे दिल से भी संवाद करना होगा। इस नए युग में तर्कशीलता और विवेकशीलता को अपने स्वरूप में बदलाव लाना होगा। यह लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। और शायद, इसी बदलाव में हमारी उम्मीद छुपी हो।

अब सवाल यह है: क्या बुद्ध का धम्म इस बदलते समय में एक उत्तर बन सकता है? क्या यह उस आदिमता को शांत कर सकता है, जो आज के समाज को तोड़ रही है? जवाब की तलाश जारी है।

लेख समाप्त।



लेखक: भिक्खु कश्यप
(तिथि: २०२४)