नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

कैसे और क्यों?

ध्यान के बारे में दो जरूरी सवाल होते हैं: कैसे और क्यों? ध्यान सिर्फ़ एक तकनीक नहीं है। इसका एक संदर्भ होता है और जब तक इस संदर्भ को नहीं समझते, तब तक यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो सकता कि असल में कर क्या रहे हैं और इससे क्या मिल सकता है।

कैसे की बात करें तो यह बहुत सीधा-सादा है। श्वास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए सीधे बैठो, हाथ गोद में रखो, दाहिना हाथ बाएँ हाथ के ऊपर, पैर क्रॉस करके बैठो, दाहिना पैर बाएँ पैर के ऊपर, आँखें बंद कर लो। यह तो हुआ शरीर को सही स्थिति में लाना, अब मन को सही स्थिति में लाना है। मन को वर्तमान क्षण में टिकाना है। श्वास के बारे में सोचो और देखो कि श्वास भीतर आ रही है तो कैसी लगती है, बाहर जा रही है तो कैसी लगती है, बस इसी अनुभव में पूरी तरह जागरूक रहो। इसमें तीन बातें बहुत जरूरी हैं। एक तो स्मृति, यानी यह याद रखना कि ध्यान में टिके रहना है, दूसरा सतर्कता, यानी पूरी तरह से जागरूक रहना कि अभी श्वास कैसी है, और तीसरा है अतप्प, यानी पूरे मन से ध्यान लगाना, इसे बस यूँ ही करने की चीज़ न समझना बल्कि इसमें पूरी तरह जुट जाना।

अतप्प का मतलब होता है पूरे मन से ध्यान लगाना, इसे हल्के में न लेना। जब ध्यान करो तो उसे लगातार बनाए रखने की कोशिश करो, अगर मन कहीं और चला जाए तो तुरंत वापस ले आओ, बिना देर किए। यहाँ-वहाँ भटकने, चीज़ों को देखने-समझने में समय लगाने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि जितना जल्दी हो सके ध्यान को पूरी तरह पकड़ लो और उसमें रम जाओ। बुद्ध ने कहा है कि इसे ऐसे समझो जैसे सिर में आग लगी हो और तुरंत उसे बुझाने की ज़रूरत हो। यह मज़ाक नहीं है, यह गंभीर मामला है। हमारे जीवन में बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु की आग लगी हुई है और पता नहीं कब यह भड़क उठे। इसलिए इसमें कोई ढिलाई नहीं होनी चाहिए। जब भी मन भटके, बिना किसी हिचक के तुरंत ध्यान पर वापस ले आओ।

अतप्पपूर्वक सतर्क रहने का मतलब यह है कि जब मन श्वास के साथ टिका हुआ हो, तो इसे जितना हो सके संवेदनशील बनाओ ताकि श्वास को समायोजित कर सको और इसे सहज बना सको। अपने प्रयासों के परिणामों पर नज़र रखो। लंबी श्वास लो और देखो कैसा महसूस होता है। फिर छोटी श्वास, भारी श्वास, हल्की श्वास, गहरी, उथली—अलग-अलग तरीकों से आज़माओ। जितनी अधिक सूक्ष्म तुम्हारी जागरूकता होगी, ध्यान उतना ही गहरा और सफल होगा क्योंकि तुम श्वास को और अधिक परिष्कृत बना सकते हो, जिससे मन के टिकने के लिए एक सुखद जगह बनती है। फिर इस सुखद अनुभूति को पूरे शरीर में फैलने दो।

श्वास को केवल फेफड़ों में आने-जाने वाली हवा के रूप में न देखो, बल्कि इसे पूरे शरीर में ऊर्जा प्रवाह के रूप में अनुभव करो। जितनी अधिक संवेदनशीलता होगी, उतना ही स्पष्ट रूप से इस प्रवाह को महसूस कर पाओगे। जितनी अधिक संवेदनशीलता विकसित होगी, श्वास उतनी ही परिष्कृत और सुखद होती जाएगी, जिससे यह मन के टिकने के लिए और अधिक आकर्षक और आत्मसात करने योग्य बन जाएगी।

यही मूल उपाय है जिससे मन को वर्तमान क्षण में स्थिर किया जाता है—उसे कोई ऐसी चीज़ देनी होती है जिसे वह पसंद करे। अगर वह यहाँ जबरदस्ती रोका गया है, तो यह उस गुब्बारे की तरह होगा जिसे पानी में दबा दिया गया हो। जब तक हाथ मजबूती से थामे रहेगा, गुब्बारा नीचे रहेगा, लेकिन जैसे ही पकड़ ज़रा सी ढीली हुई, गुब्बारा तुरंत ऊपर उछल जाएगा। अगर मन को किसी अप्रिय वस्तु पर टिकाया गया है, तो वह नहीं रहेगा। जैसे ही स्मृति थोड़ी भी ढीली हुई, मन तुरंत भटक जाएगा।

इसे एक माता-पिता और बच्चे के संबंध से भी समझ सकते हो। अगर माता-पिता हमेशा बच्चे को डाँटते-मारते रहते हैं, तो वह घर छोड़कर भागने का कोई भी मौका नहीं छोड़ेगा। भले ही दरवाजे-खिड़कियाँ बंद कर दें, वह कोई न कोई रास्ता ढूँढेगा। जैसे ही माता-पिता की नज़र हटेगी, वह गायब हो जाएगा। लेकिन अगर माता-पिता बच्चे को स्नेह दें, खेलने के लिए अच्छी चीजें दें, घर में मन लगाने के लिए कुछ रुचिकर कार्य दें, और उसे प्रेम तथा सुरक्षा का अनुभव कराएँ, तो बच्चा खुद ही घर में रहना पसंद करेगा, चाहे दरवाजे-खिड़कियाँ खुली ही क्यों न हों।

इसी तरह मन के साथ भी व्यवहार करना चाहिए। इसके प्रति मित्रवत रहो। इसे वर्तमान क्षण में टिकने के लिए कुछ अच्छा दो—जैसे सहज श्वास। हो सकता है कि पूरे शरीर को आरामदायक न बना सको, लेकिन कम से कम शरीर के किसी एक भाग को तो आरामदायक बनाओ और उसी पर टिके रहो। जहाँ दर्द है, उसे अपने हिस्से में रहने दो। उसे वहाँ रहने का पूरा अधिकार है, लेकिन उससे एक समझौता कर लो—वह अपने स्थान पर रहे और तुम अपने स्थान पर।

लेकिन ध्यान देने योग्य मुख्य बात यह है कि तुम्हारे पास वर्तमान क्षण में एक ऐसा स्थान होना चाहिए जहाँ मन स्थिर, सुरक्षित और आरामदायक महसूस करे। ध्यान की शुरुआत इन्हीं प्रारंभिक कदमों से होती है।

इस तरह के ध्यान का उपयोग कई उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है, लेकिन बुद्ध ने यह समझा कि इसका सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य मन को बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु के पूरे चक्र से मुक्त करना है। और जब इस पर विचार करते हैं, तो इससे अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है। यही जीवन की सबसे बड़ी समस्या है, फिर भी समाज आमतौर पर बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु की समस्याओं को नज़रअंदाज़ कर देता है, उन्हें किनारे रख देता है क्योंकि अन्य चीज़ें अधिक महत्वपूर्ण लगती हैं। अधिक पैसा कमाना ज़रूरी लगता है, अच्छे रिश्ते बनाना ज़रूरी लगता है, और बहुत कुछ। इस बीच, जीवन के सबसे बड़े सत्य—कि एक दिन यह शरीर बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु की यातनाओं और अपमानों का सामना करेगा—उन्हें बस टाल दिया जाता है। “अभी नहीं, अभी नहीं, शायद किसी और समय।” लेकिन जब वह “कोई और समय” सच में आ जाता है, तो ये समस्याएँ टाली नहीं जा सकतीं। अगर पहले से खुद को तैयार नहीं किया है, तो फिर कोई सहारा नहीं रहेगा, एकदम असहाय अनुभव होगा।

यही वे सबसे महत्वपूर्ण चीज़ें हैं, जिनके लिए हमें खुद को तैयार करना चाहिए। जीवन की कई चीज़ें अनिश्चित हैं, लेकिन कुछ चीज़ें निश्चित हैं—बुढ़ापा आएगा, बीमारी आएगी, मृत्यु निश्चित रूप से आएगी। जब कोई चीज़ निश्चित रूप से आने वाली हो, तो उसके लिए पहले से तैयारी करनी ज़रूरी है। और जब यह समझ में आता है कि यह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण विषय है, तो फिर अपने जीवन को देखने और समझने की ज़रूरत होती है। ध्यान और बुद्ध के शिक्षाओं का अभ्यास सिर्फ कभी-कभार आँखें बंद करके बैठने का सवाल नहीं है। यह इस बारे में है कि हम अपने जीवन की प्राथमिकताओं को कैसे व्यवस्थित करते हैं। बुद्ध ने कहा कि जब यह दिखे कि एक बड़ी और श्रेष्ठ ख़ुशी छोटी और क्षणिक ख़ुशियों को त्यागकर पाई जा सकती है, तो छोटी ख़ुशियों को छोड़ देना चाहिए। अपने जीवन को देखो—जो चीज़ें पकड़कर बैठे हो, जो छोटे-छोटे सुखों में मन आनंद खोज रहा है लेकिन कोई गहरा संतोष नहीं मिल रहा—क्या वही चीज़ें सच में इतनी महत्वपूर्ण हैं? क्या तुम सच में उन्हें पकड़कर रखना चाहते हो? क्या वे तुम्हारे जीवन को नियंत्रित करेंगी?

फिर इससे भी बड़े प्रश्न आते हैं—क्या तुम उस आनंद को पाने का अवसर लोगे जो बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु से परे है? क्या यह तुम्हारे जीवन की पहली प्राथमिकता होगी?

ये प्रश्न हैं, जिनका उत्तर हमें अपने भीतर खोजना होगा। बुद्ध जबरदस्ती जवाब नहीं देते, वे बस स्थिति को स्पष्ट करते हैं। वे यह बताते हैं कि खाने-पीने, शरीर का ध्यान रखने और आराम से जीवन जीने से परे भी एक आनंद संभव है। यह उनके शिक्षाओं की सबसे अच्छी ख़बर है, खासकर इसलिए कि दुनिया आमतौर पर कहती है, “यही जीवन है, इसका पूरा आनंद लो। इन्हीं तात्कालिक सुखों से संतोष करो और किसी और चीज़ के बारे में मत सोचो। असंतोष को मत आने दो।” लेकिन जब इस सोच पर ध्यान देते हैं, तो यह बेहद निराशाजनक लगती है, क्योंकि इसका मतलब बस इतना ही है कि मरने से पहले जितना हो सके, उतना लूट लो। और जब मृत्यु आ जाएगी, तो कुछ भी साथ नहीं ले जा सकोगे।

लेकिन बुद्ध कहते हैं कि आनंद का एक और रूप है, एक ऐसा ज्ञान है जो बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु से परे है, और इसे केवल मानवीय प्रयास से पाया जा सकता है, यदि हम कुशलता से अभ्यास करें। यह एक अच्छी ख़बर भी है और एक चुनौती भी। क्या तुम बस साधारण जीवन जीते हुए अपना समय व्यर्थ करोगे? या फिर इस चुनौती को स्वीकार कर, अपने जीवन को एक उच्च उद्देश्य के लिए समर्पित करोगे?

बुद्ध ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने जीवन को दांव पर लगा दिया। उन्हें किसी ने नहीं बताया था कि यह संभव है, लेकिन उन्होंने सोचा कि जीवन में कोई भी गरिमा या सम्मान तभी होगा जब एक ऐसा आनंद मिले जो न तो वृद्ध होता हो, न बीमार पड़ता हो, न ही मरता हो। और जब उन्हें यह समझ में आया कि इस आनंद को पाने के लिए क्या-क्या त्याग करना होगा, तो उन्होंने वे त्याग किए—न सिर्फ इसलिए कि वे उन्हें त्यागना चाहते थे, बल्कि इसलिए कि त्याग आवश्यक था। परिणामस्वरूप, वे उस आनंद को प्राप्त कर सके जिसकी वे खोज कर रहे थे। उनकी जीवन-गाथा और उनकी शिक्षाएँ हमारे लिए एक चुनौती हैं—हम अपने जीवन को कैसे जीने वाले हैं?

हम यहाँ साथ में ध्यान कर रहे हैं। लेकिन जब तुम्हारा मन स्थिर हो जाए, तब तुम उस स्थिर मन के साथ क्या करने वाले हो? अगर चाहो, तो ध्यान को केवल विश्राम का एक तरीका बना सकते हो, या बस अपने तनाव को शांत करने का साधन। लेकिन बुद्ध कहते हैं कि ध्यान इससे कहीं अधिक गहराई रखता है। जब मन वास्तव में स्थिर होता है, तब तुम इसकी गहराइयों में जाकर उन प्रवाहों को देख सकते हो जो इसके भीतर छिपे हुए हैं। तुम समझ सकते हो कि मन को क्या-क्या संचालित करता है। लोभ कहाँ है? क्रोध कहाँ है? वे भ्रांतियाँ कहाँ हैं जो तुम्हें बार-बार भटकाती हैं? और इन्हें कैसे काटा जा सकता है?

ये वे प्रश्न और विषय हैं जिन्हें ध्यान के माध्यम से समझा और हल किया जा सकता है—लेकिन तभी जब हमें इनकी गंभीरता का अहसास हो, जब हमें यह समझ में आए कि ये हमारे वास्तविक प्राथमिक विषय हैं। अगर यह अहसास नहीं है, तो हम इन्हें छूना भी नहीं चाहेंगे, क्योंकि ये बड़े प्रश्न हैं और जब हम इनके पास जाते हैं तो ये हमें डराते हैं। लेकिन अगर हम वास्तव में इनके मूल में जाएँ, तो पाएँगे कि ये सिर्फ कागज़ी शेर हैं। मैंने एक बार एक ध्यान गाइड में एक शेर का चित्र देखा था। उसका चेहरा बहुत ही डरावना और यथार्थवादी था, लेकिन उसका शरीर केवल मुड़ा हुआ कागज़ था। यही हाल मन की बहुत-सी समस्याओं का होता है—ये तुम्हारे सामने डरावनी लगती हैं, लेकिन जब तुम उनका सामना करते हो, तो वे बस ओरिगामी की तरह मुड़कर गिर जाती हैं।

लेकिन इन्हें हराने के लिए तुम्हारे भीतर यह पक्का संकल्प होना चाहिए कि ये जीवन के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, और तुम इनके समाधान के लिए जो भी छोड़ना पड़े, छोड़ने के लिए तैयार हो। यही फर्क पैदा करता है—एक ऐसा अभ्यास जो मन की दीवारों को गिरा सकता है और एक ऐसा अभ्यास जो केवल कमरे के फर्नीचर को इधर-उधर कर देता है।

जब तुम ध्यान का अभ्यास करते हो, तब तुम्हें यह समझ में आता है कि इसमें “कैसे” और “क्यों” दोनों पहलू होते हैं—और “क्यों” वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण है। अक्सर “क्यों” को किनारे कर दिया जाता है। लोग सिर्फ कोई तकनीक अपना लेते हैं और फिर उसे कैसे प्रयोग करना है, यह उनके ऊपर छोड़ दिया जाता है। यह बात किसी हद तक सही भी है, लेकिन यह पूरी संभावना को अनदेखा कर देती है। जब तुम इन संभावनाओं को बुद्ध की शिक्षाओं के संदर्भ में रखते हो, तो तुम समझते हो कि ध्यान का वास्तविक मूल्य क्या है, यह कितनी गहराई तक जा सकता है, और यह कितनी बड़ी उपलब्धि दे सकता है। यह कार्य बहुत बड़ा है, लेकिन इसका परिणाम भी उतना ही बड़ा है।

और यह विषय अत्यंत आवश्यक है। बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु किसी भी समय आ सकते हैं। तुम्हें खुद से पूछना होगा—“क्या मैं तैयार हूँ? क्या मैं मरने के लिए तैयार हूँ?” पूरी ईमानदारी से इस प्रश्न का उत्तर दो। अगर उत्तर “नहीं” है, तो समस्या कहाँ है? तुम्हें क्या कमी महसूस हो रही है? तुम अभी भी किस चीज़ को पकड़कर बैठे हो? और क्यों पकड़कर बैठे हो? जब मन स्थिर होता है, तो तुम इन प्रश्नों की गहराई में जा सकते हो। और जितना गहरा जाओगे, उतना अधिक अपने भीतर छिपी परतों को खोज निकालोगे—ऐसी चीज़ें जिनका तुमने पहले कभी संदेह भी नहीं किया था, लेकिन जो अनजाने में तुम्हारे जीवन को नियंत्रित कर रही थीं। जब तुम इन्हें पहचानते हो, तो उनसे मुक्त हो सकते हो। तब तुम्हें यह अहसास होता है कि अब तक जो चीज़ें तुम्हारे जीवन को चला रही थीं, वे कितनी मूर्खतापूर्ण थीं—न जाने कहाँ से तुमने इन्हें अपना लिया और उनके साथ खेलते रहे।

लेकिन अब जब यह समझ में आ जाता है कि उनके साथ खेलते रहने से कुछ भी हासिल नहीं होता, बल्कि उन्हें छोड़ देना ही बेहतर है—और यह कि उन्हें छोड़ना तुम्हारे हाथ में है—तो तुम उन्हें जाने देते हो। और वे भी तुम्हें जाने देते हैं। जो शेष बचता है, वह पूर्ण स्वतंत्रता होती है। बुद्ध कहते हैं कि यह इतनी संपूर्ण होती है कि इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

तो ध्यान इसी संभावना की ओर संकेत करता है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इस दिशा में कितना आगे बढ़ना चाहते हैं, हम अपनी सच्ची खुशी और अपने वास्तविक कल्याण के लिए कितना समर्पित हैं। ऐसा लग सकता है कि हर कोई यही कहेगा, “बिल्कुल, मैं अपनी खुशी और कल्याण की परवाह करता हूँ।” लेकिन अगर लोगों के जीवन को ध्यान से देखा जाए, तो स्पष्ट होता है कि वे वास्तव में अपनी सच्ची खुशी की खोज में अधिक ऊर्जा या विचार नहीं लगाते। आमतौर पर लोग दूसरों को देखकर उनके रास्ते पर चल पड़ते हैं, बिना यह सोचे कि क्या यह सही है—जैसे कि सच्ची खुशी कोई इतनी तुच्छ चीज़ है कि इसे दूसरों पर छोड़ देना चाहिए।

लेकिन ध्यान हमें यह अवसर देता है कि हम स्वयं देख सकें कि जीवन में क्या वास्तव में महत्वपूर्ण है—और फिर उसके लिए कुछ कर सकें।


📋 सूची | अगला प्रवचन »